समुद्र मंथन कथा
समुद्र मंथन की कथा हिन्दू पौराणिक कथाओं में एक महत्वपूर्ण और रोचक घटना है, जो भगवान विष्णु, देवताओं और असुरों के बीच सहयोग और संघर्ष को दर्शाती है। यह कथा मुख्य रूप से ‘भागवत पुराण’, ‘विष्णु पुराण’, और ‘महाभारत’ में वर्णित है।
कथा के अनुसार, देवता और असुर दोनों ही अमृत प्राप्त करके अमरता प्राप्त करने की इच्छा रखते थे। अमृत केवल समुद्र के मंथन से प्राप्त हो सकता था, इसलिए दोनों ने सहयोग करने का निश्चय किया। मंथन के लिए मंदराचल पर्वत को मथनी के रूप में और वासुकी नाग को रस्सी के रूप में इस्तेमाल किया गया।
मंथन शुरू होने पर, समुद्र से कई दिव्य वस्तुएँ और प्राणी निकले, जिनमें हलाहल विष, कामधेनु, उच्चैश्रवा घोड़ा, ऐरावत हाथी, कौस्तुभ मणि, पारिजात वृक्ष, अप्सराएँ, लक्ष्मी, धन्वंतरि आदि शामिल थे।
समुद्र मंथन से निकले विष को पीने के लिए कोई भी तैयार नहीं था। अंत में, भगवान शिव ने समस्त सृष्टि की रक्षा के लिए विष को पी लिया, लेकिन उनकी पत्नी पार्वती ने उनके गले में हाथ डाल दिया जिससे विष उनके गले में ही रुक गया और उनका गला नीला पड़ गया। इसलिए उन्हें ‘नीलकंठ’ के नाम से भी जाना जाता है।
जब अमृत कलश प्रकट हुआ, तब असुरों ने उसे छीन लिया। इस समस्या का समाधान करने के लिए, भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप धारण किया और असुरों को छलकर अमृत देवताओं को दे दिया। इस प्रकार, देवता अमर हो गए और असुरों को पराजित किया गया।
समुद्र मंथन कहां हुआ था
समुद्र मंथन की कथा में विशिष्ट स्थान का उल्लेख नहीं है, लेकिन यह माना जाता है कि यह क्रिया क्षीर सागर (दूध का सागर) में हुई थी। क्षीर सागर हिंदू पुराणों में वर्णित एक मिथकीय सागर है, जिसे अक्सर भगवान विष्णु के विश्राम स्थल के रूप में चित्रित किया गया है, जहाँ वे शेषनाग पर लेटे हुए हैं। समुद्र मंथन की इस प्रक्रिया में देवता और असुरों ने मिलकर क्षीर सागर का मंथन किया था। इसलिए, यह घटना एक मिथकीय और पौराणिक संदर्भ में हुई थी, जिसका भौतिक विश्व में कोई निश्चित स्थान नहीं है।
समुद्र मंथन कितने दिन चला
समुद्र मंथन की प्रक्रिया को लेकर पौराणिक ग्रंथों में विशेष रूप से कितने दिनों तक चली, इसका सटीक उल्लेख नहीं मिलता है। हालांकि, यह वर्णित है कि समुद्र मंथन एक लंबी और कठिन प्रक्रिया थी, जिसमें देवताओं और असुरों ने अमृत की खोज में बड़ी मेहनत और संघर्ष किया था। इस दौरान विभिन्न रत्नों की उत्पत्ति हुई और कई घटनाएँ घटित हुईं।
कुछ कथाओं के अनुसार, यह प्रक्रिया हजारों वर्षों तक चली थी, जिसमें देवता और असुरों ने विभिन्न चरणों में अपनी शक्तियों का परीक्षण किया और अंततः अमृत की प्राप्ति हुई। पुराणों में समय का मानक अलग होता है और मानवीय समय के हिसाब से देवता और असुरों के कार्यों की अवधि को मापना कठिन है। इसलिए, समुद्र मंथन की अवधि को लेकर एक निश्चित समय सीमा का उल्लेख नहीं है और यह अधिकांशतः पौराणिक और आध्यात्मिक महत्व की एक कथा के रूप में देखी जाती है।
समुद्र मंथन पर्वत नाम
समुद्र मंथन के लिए जिस पर्वत का उपयोग मथनी के रूप में किया गया था, वह है मंदराचल पर्वत। मंदराचल पर्वत को समुद्र के मध्य में रखा गया था, और इसे घुमाने के लिए वासुकी नाग को रस्सी के रूप में इस्तेमाल किया गया था। देवता और असुरों ने मिलकर इस पर्वत को घुमाया था, जिससे समुद्र का मंथन हुआ और अनेक दिव्य वस्तुएँ और अमृत प्राप्त हुआ।
समुद्र मंथन का कछुआ
समुद्र मंथन के दौरान जब मंदराचल पर्वत को मथनी के रूप में इस्तेमाल किया गया और वासुकी नाग को रस्सी के रूप में, तब एक समस्या सामने आई। मथनी इतनी भारी थी कि वह समुद्र के तल में डूबने लगी। इस समस्या का समाधान करने के लिए भगवान विष्णु ने कछुए का अवतार लिया, जिसे कूर्म अवतार कहा जाता है।
कूर्म अवतार में भगवान विष्णु ने समुद्र के तल पर जाकर अपनी पीठ पर मंदराचल पर्वत को उठा लिया, जिससे वह डूबे बिना स्थिर रह सके और समुद्र मंथन सुचारू रूप से संपन्न हो सके। इस प्रकार, कूर्म अवतार ने समुद्र मंथन की प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और देवता और असुरों को अमृत प्राप्त करने में मदद की।
समुद्र मंथन के 14 रत्न
समुद्र मंथन के दौरान निकले 14 रत्नों की सूची निम्नलिखित है:
- हलाहल विष – यह पहला रत्न था जो समुद्र मंथन से निकला। इसे भगवान शिव ने पी लिया था, जिससे उनका गला नीला पड़ गया था और वह ‘नीलकंठ’ के नाम से प्रसिद्ध हुए।
- कामधेनु – एक दिव्य गाय जो किसी भी इच्छा को पूरा कर सकती है।
- उच्चैश्रवा – एक सफेद रंग का दिव्य घोड़ा जो असाधारण गति से चल सकता है।
- ऐरावत – इंद्र का सफेद हाथी, जो चार दांतों वाला था।
- कौस्तुभ मणि – एक अत्यंत मूल्यवान रत्न जो भगवान विष्णु ने धारण किया।
- पारिजात वृक्ष – एक दिव्य वृक्ष जिसके फूल स्वर्ग में ही उगते हैं।
- अप्सराएँ – स्वर्ग की सुंदरी, जिनमें से रम्भा, मेनका, उर्वशी आदि प्रमुख हैं।
- लक्ष्मी – धन और समृद्धि की देवी, जिन्होंने भगवान विष्णु को अपना पति चुना।
- सुरा या वरुणी – मदिरा या शराब की देवी।
- धन्वंतरि – आयुर्वेद के देवता, जो अमृत कलश के साथ प्रकट हुए।
- चन्द्रमा – चन्द्रमा भी समुद्र मंथन से प्रकट हुए और शिव जी के सिर पर विराजमान हुए।
- रम्भा – स्वर्ग की एक और अप्सरा, जो सौंदर्य और नृत्य की प्रतीक हैं।
- कल्पवृक्ष – इच्छाओं को पूरा करने वाला दिव्य वृक्ष।
- अमृत – अमरत्व का नेक्टर, जिसके लिए समुद्र मंथन किया गया था।
इन रत्नों के प्राप्त होने के बाद, देवता और असुरों के बीच विभाजन हुआ, और अमृत का पान केवल देवताओं तक सीमित रहा, जिसे भगवान विष्णु की माया से संभव बनाया गया।
हलाहल विष
हलाहल विष, समुद्र मंथन के दौरान निकलने वाली पहली वस्तु थी, जो एक अत्यंत घातक विष था। इस विष की उत्पत्ति से समस्त सृष्टि को खतरा उत्पन्न हो गया था। देवता और असुर, दोनों ही इस विष से बचने के लिए चिंतित हो गए थे क्योंकि इसके प्रभाव से सम्पूर्ण सृष्टि का विनाश हो सकता था।
इस समस्या का समाधान ढूंढते हुए सभी देवता और असुर भगवान शिव की शरण में गए। भगवान शिव, जो की सृष्टि के कल्याण के लिए सदैव तत्पर रहते हैं, ने इस विष को पीने का निश्चय किया। जब उन्होंने विष को पिया, तब उनकी पत्नी माँ पार्वती ने उनके गले को पकड़ लिया ताकि विष उनके शरीर में नीचे ना उतर सके। इस प्रक्रिया में विष ने उनके गले को नीला कर दिया, लेकिन उसके आगे नहीं बढ़ पाया। इसी कारण भगवान शिव ‘नीलकंठ’ के नाम से प्रसिद्ध हो गए।
भगवान शिव के इस महान कार्य को सृष्टि के कल्याण के लिए उनके अथाह प्रेम और त्याग के रूप में देखा जाता है। उन्होंने समस्त सृष्टि की रक्षा के लिए अपने आप को खतरे में डाल दिया, जिससे उनका स्थान हिंदू धर्म में और भी ऊँचा हो गया। नीलकंठ महादेव की यह कथा हिन्दू धर्म में उनकी असीम शक्ति और करुणा का प्रतीक है।
कामधेनु
कामधेनु, हिन्दू मिथोलॉजी में वर्णित एक दिव्य गाय है, जिसे समुद्र मंथन के दौरान प्राप्त अनमोल रत्नों में से एक माना जाता है। कामधेनु को इच्छाधारी गाय के रूप में जाना जाता है, जो अपने मालिक की किसी भी इच्छा को पूरा कर सकती है। यह अपार समृद्धि और धन का प्रतीक है।
कामधेनु की दिव्यता और शक्तियों के कारण, इसे देवताओं और ऋषियों द्वारा अत्यंत सम्मानित और पूजित किया जाता है। इसे न केवल भौतिक समृद्धि का स्रोत माना जाता है बल्कि यह आध्यात्मिक उन्नति और पवित्रता का भी प्रतीक है।
कामधेनु को अक्सर विविध धार्मिक कथाओं और पुराणों में उल्लेखित किया गया है, और यह विशेष रूप से वैदिक ऋषियों और साधुओं की आश्रमों में पाई जाती थी, जहाँ इसके द्वारा अन्न, दूध, और अन्य नैतिक आवश्यकताओं की पूर्ति की जाती थी। कामधेनु की उपस्थिति किसी भी स्थान को धन्य और पवित्र बना देती है, और इसकी पूजा धन और समृद्धि के लिए की जाती है।
उच्चैश्रवा –
उच्चैश्रवा, समुद्र मंथन के दौरान प्राप्त हुए दिव्य रत्नों में से एक, एक सफेद रंग का दिव्य घोड़ा है जिसे असाधारण गति और शक्ति प्रदान की गई है। इसे स्वर्ग के राजा, देवराज इंद्र का वाहन माना जाता है। उच्चैश्रवा को अपनी श्वेत वर्णी चमक और अद्भुत सौंदर्य के लिए जाना जाता है।
पौराणिक कथाओं में उच्चैश्रवा का वर्णन एक ऐसे घोड़े के रूप में किया गया है जिसकी तुलना किसी भी सामान्य घोड़े से नहीं की जा सकती। इसकी गति इतनी तीव्र है कि यह क्षणभर में ही विशाल दूरियों को पार कर सकता है। उच्चैश्रवा का समुद्र मंथन से प्राप्त होना देवताओं के लिए एक महत्वपूर्ण उपलब्धि मानी गई थी, और यह दिव्य घोड़ा देवताओं की शक्ति और समृद्धि का प्रतीक बन गया।
ऐरावत
ऐरावत, जिसे समुद्र मंथन के दौरान प्रकट हुआ एक दिव्य रत्न माना जाता है, देवराज इंद्र का सफेद हाथी है। इसे अत्यंत शुभ और शक्तिशाली प्राणी माना जाता है। ऐरावत की विशेषता यह है कि इसके चार दांत होते हैं और यह सफेद रंग का होता है, जो इसे सामान्य हाथियों से अलग बनाता है। इंद्र के वाहन के रूप में, ऐरावत को स्वर्ग की समृद्धि और प्राकृतिक शक्तियों का प्रतीक माना जाता है।
पौराणिक कथाओं में ऐरावत का वर्णन एक अत्यंत सुंदर और दिव्य प्राणी के रूप में किया गया है, जिसकी सवारी करने वाले देवता भी अपनी दिव्यता और शक्ति में वृद्धि महसूस करते हैं। ऐरावत को कभी-कभी इंद्रलोक की शांति और समृद्धि का संरक्षक भी माना जाता है।
कौस्तुभ मणि
कौस्तुभ मणि, समुद्र मंथन के दौरान प्राप्त दिव्य रत्नों में से एक है, जिसे अत्यंत मूल्यवान माना जाता है। यह रत्न भगवान विष्णु द्वारा धारण किया जाता है और उनके वक्षस्थल पर स्थित होता है। कौस्तुभ मणि को उनके दिव्य आभूषणों में सबसे अधिक प्रतिष्ठित माना जाता है, और यह उनकी अलौकिकता और सर्वोच्चता का प्रतीक है।
कौस्तुभ मणि का वर्णन अक्सर इसकी अद्भुत चमक और सौंदर्य के लिए किया जाता है। यह रत्न न केवल भगवान विष्णु की दिव्यता को बढ़ाता है बल्कि उनके वैभव और महिमा को भी प्रदर्शित करता है। कौस्तुभ मणि को भगवान विष्णु की अनन्य शक्तियों और उनके दिव्य व्यक्तित्व के साथ जोड़ा जाता है।
पौराणिक कथाओं में कौस्तुभ मणि का उल्लेख भगवान विष्णु के साथ उनकी विभिन्न लीलाओं और अवतारों में किया जाता है, जिससे इसका महत्व और भी अधिक स्पष्ट होता है। यह रत्न उनकी असीम दिव्यता और शक्ति का संकेत है, जिसे वे हमेशा अपने साथ धारण करते हैं।
कल्पवृक्ष –
कल्पवृक्ष, समुद्र मंथन के दौरान प्राप्त दिव्य रत्नों में से एक, एक मिथकीय और पौराणिक वृक्ष है जिसे इच्छाधारी वृक्ष के रूप में जाना जाता है। यह वृक्ष अपने आप में एक अद्भुत सृजन है जो किसी भी इच्छा को पूरा करने की क्षमता रखता है। कल्पवृक्ष को स्वर्ग में देवताओं के निवास स्थान में होने का वर्णन मिलता है, जहां यह दिव्यता और समृद्धि का प्रतीक है।
कल्पवृक्ष का उल्लेख हिन्दू पौराणिक कथाओं, जैसे कि महाभारत और विभिन्न पुराणों में मिलता है। इसे अक्सर देवताओं के स्वर्गलोक में स्थित एक वृक्ष के रूप में चित्रित किया जाता है जो उनकी सभी इच्छाओं को पूर्ण करता है। कल्पवृक्ष की यह विशेषता उसे मानवीय इच्छाओं और आकांक्षाओं के प्रतीक के रूप में स्थापित करती है।
कल्पवृक्ष की मान्यता केवल हिन्दू धर्म में ही नहीं है, बल्कि अन्य धार्मिक परंपराओं और संस्कृतियों में भी इस तरह के इच्छाधारी वृक्षों का उल्लेख मिलता है। यह वृक्ष सकारात्मकता, आशा और अनंत संभावनाओं का प्रतीक है। धार्मिक कथाओं और कला में, कल्पवृक्ष की छवि आमतौर पर शांति, समृद्धि, और नैतिकता के संवर्धन के साथ जुड़ी होती है।
रम्भा –
रम्भा, हिंदू पौराणिक कथाओं में वर्णित एक अप्सरा हैं, जिन्हें स्वर्ग की निवासिनी माना जाता है। वे सौंदर्य और गुणकारी विशेषताओं के साथ जानी जाती हैं, और उनका नृत्य और आकर्षण देवताओं और मनुष्यों को मोहित करता है।
रम्भा का उल्लेख महाभारत, रामायण और विभिन्न पुराणों में मिलता है। वे देवताओं के स्वर्ग में नाट्य और संगीत का आनंद उठाती हैं, और अप्सराओं की रानी के रूप में उनका उल्लेख किया जाता है। रम्भा को अप्सराओं की महारानी के रूप में भी वर्णित किया गया है, और उनके नृत्य और सौंदर्य की कहानियाँ धार्मिक परंपराओं में प्रसिद्ध हैं।
उन्हें भगवान इंद्र द्वारा प्यार का आदान-प्रदान किया गया था, और कई कथाएँ उनके प्रेम और अनुभवों के बारे में हैं। रम्भा की कथाएँ अधिकतर उनके प्रेम और विवाह से जुड़ी होती हैं, और उनका काहे का विवाह और प्रेम से जुड़ा होना उनकी प्रतिष्ठा को और भी बढ़ाता है। रम्भा के नाम से शौरसेनी, जिसका अर्थ होता है ‘आकर्षणीय’ भी कहा जाता है। उनकी कथाएँ संगीत, संगीत और सौंदर्य की महत्ता को प्रस्तुत करती हैं, और उन्हें एक दिव्य प्राकृतिक सौंदर्य का प्रतीक माना जाता है।
लक्ष्मी –
लक्ष्मी, धन, समृद्धि, और भाग्य की हिन्दू देवी हैं, जिन्हें समुद्र मंथन के दौरान प्रकट होने वाले दिव्य रत्नों में से एक माना जाता है। देवी लक्ष्मी का उद्भव समुद्र मंथन के समय हुआ था, जब वे पूर्ण रूप से सजी हुईं और कमल के फूल पर विराजमान होकर प्रकट हुईं। उनके इस प्रकटीकरण को सभी देवताओं और असुरों ने देखा, और उनकी सुंदरता और तेज से सभी मोहित हो गए।
देवी लक्ष्मी को धन और समृद्धि के साथ-साथ शुद्धता, आकर्षण, और उदारता का प्रतीक माना जाता है। उनके हाथों से निकलने वाले सोने की धाराएं उनके द्वारा प्रदान की जाने वाली समृद्धि और धन को दर्शाती हैं।
समुद्र मंथन के बाद, जब देवी लक्ष्मी ने एक पति चुनने का निर्णय लिया, तब उन्होंने भगवान विष्णु को चुना। इस प्रकार, देवी लक्ष्मी और भगवान विष्णु का विवाह हुआ, जिसे हिन्दू धर्म में आदर्श दिव्य जोड़ी के रूप में देखा जाता है। देवी लक्ष्मी का भगवान विष्णु के साथ संबंध उन्हें संरक्षण और समृद्धि के प्रतीक के रूप में और भी अधिक महत्वपूर्ण बनाता है। उन्हें अक्सर भगवान विष्णु के पास विराजमान या उनके चरणों में सेवा करते हुए चित्रित किया जाता है।
सुरा या वरुणी
सुरा या वरुणी, समुद्र मंथन के दौरान प्राप्त दिव्य उत्पादों में से एक है, जिसे मदिरा या अल्कोहल का देवी माना जाता है। इस दिव्य मदिरा का उत्पादन समुद्र मंथन की प्रक्रिया के दौरान हुआ था, और इसे देवताओं और असुरों द्वारा बहुत मूल्यवान माना गया था। सुरा या वरुणी को प्राचीन हिन्दू धर्म में जीवन के आनंद और उत्सव के साथ जोड़ा जाता है।
सुरा या वरुणी का उल्लेख हिन्दू पौराणिक कथाओं में विभिन्न रूपों में मिलता है, और यह उत्सवों और आनंद के अवसरों पर देवताओं द्वारा सेवन किया जाता था। हालांकि, इसका सेवन संयम में किया जाना चाहिए, क्योंकि अत्यधिक सेवन से नकारात्मक प्रभाव भी हो सकते हैं।
वरुणी को कभी-कभी वरुण देवता, जल और समुद्र के देवता, की सहधर्मिणी या साथी के रूप में भी देखा जाता है। इस प्रकार, सुरा या वरुणी का महत्व हिन्दू पौराणिक कथाओं में देवताओं के जीवन और उनके उत्सवों के संदर्भ में अधिक है।
चन्द्रमा
समुद्र मंथन के दौरान प्रकट हुए दिव्य रत्नों में से एक चन्द्रमा भी थे। चन्द्रमा को हिंदू धर्म में सौंदर्य, शीतलता और शांति का प्रतीक माना जाता है। जब चन्द्रमा समुद्र मंथन से प्रकट हुए, तो उन्हें भगवान शिव ने अपने सिर पर धारण किया। इस कारण से भगवान शिव को चंद्रशेखर भी कहा जाता है, जिसका अर्थ होता है जिनके सिर पर चंद्रमा सुशोभित है।
चंद्रमा का शिव के सिर पर विराजमान होना न केवल उनके दिव्य संबंध को दर्शाता है बल्कि यह भी संकेत देता है कि कैसे शिव चंद्रमा के क्षय और वृद्धि के चक्र को नियंत्रित करते हैं। चंद्रमा को शिव के सिर पर धारण करने की कथा उनकी अनुकंपा और शक्ति को भी दर्शाती है, जिससे वे संसार के समस्त जीवों को ठंडक और शांति प्रदान करते हैं।
इस प्रकार, चन्द्रमा का प्रकट होना और शिव के सिर पर विराजमान होना समुद्र मंथन के महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक है, जो दिव्यता, सौंदर्य, और आध्यात्मिक शक्ति का संगम प्रस्तुत करता है।
पारिजात वृक्ष –
पारिजात वृक्ष, हिन्दू पौराणिक कथाओं में वर्णित एक दिव्य वृक्ष है, जिसे समुद्र मंथन के दौरान प्राप्त दिव्य उपहारों में से एक माना जाता है। इस वृक्ष की विशेषता यह है कि इसके फूल अत्यंत सुंदर और सुगंधित होते हैं, और इसे स्वर्ग में ही उगने वाला वृक्ष माना जाता है। पारिजात वृक्ष के फूलों को देवताओं के लिए अत्यंत प्रिय माना जाता है, और इनका उपयोग दिव्य पूजाओं में किया जाता है।
पारिजात वृक्ष का एक प्रसिद्ध पौराणिक कथा में उल्लेख है, जब भगवान कृष्ण ने इसे स्वर्ग से पृथ्वी पर लाया था। कथा के अनुसार, सत्यभामा, भगवान कृष्ण की पत्नी, चाहती थीं कि यह वृक्ष उनके वृंदावन स्थित उद्यान में लगाया जाए। भगवान कृष्ण ने इंद्र से इस वृक्ष को पृथ्वी पर लाने के लिए युद्ध किया और विजयी होकर पारिजात वृक्ष को अपने उद्यान में लगाया।
पारिजात वृक्ष की यह कथा भक्ति, प्रेम और दिव्य शक्तियों की महिमा को दर्शाती है। इस वृक्ष के फूलों को देवी-देवताओं को अर्पित करने की परंपरा भारतीय संस्कृति में आज भी प्रचलित है, जो सौभाग्य और समृद्धि का प्रतीक माना जाता है।
धन्वंतरि –
धन्वंतरि, जिन्हें आयुर्वेद का देवता माना जाता है, समुद्र मंथन के दौरान अमृत कलश के साथ प्रकट हुए थे। उनका उद्भव समुद्र मंथन की प्रक्रिया के दौरान हुआ, जब देवता और असुरों ने मिलकर समुद्र का मंथन किया था। धन्वंतरि के हाथों में अमृत से भरा कलश था, जिसे देखकर सभी देवता और असुर अमृत पाने के लिए उत्सुक हो गए।
धन्वंतरि को चिकित्सा और आयुर्वेद के ज्ञान का प्रथम आदान-प्रदान करने वाला माना जाता है। उन्हें दिव्य चिकित्सक के रूप में पूजा जाता है, जो सभी रोगों को ठीक करने की क्षमता रखते हैं। धन्वंतरि का अवतार भगवान विष्णु का ही एक रूप माना जाता है।
धन्वंतरि जयंती, जिसे धनतेरस के नाम से भी जाना जाता है, दीपावली के त्योहार से दो दिन पहले मनाई जाती है। इस दिन, लोग अपने घरों में स्वास्थ्य और समृद्धि की कामना करते हुए धन्वंतरि की पूजा करते हैं। आयुर्वेद प्रणाली में धन्वंतरि का महत्व अत्यंत उच्च है, और वे स्वास्थ्य और उपचार के देवता के रूप में सम्मानित किए जाते हैं।
अमृत –
अमृत, जिसे अमरत्व का नेक्टर कहा जाता है, समुद्र मंथन की प्रक्रिया के दौरान प्राप्त सबसे महत्वपूर्ण और दिव्य वस्तु थी। यह अमरता प्रदान करने की अपनी अद्भुत क्षमता के लिए जाना जाता है। देवता और असुर दोनों ही अमरता प्राप्त करने की इच्छा से समुद्र का मंथन कर रहे थे।
जब अमृत का कलश समुद्र मंथन के दौरान प्रकट हुआ, तो देवता और असुर दोनों ही इसे प्राप्त करने के लिए उत्सुक हो उठे। इसे प्राप्त करने की होड़ में, भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप धारण किया और असुरों को छलकर अमृत केवल देवताओं को ही पिलाया। इस प्रकार, देवता अमरता प्राप्त करने में सफल हो गए, जबकि असुर इससे वंचित रह गए।
अमृत की इस कथा का महत्व हिन्दू पौराणिक कथाओं में बहुत अधिक है, क्योंकि यह देवताओं और असुरों के बीच चलने वाली शाश्वत प्रतिद्वंद्विता और अमरता की खोज को दर्शाता है। अमृत की कथा हमें सिखाती है कि अमरता और दिव्य शक्तियाँ प्राप्त करने की इच्छा किस प्रकार देवता और असुरों को अपने-अपने लक्ष्यों के लिए एक साथ लाई और अंततः अच्छाई की विजय हुई।