॥सिद्धकुञ्जिकास्तोत्रम्॥
शिव उवाच
शृणु देवि प्रवक्ष्यामि, कुञ्जिकास्तोत्रमुत्तमम्।
येन मन्त्रप्रभावेण चण्डीजापः शुभो भवेत॥१॥
न कवचं नार्गलास्तोत्रं कीलकं न रहस्यकम्।
न सूक्तं नापि ध्यानं च न न्यासो न च वार्चनम्॥२॥
कुञ्जिकापाठमात्रेण दुर्गापाठफलं लभेत्।
अति गुह्यतरं देवि देवानामपि दुर्लभम्॥३॥
गोपनीयं प्रयत्नेन स्वयोनिरिव पार्वति।
मारणं मोहनं वश्यं स्तम्भनोच्चाटनादिकम्।
पाठमात्रेण संसिद्ध्येत् कुञ्जिकास्तोत्रमुत्तमम्॥४॥
॥अथ मन्त्रः॥
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे। ॐ ग्लौ हुं क्लीं जूं स:
ज्वालय ज्वालय ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल
ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ज्वल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा।”
॥इति मन्त्रः॥
नमस्ते रूद्ररूपिण्यै नमस्ते मधुमर्दिनि।
नमः कैटभहारिण्यै नमस्ते महिषार्दिनि॥१॥
नमस्ते शुम्भहन्त्र्यै च निशुम्भासुरघातिनि॥२॥
जाग्रतं हि महादेवि जपं सिद्धं कुरूष्व मे।
ऐंकारी सृष्टिरूपायै ह्रींकारी प्रतिपालिका॥३॥
क्लींकारी कामरूपिण्यै बीजरूपे नमोऽस्तु ते।
चामुण्डा चण्डघाती च यैकारी वरदायिनी॥४॥
विच्चे चाभयदा नित्यं नमस्ते मन्त्ररूपिणि॥५॥
धां धीं धूं धूर्जटेः पत्नी वां वीं वूं वागधीश्वरी।
क्रां क्रीं क्रूं कालिका देवि शां शीं शूं मे शुभं कुरु॥६॥
हुं हुं हुंकाररूपिण्यै जं जं जं जम्भनादिनी।
भ्रां भ्रीं भ्रूं भैरवी भद्रे भवान्यै ते नमो नमः॥७॥
अं कं चं टं तं पं यं शं वीं दुं ऐं वीं हं क्षं
धिजाग्रं धिजाग्रं त्रोटय त्रोटय दीप्तं कुरु कुरु स्वाहा॥
पां पीं पूं पार्वती पूर्णा खां खीं खूं खेचरी तथा॥८॥
सां सीं सूं सप्तशती देव्या मन्त्रसिद्धिं कुरुष्व मे॥
इदं तु कुञ्जिकास्तोत्रं मन्त्रजागर्तिहेतवे।
अभक्ते नैव दातव्यं गोपितं रक्ष पार्वति॥
यस्तु कुञ्जिकाया देवि हीनां सप्तशतीं पठेत्।
न तस्य जायते सिद्धिररण्ये रोदनं यथा॥
इति श्रीरुद्रयामले गौरीतन्त्रे शिवपार्वतीसंवादे कुञ्जिकास्तोत्रं सम्पूर्णम्।
॥ॐ तत्सत्॥
Siddha Kunjika Stotram
सिद्धकुञ्जिका स्तोत्रम् एक अत्यधिक शक्तिशाली और गोपनीय स्तोत्र है जिसका पाठ दुर्गा सप्तशती या चण्डी पाठ के प्रारंभ में किया जाता है। इसका उद्देश्य यह है कि साधक के सभी मंत्र सिद्ध हों और उसे उसकी साधना में सफलता प्राप्त हो।
यह स्तोत्र देवी भगवती की असीम शक्ति और गौरव का वर्णन करता है और इसमें देवी के विविध स्वरूपों की स्तुति शामिल है। सिद्धकुञ्जिका स्तोत्रम् में, देवी माँ को विश्व के सभी दुःखों और बाधाओं से मुक्ति दिलाने वाली के रूप में चित्रित किया गया है।
यह स्तोत्र विशेष रूप से उन साधकों के लिए है जिनकी रुचि तंत्र साधना में है और जो देवी की आराधना में गहराई से लगे हुए हैं। इसमें कुछ विशेष बीज मंत्र भी शामिल हैं जो साधना को अधिक शक्तिशाली बनाते हैं।
शिव उवाच
शृणु देवि प्रवक्ष्यामि, कुञ्जिकास्तोत्रमुत्तमम्।
येन मन्त्रप्रभावेण चण्डीजापः शुभो भवेत॥१॥
इस श्लोक में भगवान शिव देवी पार्वती से कह रहे हैं कि वे उन्हें कुञ्जिकास्तोत्रम, जो कि एक उत्कृष्ट स्तोत्र है, के बारे में बताएंगे। कुञ्जिकास्तोत्र के माध्यम से मंत्रों की प्रभावशाली शक्ति को सक्रिय करने की विधि बताई गई है, जिससे चण्डी (देवी दुर्गा) के जप करने पर शुभ फलों की प्राप्ति होती है। यह श्लोक चण्डी पाठ या दुर्गा सप्तशती के जप को और भी अधिक शक्तिशाली बनाने के लिए कुञ्जिका स्तोत्र के महत्व को दर्शाता है।
विस्तार से व्याख्या:
- शिव उवाच: यह वाक्यांश दर्शाता है कि इस श्लोक को भगवान शिव बोल रहे हैं।
- शृणु देवि प्रवक्ष्यामि: यहाँ भगवान शिव देवी पार्वती से कह रहे हैं कि “हे देवि! सुनो, मैं तुम्हें कुछ विशेष बताने जा रहा हूँ”। यह उनकी वाणी में एक प्रकार का सम्मान और प्रेम भी दर्शाता है।
- कुञ्जिकास्तोत्रमुत्तमम्: भगवान शिव जिस स्तोत्र का उल्लेख कर रहे हैं, वह है ‘कुञ्जिकास्तोत्र’, जिसे वे ‘उत्तम’ यानी श्रेष्ठ बता रहे हैं। कुञ्जिका स्तोत्र एक प्रकार का मंत्र है जो चण्डी पाठ या दुर्गा सप्तशती के जाप के समय इसकी प्रभावशीलता को बढ़ाता है।
- येन मन्त्रप्रभावेण चण्डीजापः शुभो भवेत: इसका अर्थ है कि इस स्तोत्र के जाप से मंत्रों की शक्ति और प्रभाव इतने बढ़ जाते हैं कि चण्डी का जाप करने पर शुभ फलों की प्राप्ति होती है। यह दर्शाता है कि कुञ्जिकास्तोत्र का पाठ करने से देवी की आराधना में एक विशेष महत्व और शक्ति का संचार होता है, जिससे भक्त को शुभ फल की प्राप्ति होती है।
न कवचं नार्गलास्तोत्रं कीलकं न रहस्यकम्।
न सूक्तं नापि ध्यानं च न न्यासो न च वार्चनम्॥२॥
यह श्लोक आध्यात्मिक साधनाओं और अनुष्ठानों में उपयोग किए जाने वाले विभिन्न तत्वों के महत्व को नकारते हुए एक गहरी आध्यात्मिक सत्य की ओर इंगित करता है। इस श्लोक में कहा गया है:
- न कवचं: अर्थात् कोई कवच नहीं। कवच यहाँ भौतिक या आध्यात्मिक सुरक्षा के लिए उपयोग किए जाने वाले मंत्रों या तावीजों का प्रतीक है।
- नार्गलास्तोत्रं: अर्थात् कोई अर्गला स्तोत्र नहीं। अर्गला स्तोत्र विशेष प्रार्थनाएं या स्तोत्र होते हैं जो देवताओं की प्रसन्नता के लिए पढ़े जाते हैं।
- कीलकं न रहस्यकम्: अर्थात् कोई कीलक या रहस्य नहीं। कीलक मंत्रों को सक्रिय करने की विधि है, और रहस्य आध्यात्मिक गुप्त ज्ञान को दर्शाता है।
- न सूक्तं नापि ध्यानं च: अर्थात् कोई सूक्त या ध्यान नहीं। सूक्त वैदिक स्तुतियाँ होती हैं, और ध्यान मन को एकाग्र करने की प्रक्रिया है।
- न न्यासो न च वार्चनम्: अर्थात् कोई न्यास या वार्चन नहीं। न्यास मंत्रों का शरीर पर विशिष्ट भागों में जाप करने की क्रिया है, और वार्चन पूजा या आराधना का एक रूप है।
इस श्लोक का संदेश यह है कि आध्यात्मिक प्रगति या मोक्ष के मार्ग में बाहरी अनुष्ठानों और प्रक्रियाओं का महत्व नहीं है। असली साधना अंतरात्मा की गहराई में विद्यमान सच्चाई के साथ एकात्मकता है। यह श्लोक हमें याद दिलाता है कि अध्यात्मिक उन्नति के लिए बाहरी विधियों और मंत्रों पर निर्भर रहने के बजाय, हमें अपने आंतरिक स्व की खोज और साक्षात्कार करने की आवश्यकता है।
कुञ्जिकापाठमात्रेण दुर्गापाठफलं लभेत्।
अति गुह्यतरं देवि देवानामपि दुर्लभम्॥३॥
यह श्लोक देवी कुञ्जिका स्तोत्र की महत्ता को उजागर करता है। कुञ्जिका स्तोत्र, दुर्गा सप्तशती या देवी महात्म्य के पाठ के साथ जपे जाने वाले एक विशेष स्तोत्र है। इस श्लोक में कहा गया है:
- कुञ्जिकापाठमात्रेण:अर्थात् कुञ्जिका स्तोत्र के पाठ मात्र से,
- दुर्गापाठफलं लभेत्: अर्थात् दुर्गा सप्तशती के पाठ का फल प्राप्त होता है।
- अति गुह्यतरं देवि: अर्थात् हे देवी, यह अत्यंत गुप्त है,
- देवानामपि दुर्लभम्: अर्थात् देवताओं के लिए भी दुर्लभ है।
इसका अर्थ है कि कुञ्जिका स्तोत्र का पाठ बेहद शक्तिशाली और गुप्त है, जिसका महत्व इतना अधिक है कि केवल इसके जप से ही दुर्गा सप्तशती के पाठ के समान लाभ प्राप्त होता है। यह स्तोत्र इतना दिव्य और गुप्त है कि यह देवताओं के लिए भी दुर्लभ है।
गोपनीयं प्रयत्नेन स्वयोनिरिव पार्वति।
मारणं मोहनं वश्यं स्तम्भनोच्चाटनादिकम्।
पाठमात्रेण संसिद्ध्येत् कुञ्जिकास्तोत्रमुत्तमम्॥४॥
अर्थ: हे पार्वती! इस कुञ्जिका स्तोत्र को बहुत ही गोपनीय रूप से, अपने योनि की तरह, प्रयत्नपूर्वक गुप्त रखना चाहिए। मारण, मोहन, वशीकरण, स्तम्भन और उच्चाटन आदि क्रियाएँ केवल इसके पाठ मात्र से सिद्ध हो जाती हैं। यह कुञ्जिका स्तोत्र अत्यंत उत्तम है।
व्याख्या: इस श्लोक में भगवती पार्वती को संबोधित करते हुए कहा गया है कि कुञ्जिका स्तोत्र को बहुत ही गोपनीय और संरक्षित रखा जाना चाहिए। यह स्तोत्र इतना शक्तिशाली है कि इसके मात्र पाठ से ही विभिन्न प्रकार की तांत्रिक क्रियाएँ जैसे कि मारण (किसी को हानि पहुँचाना), मोहन (किसी को आकर्षित करना), वशीकरण (किसी को वश में करना), स्तम्भन (किसी को रोकना) और उच्चाटन (किसी को विघ्न या बाधा पहुँचाना) जैसी सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं।
इस श्लोक के माध्यम से यह भी संकेत मिलता है कि इस प्रकार के शक्तिशाली मंत्रों का उपयोग बहुत ही सावधानी और समझदारी से किया जाना चाहिए। इसके साथ ही, इसे केवल शुभ कार्यों के लिए ही उपयोग में लाना चाहिए और इसकी शक्ति का दुरुपयोग नहीं करना चाहिए। अंततः, यह स्तोत्र अत्यंत पवित्र और शक्तिशाली माना जाता है, और इसके पाठ से साधक को दिव्य शक्तियों की प्राप्ति होती है।
॥अथ मन्त्रः॥
ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे। ॐ ग्लौ हुं क्लीं जूं स:
ज्वालय ज्वालय ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल
ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ज्वल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा।”
यह मंत्र दुर्गा सप्तशती का एक शक्तिशाली मंत्र है, जिसे देवी चामुण्डा को समर्पित किया गया है। यह मंत्र साधकों द्वारा नकारात्मक ऊर्जाओं का नाश करने, आत्म-सुरक्षा, और शक्ति प्राप्ति के लिए जपा जाता है। इस मंत्र के विभिन्न भागों का अर्थ इस प्रकार है:
- ॐ ऐं ह्रीं क्लीं: ये बीज मंत्र देवी सरस्वती, देवी लक्ष्मी, और देवी काली के प्रतीक हैं, जो ज्ञान, समृद्धि, और शक्ति का प्रतिनिधित्व करते हैं।
- चामुण्डायै विच्चे: देवी चामुण्डा का आह्वान, जो माँ दुर्गा का एक रूप हैं और अधर्म, असत्य और नकारात्मक शक्तियों का नाश करती हैं।
- ॐ ग्लौ हुं क्लीं जूं स: ज्वालय ज्वालय ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल: यह भाग मंत्र को शक्ति और ऊर्जा प्रदान करता है, जो साधक के आस-पास और भीतर दिव्य ज्योति और शक्ति को जगाने के लिए कहा जाता है।
- ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ज्वल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा: मंत्र का यह अंतिम भाग देवी चामुण्डा को समर्पित है, जिसमें शक्ति, सुरक्षा, और शांति की प्रार्थना की गई है। “हं सं लं क्षं फट् स्वाहा” ये शब्द विभिन्न तत्वों और दिशाओं के प्रतिनिधि हैं, और “स्वाहा” के साथ समाप्त होने वाला मंत्र देवी को पूरी तरह समर्पण का सूचक है।
॥इति मन्त्रः॥
नमस्ते रूद्ररूपिण्यै नमस्ते मधुमर्दिनि।
नमः कैटभहारिण्यै नमस्ते महिषार्दिनि॥१॥
यह मंत्र देवी माँ के विभिन्न रूपों की स्तुति करता है, जो अलग-अलग असुरों का वध करके दुनिया की रक्षा करती हैं। इस मंत्र की लाइनें और उनके अर्थ इस प्रकार हैं:
- नमस्ते रूद्ररूपिण्यै: मैं उस देवी को प्रणाम करता हूँ जो रूद्र के रूप में हैं, यानी जो अपने उग्र रूप में समस्त नकारात्मकता और अधर्म का नाश करती हैं।
- नमस्ते मधुमर्दिनि: मैं उस देवी को प्रणाम करता हूँ जिन्होंने मधु नामक असुर का वध किया, जिससे वह ‘मधुमर्दिनि’ के रूप में पूजित हैं।
- नमः कैटभहारिण्यै: मैं उस देवी को प्रणाम करता हूँ जिन्होंने कैटभ नामक असुर का संहार किया, जिससे वह ‘कैटभहारिणी’ के रूप में प्रसिद्ध हैं।
- नमस्ते महिषार्दिनि: मैं उस देवी को प्रणाम करता हूँ जिन्होंने महिषासुर का वध किया और ‘महिषार्दिनि’ के रूप में विख्यात हैं।
यह मंत्र देवी की उन शक्तियों का सम्मान करता है जिनका उपयोग उन्होंने धरती को विभिन्न असुरों से मुक्त करने के लिए किया। यह मंत्र भक्तों को देवी की उन विविध शक्तियों की याद दिलाता है जो नकारात्मकता और बुराई के खिलाफ लड़ती हैं।
नमस्ते शुम्भहन्त्र्यै च निशुम्भासुरघातिनि॥२॥
जाग्रतं हि महादेवि जपं सिद्धं कुरूष्व मे।
यह मंत्र देवी माँ की वीरता और शक्ति की स्तुति करता है और उनसे प्रार्थना करता है कि वह साधक के जप को सिद्ध करें।
मंत्र: नमस्ते शुम्भहन्त्र्यै च निशुम्भासुरघातिनि॥२॥ जाग्रतं हि महादेवि जपं सिद्धं कुरूष्व मे।
अर्थ:
- नमस्ते शुम्भहन्त्र्यै च निशुम्भासुरघातिनि: मैं उस देवी को प्रणाम करता हूँ जिन्होंने शुम्भ और निशुम्भ नामक दो असुरों का वध किया। ये दोनों असुर भी बड़े शक्तिशाली थे और देवी ने उन्हें पराजित कर दिव्य शक्ति का परिचय दिया।
- जाग्रतं हि महादेवि जपं सिद्धं कुरूष्व मे: हे महादेवी! कृपया मेरे जप को सिद्ध करें, अर्थात् मेरे द्वारा किए गए जप को फलित करें।
इस मंत्र का उद्देश्य देवी की उन शक्तियों की पूजा करना है जिन्होंने बड़े से बड़े असुरों को पराजित किया है, और यह भक्तों को यह विश्वास दिलाता है कि देवी की शक्ति से उनके जीवन की कठिनाइयों का समाधान हो सकता है। यह मंत्र साधक को यह भी सिखाता है कि सच्चे मन और निष्ठा से किया गया जप सिद्ध होता है और उसके फलस्वरूप उनकी सभी मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं।
ऐंकारी सृष्टिरूपायै ह्रींकारी प्रतिपालिका॥३॥
इस पंक्ति में देवी की सृजनात्मक शक्ति और उनकी पालनकर्ता भूमिका की स्तुति की गई है।
- ऐंकारी सृष्टिरूपायै: ‘ऐं’ बीज मंत्र का प्रयोग करके, देवी को सृष्टि के रूप में नमन किया जाता है, अर्थात् वह सृजन की देवी हैं जो ब्रह्मांड और उसके सभी प्राणियों की उत्पत्ति का कारण हैं।
- ह्रींकारी प्रतिपालिका: ‘ह्रीं’ बीज मंत्र के साथ, देवी को पालनहार के रूप में स्तुति की जाती है। वह सभी प्राणियों की रक्षा करने वाली और उनका पोषण करने वाली हैं।
इस पंक्ति में, देवी को न केवल सृजन करने वाली के रूप में देखा गया है, बल्कि वह सृजित संसार की रक्षा और पालन भी करती हैं। ‘ऐं’ और ‘ह्रीं’ बीज मंत्र देवी की उन विशेष शक्तियों को संकेत करते हैं जो क्रमशः सृजन और पालन से संबंधित हैं। यह स्तुति देवी की दोहरी भूमिका को मान्यता देती है – एक ओर वह सृष्टि की उत्पत्ति करती हैं, और दूसरी ओर वह इसे नुर्टर और प्रोटेक्ट करती हैं।
क्लींकारी कामरूपिण्यै बीजरूपे नमोऽस्तु ते।
चामुण्डा चण्डघाती च यैकारी वरदायिनी॥४॥
इस पंक्ति में देवी की आकर्षण, शक्ति, और आशीर्वाद प्रदान करने की क्षमता की स्तुति की गई है।
- क्लींकारी कामरूपिण्यै बीजरूपे नमोऽस्तु ते: ‘क्लीं’ बीज मंत्र के साथ, देवी को काम (इच्छा) के रूप में पूजा जाता है। इससे देवी को आकर्षण और इच्छाओं की पूर्ति करने वाली के रूप में संबोधित किया जा रहा है। भक्त देवी के बीज रूप को प्रणाम करते हैं, जो सृष्टि की आद्य शक्ति है।
- चामुण्डा चण्डघाती च यैकारी वरदायिनी: देवी चामुण्डा, जो चण्डघाती (असुरों का विनाश करने वाली) हैं, और यैकारी (यहाँ ‘यै’ बीज मंत्र का संकेत है) वरदायिनी, अर्थात आशीर्वाद देने वाली हैं।
इस मंत्र में देवी को कामनाओं की पूर्ति करने वाली, असुरों के विनाशक, और आशीर्वाद देने वाली के रूप में दर्शाया गया है। यह देवी की समृद्ध और व्यापक शक्तियों को संदर्भित करता है जो भक्तों को उनके जीवन में आकर्षण, सुरक्षा, और आशीर्वाद प्रदान करती हैं। यह मंत्र भक्तों को देवी की इन विविध भूमिकाओं का स्मरण कराता है और उनकी शक्तियों के प्रति आदर और सम्मान व्यक्त करता है।
विच्चे चाभयदा नित्यं नमस्ते मन्त्ररूपिणि॥५॥
यह पंक्ति देवी की मंत्र स्वरूप में स्तुति करती है, जो भक्तों को अभय (भयमुक्त) दान करती हैं।
- विच्चे चाभयदा नित्यं: ‘विच्चे’ शब्द देवी को संबोधित करने के लिए इस्तेमाल किया गया है, जिसका अर्थ है ‘विशेष रूप से’। देवी हमेशा अभय दान करने वाली हैं, यानी वह अपने भक्तों को सदैव भयमुक्त करती हैं।
- नमस्ते मन्त्ररूपिणि: मैं उस देवी को नमस्कार करता हूँ जो मंत्र के रूप में प्रकट होती हैं। यानी देवी की उपासना विभिन्न मंत्रों के माध्यम से की जाती है और वह इन मंत्रों के रूप में ही व्यक्त होती हैं।
इस पंक्ति के माध्यम से भक्त देवी का सम्मान करते हैं क्योंकि वह न केवल उन्हें भय से मुक्ति प्रदान करती हैं, बल्कि विभिन्न मंत्रों के रूप में उनके जीवन में सक्रिय रूप से उपस्थित भी होती हैं। देवी की उपासना में मंत्रों का बहुत महत्व होता है, और यह पंक्ति उस महत्व को दर्शाती है। देवी की शक्ति और कृपा को मंत्रों के माध्यम से अनुभव किया जा सकता है, और इसलिए वह मंत्ररूपिणी के रूप में पूजनीय हैं।
धां धीं धूं धूर्जटेः पत्नी वां वीं वूं वागधीश्वरी।
क्रां क्रीं क्रूं कालिका देवि शां शीं शूं मे शुभं कुरु॥६॥
इस श्लोक में विभिन्न देवी-देवताओं की विशेषताओं और उनके शक्तिशाली मंत्रों का वर्णन है। यह श्लोक एक विशेष प्रकार का मंत्र है जिसे सिद्धि (आध्यात्मिक शक्ति) प्राप्ति के लिए जपा जाता है।
- “धां धीं धूं धूर्जटेः पत्नी”: यहाँ “धूर्जटेः पत्नी” से आशय है भगवान शिव की पत्नी, देवी पार्वती। “धां धीं धूं” इनके बीज मंत्र हैं, जो देवी पार्वती की उपासना के लिए जपे जाते हैं। यह मंत्र देवी की शक्ति और सार्वभौमिक मातृत्व को संबोधित करता है।
- “वां वीं वूं वागधीश्वरी”: यहाँ “वागधीश्वरी” देवी सरस्वती को संबोधित करता है, जो ज्ञान, संगीत, कला, और वाणी की देवी हैं। “वां वीं वूं” उनके बीज मंत्र हैं। इस मंत्र का जप वाणी की शुद्धि, ज्ञान में वृद्धि और कलात्मक प्रतिभा के विकास के लिए किया जाता है।
- “क्रां क्रीं क्रूं कालिका देवि”: यह भाग देवी कालिका को समर्पित है, जो समय और मृत्यु की देवी हैं, और उनके शक्तिशाली प्रोटेक्टिव नेचर को प्रदर्शित करती हैं। “क्रां क्रीं क्रूं” देवी कालिका के बीज मंत्र हैं और इनका जप नकारात्मक ऊर्जा को दूर करने, और आत्मरक्षा के लिए किया जाता है।
- “शां शीं शूं मे शुभं कुरु”: इस अंतिम भाग में देवताओं से प्रार्थना की गई है कि वे प्रार्थी के जीवन में शुभता, सौभाग्य और कल्याणकारी ऊर्जा को संचारित करें। “शां शीं शूं” यहाँ एक सामान्य आशीर्वाद के बीज मंत्र के रूप में काम करते हैं।
इस प्रकार, यह श्लोक देवी के विभिन्न रूपों की उपासना और उनसे जीवन में शुभता और सफलता की प्रार्थना करता है। यह आध्यात्मिक उन्नति, ज्ञान की प्राप्ति, सुरक्षा, और समृद्धि की कामना को व्यक्त करता है।
हुं हुं हुंकाररूपिण्यै जं जं जं जम्भनादिनी।
भ्रां भ्रीं भ्रूं भैरवी भद्रे भवान्यै ते नमो नमः॥७॥
यह पंक्ति देवी भैरवी, जो भवानी का एक रूप हैं, की स्तुति करती है और उन्हें विभिन्न बीज मंत्रों के माध्यम से संबोधित करती है।
- हुं हुं हुंकाररूपिण्यै: “हुं” बीज मंत्र देवी को उनके हुंकार स्वरूप में संबोधित करता है, जो उनकी उग्रता और शक्ति को प्रकट करता है।
- जं जं जं जम्भनादिनी: “जं” बीज मंत्र देवी को जम्भनादिनी, यानी असुरों को नष्ट करने वाली और उन्हें मौन करने वाली के रूप में संबोधित करता है।
- भ्रां भ्रीं भ्रूं भैरवी भद्रे: ये बीज मंत्र देवी भैरवी को संबोधित करते हैं, जो भद्र, यानी मंगलमय और कल्याणकारी हैं।
- भवान्यै ते नमो नमः: इस पंक्ति में देवी भवानी, जो उनका एक और नाम है, को नमन किया गया है।
इस पंक्ति के माध्यम से भक्त देवी की उग्र और शक्तिशाली स्वरूप की पूजा करते हैं। देवी भैरवी को उनके विनाशकारी और संरक्षणकारी दोनों रूपों में प्रणाम किया गया है, जो बुराई को नष्ट करती हैं और अपने भक्तों को कल्याण प्रदान करती हैं।
अं कं चं टं तं पं यं शं वीं दुं ऐं वीं हं क्षं
धिजाग्रं धिजाग्रं त्रोटय त्रोटय दीप्तं कुरु कुरु स्वाहा॥
पां पीं पूं पार्वती पूर्णा खां खीं खूं खेचरी तथा॥८॥
यह श्लोक विशेष बीज मंत्रों का एक समूह प्रस्तुत करता है, जिसके माध्यम से देवी पार्वती के पूर्ण और दिव्य स्वरूप की स्तुति की गई है। यह मंत्र साधना और तंत्र विद्या में विशेष महत्व रखते हैं।
- अं कं चं टं तं पं यं शं वीं दुं ऐं वीं हं क्षं: ये विभिन्न बीज मंत्र हैं, जिनका उपयोग विभिन्न देवताओं की उपासना में किया जाता है। ये मंत्र विभिन्न शक्तियों और ऊर्जाओं को आकर्षित करने के लिए होते हैं।
- धिजाग्रं धिजाग्रं त्रोटय त्रोटय दीप्तं कुरु कुरु स्वाहा: इस पंक्ति का आह्वान है कि जप करने वाले की साधना में दीप्ति और तेज की वृद्धि हो, और इसे उत्तेजित करने का आग्रह किया जाता है।
- पां पीं पूं पार्वती पूर्णा खां खीं खूं खेचरी तथा: इस पंक्ति में देवी पार्वती को पूर्णा और खेचरी के रूप में संबोधित किया गया है, जो उनकी संपूर्णता और दिव्यता को दर्शाता है।
यह श्लोक साधकों को देवी पार्वती की आराधना में गहराई से लीन होने और उनकी दिव्य शक्तियों का आवाहन करने का एक माध्यम प्रदान करता है। इसका उद्देश्य साधक की साधना में शक्ति, प्रकाश और सिद्धि की वृद्धि करना है।
सां सीं सूं सप्तशती देव्या मन्त्रसिद्धिं कुरुष्व मे॥
इदं तु कुञ्जिकास्तोत्रं मन्त्रजागर्तिहेतवे।
अभक्ते नैव दातव्यं गोपितं रक्ष पार्वति॥
इस श्लोक में, साधक देवी सप्तशती के मंत्रों की सिद्धि प्राप्त करने के लिए प्रार्थना करता है और कुञ्जिका स्तोत्र की महत्वपूर्ण भूमिका को स्वीकार करता है।
- सां सीं सूं सप्तशती देव्या मन्त्रसिद्धिं कुरुष्व मे: यह लाइन देवी के सप्तशती मंत्रों की सिद्धि की प्रार्थना करती है। ‘सां सीं सूं’ बीज मंत्र हैं जो साधक की प्रार्थना की शक्ति और इरादे को बढ़ाते हैं।
- इदं तु कुञ्जिकास्तोत्रं मन्त्रजागर्तिहेतवे: यह लाइन बताती है कि कुञ्जिका स्तोत्र मंत्रों की जागरूकता और सिद्धि के लिए है। यानी, यह स्तोत्र मंत्रों को सक्रिय और प्रभावी बनाने में मदद करता है।
- अभक्ते नैव दातव्यं गोपितं रक्ष पार्वति: इस लाइन में देवी पार्वती से अनुरोध किया गया है कि इस स्तोत्र को केवल विश्वसनीय और समर्पित भक्तों के साथ ही साझा किया जाए और इसे गोपनीय रखा जाए। यह स्तोत्र की शक्ति और महत्व को दर्शाता है और इसे लापरवाही से नहीं फैलाने की चेतावनी देता है।
यह श्लोक कुञ्जिका स्तोत्र की पवित्रता और शक्ति को महत्व देता है, और साथ ही साधकों को इसके प्रति समर्पण और गंभीरता से पेश आने का निर्देश देता है। यह स्तोत्र और इसके मंत्र सिद्धि प्रक्रिया में महत्वपूर्ण हैं और इसे संजीदगी से लेने की आवश्यकता है।
यस्तु कुञ्जिकाया देवि हीनां सप्तशतीं पठेत्।
न तस्य जायते सिद्धिररण्ये रोदनं यथा॥
इति श्रीरुद्रयामले गौरीतन्त्रे शिवपार्वतीसंवादे कुञ्जिकास्तोत्रं सम्पूर्णम्।
॥ॐ तत्सत्॥
इस अंतिम श्लोक में कुञ्जिका स्तोत्र के महत्व को समाप्त किया गया है, जिसमें स्तोत्र के महत्व और उसके बिना सप्तशती के पाठ की अपूर्णता को बताया गया है।
- यस्तु कुञ्जिकाया देवि हीनां सप्तशतीं पठेत्: जो कोई भी देवी कुञ्जिका स्तोत्र के बिना देवी सप्तशती का पाठ करता है,
- न तस्य जायते सिद्धिररण्ये रोदनं यथा: उसे सिद्धि प्राप्त नहीं होती, जैसे किसी व्यक्ति के वन में रोने से कोई लाभ नहीं होता।
- इति श्रीरुद्रयामले गौरीतन्त्रे शिवपार्वतीसंवादे कुञ्जिकास्तोत्रं सम्पूर्णम्: इस प्रकार, श्रीरुद्रयामल गौरीतंत्र में शिव और पार्वती के संवाद के दौरान कुञ्जिका स्तोत्र संपूर्ण हुआ।
- ॥ॐ तत्सत्॥: यह “वही सत्य है” के लिए एक वैदिक संकेत है, जो इस पाठ के समापन को दर्शाता है और सत्य की पुष्टि करता है।
इस समापन श्लोक में स्तोत्र की महत्वपूर्णता और इसके बिना सप्तशती के पाठ की अपूर्णता को बताया गया है, जो साधकों को इस स्तोत्र के महत्व को समझने और इसे अपने साधना में शामिल करने की प्रेरणा देता है।
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सिद्ध कुंजिका स्तोत्र क्या है?
सिद्ध कुंजिका स्तोत्र दुर्गा सप्तशती या चंडी पाठ के संदर्भ में उल्लेखित एक अत्यंत शक्तिशाली और गोपनीय स्तोत्र है। यह परंपरागत रूप से चंडी पाठ की शुरुआत में सभी मंत्रों को प्रभावी बनाने और साधना में सफलता प्राप्त करने के लिए पढ़ा जाता है।
सिद्ध कुंजिका स्तोत्र को अत्यधिक गोपनीय और शक्तिशाली क्यों माना जाता है?
सिद्ध कुंजिका स्तोत्र को इसलिए अत्यधिक गोपनीय और शक्तिशाली माना जाता है क्योंकि इसमें चंडी पाठ के सच्चे और संपूर्ण लाभों को सक्रिय करने की क्षमता है, बिना कवच, अर्गला, कीलक आदि अन्य अनुष्ठानों की आवश्यकता के। इसके केवल पाठ से ही दुर्गा पाठ के फल प्राप्त होते हैं।
सिद्ध कुंजिका स्तोत्र का पाठ करने के क्या लाभ हैं?
सिद्ध कुंजिका स्तोत्र का केवल पाठ करने से ही दुर्गा पाठ के फल प्राप्त होते हैं। यह इतना शक्तिशाली है कि विभिन्न तांत्रिक प्रयोगों जैसे मारण (हानि पहुंचाना), मोहन (आकर्षण), वशीकरण (अधीन करना), स्तम्भन (निश्चल करना), और उच्चाटन (निष्कासन) में सफलता प्रदान कर सकता है, केवल इसके पाठ से।