यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।
श्रीमद्भगवद्गीता, हिन्दू धर्म के महाकाव्य महाभारत का एक हिस्सा है, जो भारतीय संस्कृति और दर्शन के सबसे प्रमुख ग्रंथों में से एक माना जाता है। इसमें 18 अध्याय और कुल 700 श्लोक हैं। श्रीमद्भगवद्गीता में, भगवान कृष्ण और अर्जुन के बीच कुरुक्षेत्र के युद्धभूमि पर हुई एक संवाद है, जिसमें जीवन, कर्म, धर्म, मोक्ष, और भक्ति जैसे विषयों पर गहन चर्चा की गई है।
श्रीमद्भगवद्गीता में दिए गए उपदेश और दर्शन आज भी व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में मार्गदर्शन का कार्य करते हैं। इसमें विभिन्न योगों का वर्णन है, जैसे कर्मयोग (कर्म का योग), ज्ञानयोग (ज्ञान का योग), भक्तियोग (भक्ति का योग), और ध्यानयोग (ध्यान का योग), जो व्यक्ति को आत्मज्ञान की ओर ले जाने में सहायक हैं।
श्रीमद्भगवद्गीता को हिंदी सहित कई भाषाओं में अनुवादित किया गया है, ताकि इसके गहन ज्ञान को व्यापक रूप से साझा किया जा सके। हिंदी में श्रीमद्भगवद्गीता के कई संस्करण उपलब्ध हैं, जिनमें सरल भाषा में व्याख्या के साथ श्लोकों का अनुवाद शामिल है, जिससे पाठकों को इसके दार्शनिक संदेशों को समझने में सहायता मिलती है।
श्रीमद्भगवद्गीता श्री कृष्ण अनमोल वचन
श्रीमद्भगवद्गीता में श्री कृष्ण द्वारा कहे गए अनेक अनमोल वचन हैं, जो जीवन के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डालते हैं और मार्गदर्शन प्रदान करते हैं। कुछ प्रमुख वचन निम्नलिखित हैं:
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।
अर्थ: यह श्लोक भगवद्गीता का है जिसका अर्थ है: “हे अर्जुन, जब जब धर्म की हानि होती है और अधर्म का उदय होता है, तब तब मैं स्वयं अवतार लेता हूँ।”
व्याख्या:
- यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत: इस लाइन में भगवान कृष्ण अर्जुन को संबोधित करते हुए कहते हैं कि “हे भारत (अर्जुन), जब-जब इस धरती पर धर्म का पतन होता है,” यहाँ धर्म का अर्थ सिर्फ धार्मिक नियमों से नहीं है, बल्कि यह व्यापक अर्थ में न्याय, सत्यता, और मानवीय मूल्यों की रक्षा के संदर्भ में है।
- अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्: इस भाग में वे कहते हैं, “और अधर्म का उदय होता है, तब मैं स्वयं अवतार लेता हूं।” यहाँ अधर्म का तात्पर्य अन्याय, असत्य, और मानवता के विरुद्ध कार्यों से है। भगवान कृष्ण यह संकेत देते हैं कि जब समाज में नकारात्मक शक्तियां प्रबल होती हैं, तब वे धर्म की स्थापना और अधर्म का नाश करने के लिए अवतार लेते हैं।
इस श्लोक के माध्यम से, भगवान कृष्ण एक अत्यंत महत्वपूर्ण संदेश देते हैं कि धर्म की रक्षा और अधर्म के विरुद्ध संघर्ष में वे सदैव सक्रिय रहते हैं। यह आश्वासन देता है कि न्याय और सत्यता की हमेशा रक्षा की जाएगी, भले ही समय-समय पर चुनौतियाँ आएं।
परित्राणाय साधूनाम् विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे-युगे॥
अर्थ:इस श्लोक के माध्यम से भगवान कृष्ण यह संदेश देते हैं कि वे धर्म की रक्षा के लिए, दुष्टों के नाश के लिए, और धर्म की स्थापना के लिए समय-समय पर अवतार लेते हैं। यह धर्म की सर्वोच्चता और सत्य की विजय का वादा है।
व्याख्या:
- परित्राणाय – रक्षा के लिए, बचाने के लिए। यहाँ यह शब्द भगवान द्वारा सज्जनों या धर्मी लोगों की रक्षा करने के संकल्प को व्यक्त करता है।
- साधूनाम् – सज्जनों का, धर्मी लोगों का।’साधु’ का अर्थ है जो सत्य और धर्म का अनुसरण करते हैं।
- विनाशाय – विनाश के लिए, नष्ट करने के लिए। इसका संकेत है कि अधर्मी या दुष्ट कर्म करने वालों का अंत करना।
- च – और। यह शब्द वाक्य के पूर्ववर्ती और आगामी भागों को जोड़ता है।
- दुष्कृताम् – दुष्टों का, पाप कर्म करने वालों का। ‘दुष्कृत’ का अर्थ है वो लोग जो बुरे कर्म करते हैं या अधर्म का पालन करते हैं।
- धर्मसंस्थापनार्थाय – धर्म की स्थापना के लिए। यह वाक्य धर्म या न्याय की पुनः स्थापना के उद्देश्य को व्यक्त करता है।
- सम्भवामि – मैं अवतार लेता हूँ, मैं प्रकट होता हूँ।भगवान का कहना है कि वे स्वयं युगों में अवतार लेते हैं।
- युगे-युगे – हर युग में, युगों में। यह दर्शाता है कि भगवान समय-समय पर, जब भी आवश्यकता होती है, अवतार लेते हैं।
यह श्लोक भगवान के अवतार के उद्देश्य को स्पष्ट करता है। भगवान का कहना है कि जब भी धर्म की हानि होती है, सज्जन पीड़ित होते हैं, और दुष्ट लोग अपने पाप कर्मों से समाज को दुख देते हैं, तो वे धर्म की रक्षा करने, न्याय स्थापित करने और सज्जनों की रक्षा के लिए अवतार लेते हैं।
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥
अर्थ: इस श्लोक का अर्थ है: “तुम्हारा अधिकार केवल कर्म करने में है, कभी भी इसके फल में नहीं। कर्म के फल को कारण न बनने दो और न ही कर्म न करने का संग तुम्हें प्राप्त हो।”
व्याख्या:
- कर्मण्येवाधिकारस्ते: इस भाग में भगवान कृष्ण यह संकेत देते हैं कि हमारा अधिकार केवल कर्म करने में है। यानी हमें अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए, बिना इसके परिणामों की चिंता किए बिना।
- मा फलेषु कदाचन: इसका अर्थ है कि हमें अपने कर्मों के फलों की चिंता नहीं करनी चाहिए। इसका मतलब यह नहीं है कि हमें परिणामों की परवाह नहीं करनी चाहिए, लेकिन यह कि हमें अपने कर्मों को उनके संभावित परिणामों से प्रेरित नहीं होने देना चाहिए।
- मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि: यह हमें याद दिलाता है कि हमें अपने कर्मों के परिणामों के लिए काम नहीं करना चाहिए और न ही अकर्मण्यता में आसक्ति रखनी चाहिए। यहाँ भगवान कृष्ण हमें सिखाते हैं कि हमें न तो कर्मफल की इच्छा में फंसना चाहिए और न ही कर्म करने से बचना चाहिए।
इस श्लोक के माध्यम से, श्रीमद्भगवद्गीता हमें निष्काम कर्म की शिक्षा देती है, जिसका अर्थ है कि हमें अपने कर्तव्य को बिना किसी स्वार्थ के पूरा करना चाहिए, फलों की चिंता किए बिना। यह हमें आत्म-नियंत्रण, ध्यान, और आत्म-संतोष की ओर ले जाता है
हतो वा प्राप्यसि स्वर्गम्, जित्वा वा भोक्ष्यसे महिम्।
तस्मात् उत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चय:॥
अर्थ:यह श्लोक श्रीमद्भगवद्गीता के द्वितीय अध्याय से है, जो कर्मयोग के विषय पर प्रकाश डालता है। इस श्लोक में, भगवान कृष्ण अर्जुन को युद्ध के मैदान में अपने धर्म का पालन करने के महत्व को समझा रहे हैं।
व्याख्या:
- “हतो वा प्राप्यसि स्वर्गम्” – यदि तुम युद्ध में मारे जाते हो, तो तुम स्वर्ग को प्राप्त होगे।
- “जित्वा वा भोक्ष्यसे महिम्” – और यदि तुम युद्ध जीतते हो, तो तुम इस पृथ्वी पर महान गौरव का अनुभव करोगे।
- “तस्मात् उत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चय:” – इसलिए, हे कौंतेय (अर्जुन का एक नाम, कुंती के पुत्र), उठो और युद्ध के लिए तैयार हो जाओ, निश्चय के साथ।
इस श्लोक में भगवान कृष्ण अर्जुन को उसके कर्तव्य की याद दिला रहे हैं। वे कह रहे हैं कि युद्ध के परिणाम से भयभीत न हो, क्योंकि चाहे परिणाम कुछ भी हो, उसके लिए कुछ न कुछ शुभ ही है। यदि अर्जुन युद्ध में मर जाता है, तो उसे स्वर्ग की प्राप्ति होगी, और यदि वह जीतता है, तो वह इस धरती पर महान गौरव प्राप्त करेगा। इसलिए, अर्जुन को अपने कर्तव्य से विमुख नहीं होना चाहिए और निर्भय होकर युद्ध के लिए आगे बढ़ना चाहिए।
श्रद्धावान्ल्लभते ज्ञानं तत्पर: संयतेन्द्रिय:।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति॥
अर्थ:इस श्लोक का अर्थ है: “जो व्यक्ति श्रद्धा रखता है, समर्पित होता है, और अपनी इंद्रियों को नियंत्रित रखता है, वह ज्ञान प्राप्त करता है। ज्ञान प्राप्त करने के बाद, वह जल्दी ही परम शांति को प्राप्त कर लेता है।”
व्याख्या:
- “श्रद्धावान्ल्लभते ज्ञानं” – श्रद्धा रखने वाला व्यक्ति ज्ञान प्राप्त करता है,
- “तत्पर: संयतेन्द्रिय:” – जो समर्पित होता है और जिसकी इंद्रियां नियंत्रित होती हैं,
- “ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति” – ज्ञान प्राप्त करने के बाद, वह शीघ्र ही परम शांति को प्राप्त करता है।
इस श्लोक के माध्यम से, भगवान कृष्ण यह समझा रहे हैं कि ज्ञान की प्राप्ति के लिए श्रद्धा और समर्पण अत्यंत आवश्यक हैं। एक व्यक्ति को अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण रखना चाहिए और पूरी तरह से ज्ञान की खोज में समर्पित होना चाहिए। जब व्यक्ति इस तरह की श्रद्धा और नियंत्रण के साथ ज्ञान की खोज करता है, तो वह अंततः परम शांति प्राप्त करता है, जो कि मोक्ष या निर्वाण की स्थिति है।
यह श्लोक ज्ञान के महत्व और उसके द्वारा प्राप्त होने वाली आत्मिक शांति और मुक्ति के बारे में बताता है। यह जीवन में आध्यात्मिक विकास के लिए श्रद्धा, समर्पण और इंद्रिय-नियंत्रण की आवश्यकता को भी दर्शाता है।
क्रोधाद्भवति संमोह: संमोहात्स्मृतिविभ्रम:।
स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥
अर्थ:इस श्लोक का अर्थ है: “क्रोध से मोह (भ्रम) उत्पन्न होता है, मोह से स्मृति (याददाश्त) का विभ्रम होता है। स्मृति के भ्रंश से बुद्धि का नाश होता है, और बुद्धि के नाश से व्यक्ति प्रणश्यति (नष्ट हो जाता है)।”
व्याख्या:
- “क्रोधाद्भवति संमोह: संमोहात्स्मृतिविभ्रम:” – क्रोध से मोह होता है, मोह से स्मृति का विभ्रम होता है।
- “स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति” – स्मृति का विभ्रम होने से बुद्धि का नाश होता है, और बुद्धि का नाश होने से मनुष्य का पराधीनता हो जाता है।
यह श्लोक मनुष्य के विवेक और संयम के महत्व को बताता है। क्रोध और मोह के अनुयायी होने से हमारा मन उद्धत हो जाता है, जिससे हम स्वयं को और अपने आसपास को सही रूप से नहीं देख पाते। इससे हमारी स्मृति विकल्पित हो जाती है और हम गलत फैसले करते हैं। इस तरह, स्मृति का विभ्रम हमारी बुद्धि को प्रभावित करता है, जिससे हमारा सही निर्णय लेने की क्षमता कमजोर हो जाती है। अंततः, इस प्रकार का विचार मनुष्य को अपने उच्चतम स्तर की बुद्धिमत्ता और सामाजिक समर्थता से दूर कर देता है।
इस श्लोक में बताया गया है कि अगर हम अपने क्रोध और मोह का नियंत्रण नहीं कर पाते हैं, तो यह हमारे विचारों और निर्णयों को गलत दिशा में ले जाता है, जिससे हमारे बुद्धि का नाश होता है। यह श्लोक हमें स्वयं को संयमित रखने और उचित निर्णय लेने की महत्वपूर्णता को समझाता है।
नैनं छिद्रन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक: ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत ॥
इस श्लोक का अर्थ है: “न तो शस्त्र इसे काट सकते हैं, न ही अग्नि इसे जला सकती है। जल इसे गीला नहीं कर सकता, और न ही वायु इसे सुखा सकती है।” यह श्लोक आत्मा की अविनाशी प्रकृति को व्यक्त करता है, जो भौतिक तत्वों से प्रभावित नहीं होती।
व्याख्या:
- “नैनं छिद्रन्ति शस्त्राणि” – इसे शस्त्र नहीं काट सकते।
- “नैनं दहति पावक:” – इसे आग नहीं जला सकती।
- “न चैनं क्लेदयन्त्यापो” – इसे पानी गीला नहीं कर सकता।
- “न शोषयति मारुत” – इसे हवा सुखा नहीं सकती।
इस श्लोक में, भगवान कृष्ण आत्मा की अविनाशी और अभेद्य प्रकृति को समझा रहे हैं। आत्मा किसी भी भौतिक तत्वों से नहीं कट सकती, न जला सकती है, न गीला हो सकती है और न ही सुख सकती है। यह श्लोक आत्मा की नित्यता और अविकारी प्रकृति को दर्शाता है। भगवान कृष्ण इस श्लोक के माध्यम से यह समझाने का प्रयास कर रहे हैं कि आत्मा केवल शरीर का एक भाग नहीं है, बल्कि वह एक अविनाशी तत्व है जो शरीर के नष्ट होने पर भी बना रहता है।
यह श्लोक आध्यात्मिक ज्ञान की गहराई को उजागर करता है और यह दर्शाता है कि आत्मा किसी भी प्रकार के भौतिक परिवर्तन से परे है। इस ज्ञान को समझने से व्यक्ति को जीवन और मृत्यु के चक्र से पार पाने में मदद मिलती है, और वह आध्यात्मिक शांति की ओर अग्रसर होता है।
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते॥
इस श्लोक का अर्थ है: “जब एक व्यक्ति विषयों का ध्यान करता है, तो उन विषयों के प्रति आसक्ति उत्पन्न होती है। आसक्ति से कामना जन्म लेती है, और कामना से क्रोध उत्पन्न होता है।” यह श्लोक विषय-वासना के ध्यान से उत्पन्न होने वाली शृंखला का वर्णन करता है जो अंततः क्रोध की ओर ले जाती है।
व्याख्या:
- “ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।” – जब कोई व्यक्ति विषयों पर ध्यान देता है, तो उन विषयों के प्रति आसक्ति उत्पन्न होती है।
- “सङ्गात्संजायते कामः” – उस आसक्ति से कामना जन्म लेती है।
- “कामात्क्रोधोऽभिजायते॥” – और कामना से क्रोध उत्पन्न होता है।
इस श्लोक में वर्णित धारा बताती है कि कैसे विषयों के प्रति ध्यान देने से आसक्ति उत्पन्न होती है, जिससे कामना का जन्म होता है। जब ये कामनाएं पूरी नहीं होतीं, तो व्यक्ति क्रोध का अनुभव करता है। यह एक चक्रीय प्रक्रिया है जो मन की शांति को भंग करती है और व्यक्ति को आध्यात्मिक प्रगति से दूर करती है।
इस श्लोक के माध्यम से, भगवान कृष्ण यह सिखाने का प्रयास कर रहे हैं कि आसक्ति और कामनाओं को कैसे नियंत्रित किया जाए, ताकि मन की शांति बनी रहे और आत्मा की आध्यात्मिक यात्रा में प्रगति हो सके। यह श्लोक आत्म-नियंत्रण और संयम के महत्व को रेखांकित करता है, जो मनुष्य को अपने आंतरिक स्वभाव को समझने और उस पर विजय प्राप्त करने में मदद करता है।
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥
अर्थ:यह श्लोक श्रीमद्भगवद्गीता के तीसरे अध्याय से है, जो समाज में नेताओं और आदर्श व्यक्तियों के प्रभाव पर प्रकाश डालता है।
व्याख्या:
- “यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:” – जो कुछ भी एक उत्कृष्ट व्यक्ति करता है, अन्य लोग भी वही करते हैं।
- “स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥” – जो मानक वह स्थापित करता है, समाज उसका अनुसरण करता है।
इस श्लोक में, भगवान कृष्ण अर्जुन को समझा रहे हैं कि समाज में आदर्श व्यक्तियों और नेताओं का व्यवहार और कार्य अन्य लोगों के लिए एक मानक निर्धारित करते हैं। अर्थात्, जो व्यक्ति समाज में श्रेष्ठ और सम्मानित माने जाते हैं, उनके आचरण और निर्णय दूसरों के लिए एक उदाहरण बन जाते हैं, और लोग उनका अनुसरण करते हैं।
यह श्लोक समाज में नेताओं और प्रभावशाली व्यक्तियों की जिम्मेदारी को दर्शाता है। यह बताता है कि उनके व्यवहार से उनके अनुयायियों और समाज के अन्य लोगों पर कितना बड़ा प्रभाव पड़ता है। इसलिए, यह उन्हें उच्च मानकों और आदर्शों को अपनाने के लिए प्रेरित करता है, ताकि समाज के लिए एक सकारात्मक दिशा निर्धारित की जा सके। इस तरह, यह श्लोक समाज में अच्छे व्यवहार और नैतिकता के प्रसार के महत्व को रेखांकित करता है।
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:॥
अर्थ:इस श्लोक का अर्थ है: “जो कुछ भी एक श्रेष्ठ व्यक्ति करता है, अन्य लोग भी वही करते हैं। जो मानक वह स्थापित करता है, समाज उसका अनुसरण करता है।” यह श्लोक समाज में नेताओं और प्रभावशाली व्यक्तियों की भूमिका और उनके आचरण के प्रभाव पर प्रकाश डालता है।
व्याख्या:
- “सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज” – सभी धर्मों का त्याग कर, केवल मेरी शरण में आओ।
- “अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:” – मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्त करूंगा, चिंता मत करो।
इस श्लोक में, भगवान कृष्ण यह संदेश दे रहे हैं कि जीवात्मा को मुक्ति प्राप्त करने के लिए केवल उनकी शरण में आना पर्याप्त है। इसका अर्थ यह है कि भक्ति योग के मार्ग पर चलकर और कृष्ण के प्रति समर्पण भाव रखकर, एक व्यक्ति सभी प्रकार के पापों से मुक्त हो सकता है और अंतिम मुक्ति प्राप्त कर सकता है। यह श्लोक आत्मसमर्पण के महत्व को दर्शाता है और भक्तों को ईश्वर में अपनी पूरी आस्था रखने के लिए प्रेरित करता है।
इस श्लोक के माध्यम से, भगवान कृष्ण यह भी बता रहे हैं कि जीवन में विभिन्न धर्मों और नियमों का पालन महत्वपूर्ण है, लेकिन अंततः उनकी शरण में आकर ही आत्मा की अंतिम मुक्ति संभव है। यह आत्मज्ञान और आत्मसमर्पण के महत्व को रेखांकित करता है।
गुरूनहत्वा हि महानुभवान श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके।
हत्वार्थकामांस्तु गुरुनिहैव भुञ्जीय भोगान्रुधिरप्रदिग्धान्।।
अर्थ:इस श्लोक का अर्थ है: “इस दुनिया में भिक्षा मांगकर जीवन यापन करना बेहतर है, बजाय इसके कि महान गुरुओं को मारकर ऐसे भोगों का आनंद लिया जाए जो रक्त से सने हों।” यह श्लोक धर्म और नैतिकता के महत्व पर प्रकाश डालता है, यह बताता है कि किसी के गुरुओं का वध करके प्राप्त धन और सुख अनुचित और अशुभ है।
व्याख्या:
- “गुरूनहत्वा हि महानुभवान श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके।” – इस लोक में महान व्यक्तियों को न मारकर, भिक्षा मांगकर जीवन यापन करना अधिक श्रेष्ठ है।
- “हत्वार्थकामांस्तु गुरुनिहैव भुञ्जीय भोगान्रुधिरप्रदिग्धान्।।” – लेकिन गुरुओं को मारकर यहाँ रक्त से सने हुए भोगों का उपभोग करना, मेरे लिए उचित नहीं है।
इस श्लोक के माध्यम से अर्जुन अपने धर्म संकट को व्यक्त कर रहे हैं। वे यह सोच रहे हैं कि अपने ही गुरुओं और संबंधियों का वध करके प्राप्त होने वाले राज्य और सुखों का भोग करना उन्हें अधर्मी बना देगा। अर्जुन के लिए, धर्म और नैतिकता का पालन करना और अधर्म से दूर रहना प्राथमिकता है, यहाँ तक कि अगर इसके लिए उन्हें भिक्षा मांगकर जीवन यापन करना पड़े। यह श्लोक श्रीमद्भगवद्गीता के मुख्य संदेशों में से एक है, जो धर्म के प्रति अर्जुन की गहरी भावनाओं और आत्म-संघर्ष को दर्शाता है।
न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरियो यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयु:।
यानेव हत्वा न जिजीविषाम– स्तेSवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः।।
अर्थ:इस श्लोक का अर्थ है: “हम नहीं जानते कि हमारे लिए क्या बेहतर है – यदि हम जीतें या यदि हमें हराया जाए। जिन लोगों को मारकर हम नहीं जीना चाहते, वे हमारे सामने खड़े हैं, धृतराष्ट्र के पुत्र।” यह श्लोक अर्जुन के मन में उठने वाले द्वंद्व और संशय को दर्शाता है, जब वह महाभारत के युद्ध के मैदान में अपने स्वजनों को विरोध में देखता है।
व्याख्या:
- “न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरियो यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयुः।” – हमें यह नहीं पता कि हमारे लिए कौन सा विकल्प बेहतर है: यदि हम जीतें या वे हमें जीत लें।
- “यानेव हत्वा न जिजीविषामस्ते अवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः।।” – उन्हें मारकर, जो हमारे सामने खड़े हैं, हम जीना नहीं चाहते, वे धृतराष्ट्र के पुत्र हैं।
इस श्लोक में अर्जुन की गहरी मानसिक दुविधा को दर्शाया गया है। अर्जुन इस बात से उलझन में हैं कि युद्ध जीतना उनके लिए श्रेष्ठ है या हारना, क्योंकि दोनों ही परिस्थितियों में उन्हें अपने ही परिवार के सदस्यों, गुरुओं और प्रियजनों को मारना पड़ेगा। अर्जुन के लिए, यह विचार कि उन्हें अपने संबंधियों का वध करना पड़ेगा, और वह इसे जीवन में किसी भी जीत से अधिक मूल्यवान नहीं मानते। यह श्लोक अर्जुन के आंतरिक संघर्ष और धर्म के प्रति उनकी गहरी निष्ठा को प्रकट करता है, जो उन्हें युद्ध करने के निर्णय पर पुनर्विचार करने के लिए प्रेरित करती है।
कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः
पृच्छामि त्वां धर्म सम्मूढचेताः।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्र्चितं ब्रूहि तन्मे
शिष्यस्तेSहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।।
अर्थ:इस श्लोक में अर्जुन अपने मन के द्वंद्व और कार्पण्य (दयनीयता) की स्थिति को स्वीकार करते हुए कहते हैं: “मेरा स्वभाव कार्पण्य दोष से दूषित हो गया है और मैं धर्म के प्रति सम्मोहित हूँ। इसलिए, मैं आपसे पूछता हूँ, निश्चित रूप से जो मेरे लिए श्रेष्ठ हो, वह मुझे बताएं। मैं आपका शिष्य हूँ, मुझे शिक्षा दें, मैं आपकी शरण में हूँ।” यह श्लोक अर्जुन के अंतरात्मा के संघर्ष और उसके श्रीकृष्ण के प्रति समर्पण को दर्शाता है।
व्याख्या:
- “कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्म सम्मूढचेताः।” – मेरा स्वभाव कायरता के दोष से ग्रसित है, और मैं धर्म के प्रति भ्रमित हूँ, इसलिए मैं आपसे पूछ रहा हूँ।
- “यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्।।” – जो मेरे लिए निश्चित रूप से श्रेष्ठ हो, वह मुझे बताएँ। मैं आपका शिष्य हूँ, मुझे शिक्षा दीजिये, मैं आपकी शरण में हूँ।
इस श्लोक के माध्यम से, अर्जुन अपने अंतर्मन की उलझन और असमंजस को स्वीकार करते हैं। वे अपनी निजी कमजोरियों और धर्म के प्रति संशय को पहचानते हैं और भगवान कृष्ण से उचित मार्गदर्शन की याचना करते हैं। अर्जुन खुद को कृष्ण के शिष्य के रूप में समर्पित करते हैं और उनसे उस पथ की ओर मार्गदर्शन करने के लिए कहते हैं जो उन्हें उनकी वर्तमान दुविधा से बाहर निकाल सके। यह श्रीमद्भगवद्गीता के संवाद का एक महत्वपूर्ण मोड़ है, जहाँ अर्जुन ने अपने आत्म-संघर्ष को स्वीकार किया और भगवान कृष्ण के ज्ञान और मार्गदर्शन की ओर उन्मुख हो गए।
योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।
सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।
अर्थ:इस श्लोक का अर्थ है: “हे धनंजय (अर्जुन), योग में स्थित होकर कर्म करो, सफलता और असफलता में समान भाव रखते हुए, संग (आसक्ति) का त्याग करो। इस समता को ही योग कहा जाता है।” यह श्लोक कर्मयोग के महत्व को बताता है, जिसमें कर्म करते समय फल की चिंता किए बिना, समता भाव रखने को कहा गया है।
व्याख्या:
- “योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय।” – हे धनंजय (अर्जुन का एक नाम), योग में स्थित होकर कर्म करो, फल की आसक्ति को त्याग दो।
- “सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।” – सफलता और असफलता में समभाव रखना ही योग कहलाता है।
इस श्लोक में, भगवान कृष्ण अर्जुन को योग की अवस्था में रहकर कर्म करने की सलाह दे रहे हैं, जिसका अर्थ है कि कर्म करते समय उन्हें उसके फल से विमुक्त रहना चाहिए। यह शिक्षा देता है कि व्यक्ति को अपने कर्मों को निष्काम भाव से करना चाहिए, अर्थात् बिना किसी लाभ या हानि की चिंता किए बिना।
यह श्लोक कर्मयोग के मूल सिद्धांत को व्यक्त करता है, जिसमें कर्म करने की प्रक्रिया में संतुलन और समरूपता बनाए रखने की शिक्षा दी गई है। यह शिक्षा देता है कि जीवन में सफलता और असफलता दोनों ही स्थितियों में समान भाव रखना चाहिए। इस प्रकार की दृष्टि से काम करने पर, एक व्यक्ति आत्मिक शांति और आंतरिक संतुलन प्राप्त कर सकता है।
“वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही॥
अर्थ: इस श्लोक का अर्थ है: “जैसे व्यक्ति पुराने वस्त्रों को त्यागकर नए वस्त्र पहन लेता है, उसी प्रकार आत्मा पुरानी, जीर्ण-शीर्ण शरीरों को त्यागकर नए शरीरों को प्राप्त करती है।” यह श्लोक आत्मा की अविनाशिता और पुनर्जन्म के सिद्धांत को व्यक्त करता है, जिसमें आत्मा को शाश्वत और अविनाशी माना जाता है जो मृत्यु के बाद भी जीवित रहती है।
व्याख्या:
- वासांसि जीर्णानि यथा विहाय: इस भाग में, भगवान कृष्ण जीवन और मृत्यु के चक्र को एक सरल उदाहरण के माध्यम से समझाते हैं। वे कहते हैं कि जिस प्रकार एक व्यक्ति अपने पुराने और जीर्ण-शीर्ण वस्त्रों को छोड़कर नए वस्त्र धारण करता है।
- नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि: यहाँ वस्त्रों को बदलने की क्रिया का उपयोग आत्मा और शरीर के संबंध को समझाने के लिए किया जाता है। यह दर्शाता है कि जैसे वस्त्रों को बदलना एक सामान्य प्रक्रिया है, वैसे ही शरीर का परिवर्तन भी आत्मा के लिए एक स्वाभाविक प्रक्रिया है।
- तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही: इस भाग में, भगवान कृष्ण समझाते हैं कि आत्मा अविनाशी है और मृत्यु के समय पुराने शरीर को छोड़कर एक नए शरीर को धारण करती है। यह शरीर मात्र एक वस्त्र की तरह है जिसे आत्मा बदल सकती है।
इस श्लोक के माध्यम से, श्रीमद्भगवद्गीता आत्मा की अमरता और शाश्वतता के दर्शन को प्रस्तुत करती है, और यह सिखाती है कि मृत्यु को एक अंत के रूप में नहीं बल्कि एक नई शुरुआत के रूप में देखा जाना चाहिए।
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भगवद गीता में कौन-कौन सी मुख्य थीम्स पर चर्चा की गई है?
भगवद गीता में जीवन और मृत्यु की प्रकृति, कर्म के महत्व, फलों के प्रति अनासक्ति की अवधारणा, दिव्य ज्ञान की ओर जाने वाले मार्ग (ज्ञान योग), भगवान में भक्ति (भक्ति योग), और ध्यान (ध्यान योग) जैसे विषयों पर विचार किया गया है।
भगवद गीता में कर्तव्य (धर्म) की अवधारणा क्यों महत्वपूर्ण है?
कर्तव्य या धर्म भगवद गीता की एक केंद्रीय अवधारणा है क्योंकि यह व्यक्तियों की नैतिक और नैतिक जिम्मेदारियों पर जोर देती है। यह सिखाती है कि अपने कर्तव्य को निस्वार्थ रूप से, फलों के प्रति अनासक्ति के साथ पूरा करना आध्यात्मिक मुक्ति का एक मार्ग है।
भगवद गीता कर्मों के फलों के प्रति अनासक्ति पर क्या कहती है?
भगवद गीता कर्म करने के दौरान फलों से अनासक्त रहने की वकालत करती है। यह सुझाव देती है कि फलों से अलग होकर और केवल कर्म पर ध्यान केंद्रित करके, व्यक्ति शांति और संतोष की स्थिति प्राप्त कर सकता है, जिससे आध्यात्मिक मुक्ति मिलती है।
भगवद गीता दिव्य ज्ञान और भक्ति के मार्गों का वर्णन कैसे करती है?
भगवद गीता आध्यात्मिक जागरूकता प्राप्त करने के लिए कई मार्गों की रूपरेखा प्रस्तुत करती है, जिसमें ज्ञान योग (ज्ञान का मार्ग), भक्ति योग (भक्ति का मार्ग), और कर्म योग (निष्काम कर्म का मार्ग) शामिल हैं। प्रत्येक मार्ग आध्यात्मिक वृद्धि और दिव्य को समझने का एक अलग दृष्टिकोण प्रदान करता है।
भगवद गीता आत्मा की प्रकृति के बारे में क्या सिखाती है?
भगवद गीता सिखाती है कि आत्मा (आत्मन) अनंत और अविनाशी है। इसे शस्त्रों से काटा नहीं जा सकता, अग्नि से जलाया नहीं जा सकता, जल से गीला नहीं किया जा सकता, या वायु से सुखाया नहीं जा सकता। यह आत्मा की अमर प्रकृति को दर्शाता है, जो भौतिक मृत्यु को पार कर जाती है।
भगवद गीता जीवन और मृत्यु के चक्र को कैसे समझाती है?
भगवद गीता कपड़े बदलने की प्रक्रिया से जीवन और मृत्यु के चक्र की तुलना करती है। जैसे एक व्यक्ति पुराने कपड़ों को त्याग कर नए कपड़े पहनता है, उसी प्रकार आत्मा मृत्यु के समय पुराने शरीरों को त्याग कर नए शरीरों को प्राप्त करती है। यह उपमा आत्मा की नित्यता और भौतिक शरीर की क्षणभंगुरता को दर्शाने के लिए उपयोग की गई है।