Moti Shanti

जैन मोती शांति पाठ जैन धर्म का एक महत्वपूर्ण धार्मिक पाठ है, जिसका उद्देश्य मानसिक और शारीरिक शांति प्राप्त करना है। यह पाठ विशेष रूप से धार्मिक अवसरों, पूजा, अभिषेक, और अन्य धार्मिक आयोजनों में किया जाता है। इसमें विभिन्न मंत्र और श्लोक शामिल होते हैं, जो भगवानों, देवताओं और तीर्थंकरों की स्तुति करते हैं और उनके आशीर्वाद की प्रार्थना करते हैं। इस पाठ का मुख्य उद्देश्य जीवन के सभी प्रकार के संकटों और बाधाओं को दूर करना और शांति, समृद्धि और सुख की प्राप्ति करना है।

Moti Shanti lyrics

।। इति श्री Moti Shanti मंत्र ।।

जैन मोती शांति पाठ की हिंदी में व्याख्या –

यह शांति मंत्र (Moti Shanti) जैन धर्म के प्रमुख पाठों में से एक है, जो शांति, सुरक्षा, और समृद्धि की कामना करता है। इस मंत्र का उपयोग धार्मिक आयोजनों, पूजाओं, और विशेष अवसरों पर किया जाता है। आइए इसका अर्थ और व्याख्या समझते हैं:

श्लोक 1:

अर्थ:

  • भो भो भव्या!: हे, उत्तम जीवों!
  • शृणुत वचनं: मेरे वचन सुनें।
  • प्रस्तुतं सर्वमेतद्: जो कुछ भी प्रस्तुत किया गया है।
  • ये यात्रायां त्रि-भुवन गुरो-रार्हता! भक्ति-भाजः!: जो त्रिभुवन के गुरु के आराधक हैं, उन्हें।
  • तेषां शांतिर्भवतु: उन सभी को शांति प्राप्त हो।
  • भवतामर्हदादिप्रभावा: अरिहंतों के प्रभाव से।
  • दारोग्य-श्री धृति-मति-करी क्लेशविंध्वंस- हेतुः: जो स्वास्थ्य, समृद्धि, धैर्य, और बुद्धि को बढ़ाने वाला और कष्टों को नष्ट करने वाला है।

श्लोक 2:

अर्थ:

  • भो भो भव्यलोकाः: हे, पवित्र लोक के निवासियों!
  • इह हि भरतैरावतविदेहसंभवानां समस्ततीर्थकृतां जन्मन्यासन-प्रकम्पानन्तर-मवधिना विज्ञाय: यहां भरत, ऐरावत, और विदेह क्षेत्रों में जन्म लेने वाले समस्त तीर्थंकरों की जन्म स्थानों पर ध्यान दें।
  • सौधर्माधिपतिः सुघोषा घण्टा-चालनानन्तरं: सौधर्म के अधिपति सुघोषा द्वारा घंटा बजाने के बाद।
  • सकल-सुराऽसुरेन्द्रैः सह समागत्य सविन-मर्हद् भट्टारकं गृहीत्वा: सभी देवताओं और असुरों के साथ आकर अरिहंत भट्टारक को सम्मानपूर्वक लेकर।
  • गत्वा कनकाद्रिश्रृंगे विहितजन्माभिषेकः शांतिमुद्घोषयति यथा: कनकाद्रि पर्वत पर जाकर जन्म और अभिषेक की विधि संपन्न कर शांति का उद्घोष करते हैं।
  • ततोऽहम्‌ कृतानुकारमिति कृत्वा महाजनो येन गतः स पन्था:: तब मैं उस पथ पर चलता हूँ जिस पर महाजनों ने चलकर अनुकरण किया है।
  • इति भव्यजनैः सहसमेत्य: इस प्रकार, पवित्र जनों के साथ मिलकर।
  • स्नात्रपीठे स्नात्रं विधाय: स्नान की जगह पर स्नान करते हुए।
  • शांतिमुद्घोषयामि: शांति का उद्घोष करता हूँ।
  • तत्‌ पूजा-यात्रा स्नात्रादि-महोत्सवानन्तरमिति कृत्वा: इस पूजा और यात्रा के स्नानादि महोत्सव के बाद।
  • कर्णं दत्वा निशम्यतां निशम्यतां स्वाहा: ध्यान से सुनें, ध्यान से सुनें, स्वाहा।

श्लोक 3:

अर्थ:

  • ॐ पुण्याऽहं पुण्याऽहं: ओम्, मैं पुण्य हूँ, मैं पुण्य हूँ।
  • प्रियंतां प्रीयन्तां भगवन्तोऽर्हन्तः: अरिहंत भगवानों को प्रिय होऊँ।
  • सर्वज्ञाः सर्वदर्शिनस्त्रिलोक नाथास्त्रिलोक-महतास्त्रिलोकपूज्या-स्त्रिलोकेश्वरा-स्त्रिलोकोद्योतकराः: सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, त्रिलोक के नाथ, त्रिलोक के महान, त्रिलोक के पूजनीय, त्रिलोक के स्वामी, त्रिलोक को प्रकाशित करने वाले हों।

श्लोक 4:

अर्थ:

  • ॐ ऋषभ…वर्धमानान्ता जिनाः: ओम्, ऋषभ से लेकर वर्धमान (महावीर) तक सभी जिनों को।
  • शांताः शांतिकरा भवन्तु स्वाहा: शांति देने वाले हों, शांति देने वाले हों, स्वाहा।

श्लोक 5:

अर्थ:

  • ॐ मुनयो मुनि-प्रवरा: ओम्, मुनि और श्रेष्ठ मुनि।
  • रिपु-विजय-दुर्भिक्ष-कान्तारेषु दुर्ग-मार्गेषु: शत्रुओं को हराने, दुर्भिक्ष में, जंगलों में, और कठिन मार्गों में।
  • रक्षन्तु वो नित्यं स्वाहा: सदैव आपकी रक्षा करें, स्वाहा।

श्लोक 6:

अर्थ:

  • ॐ ह्रीं श्री-धृति-मति-कीर्ति-कान्ति-बुद्धि-लक्ष्मी-मेधा-विद्या-साधन-प्रवेश-निवेशनेषु: ओम्, श्री, धृति, मति, कीर्ति, कान्ति, बुद्धि, लक्ष्मी, मेधा, विद्या, साधन, प्रवेश, निवेशन में।
  • सुगृहीतनामानो ज़यन्तु ते जिनेन्द्राः: सुगृहीत नाम वाले जिनेन्द्रों की जय हो।

श्लोक 7:

अर्थ:

  • ॐ रोहिणी-प्रज्ञप्ति-वज्र श्रृंखला-वज्रांकुशी अप्रतिचक्रा-पुरुषदत्ता-काली-महाकाली-गौरी-गान्धारी-सर्वास्त्रामहाज्वाला-मानवी-वैरोठ्या-अच्छुप्ता-मानसी-महामानसी षोडश विद्या-देव्यो: ओम्, रोहिणी, प्रज्ञप्ति, वज्र श्रृंखला, वज्रांकुशी, अप्रतिचक्रा, पुरुषदत्ता, काली, महाकाली, गौरी, गान्धारी, सर्वास्त्र, महाज्वाला, मानवी, वैरोठ्या, अच्छुप्ता, मानसी, महामानसी, ये सोलह विद्या देवियाँ।
  • रक्षन्तु वो नित्यं स्वाहा: सदैव आपकी रक्षा करें, स्वाहा।

श्लोक 8:

अर्थ:

  • ॐ आचार्योपाध्याय-प्रभृति-चातुर्वर्णस्यं: ओम्, आचार्य, उपाध्याय और चारों वर्ण।
  • श्री श्रमणसंघस्य: श्री श्रमण संघ।
  • शांतिर्भवतु तुष्टिर्भवतु पुष्टिर्भवतु: शांति हो, संतोष हो, समृद्धि हो।

श्लोक 9:

ॐ ग्रहाश्चन्द्रसूर्याङ्गारक-बुध-बृहस्पति-शुक्र-शनैश्चर-राहु-केतुसहिताः

सलोकपालाः सोम-यम-वरुण-कुबेर-वासवादित्य-स्कंदविनायकोपेता,

ये चान्येऽपि ग्राम-नगर-क्षेत्र-देवतादयस्ते सर्वे प्रीयन्तां प्रीयन्तां,

अक्षीणकोश-कोष्ठागारा नरपतयश्य भवन्तु स्वाहा || 9 ||

अर्थ:

  • ॐ ग्रहाश्चन्द्रसूर्याङ्गारक-बुध-बृहस्पति-शुक्र-शनैश्चर-राहु-केतुसहिताः: ओम्, चंद्र, सूर्य, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु, केतु सहित ग्रह।
  • सलोकपालाः सोम-यम-वरुण-कुबेर-वासवादित्य-स्कंदविनायकोपेता: सोम, यम, वरुण, कुबेर, वासव (इन्द्र), आदित्य, स्कंद, विनायक सहित।
  • ये चान्येऽपि ग्राम-नगर-क्षेत्र-देवतादयस्ते: जो अन्य भी ग्राम, नगर, क्षेत्र देवता हैं।
  • सर्वे प्रीयन्तां प्रीयन्तां: सभी को प्रिय हों, प्रिय हों।
  • अक्षीणकोश-कोष्ठागारा नरपतयश्य भवन्तु स्वाहा: अक्षम (अक्षय) कोश और कोष्ठागार वाले राजाओं को स्वाहा।

श्लोक 10:

अर्थ:

  • ॐ पुत्र-मित्र-भ्रातृ-कलत्र-सुहृत-स्वजन-संबंधि-बंधुवर्गसहिता: ओम्, पुत्र, मित्र, भाई, पत्नी, सुहृद, स्वजन, संबंधी, और बंधु वर्ग सहित।
  • नित्यं चामोद-प्रमोद-कारिणः: सदैव आनंद और खुशी कारक हों।
  • अस्मिंश्च भूमंडल आयतन-निवासि-साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविकाणां: इस भूमंडल के आयतन और निवास करने वाले साधु, साध्वी, श्रावक, और श्राविकाओं।
  • रोगोपसर्ग-व्याधि-दुःख-दुर्भिक्ष-दौर्मनस्योपशमनाय शांतिर्भवन्तु: रोग, उपसर्ग, व्याधि, दुःख, दुर्भिक्ष, और दौर्मनस्य (दुखद स्थिति) के उपशमन के लिए शांति हो।

श्लोक 11:

अर्थ:

  • ॐ तुष्टि-पुष्टि ऋद्धि-वृद्धि-मांगल्योत्सवाः: ओम्, संतोष, पुष्टता, ऋद्धि, वृद्धि, मांगल्य उत्सव।
  • सदाप्रादुर्भूतानि: सदा विद्यमान रहें।
  • पापानि शाम्यन्तु दुरितानि: पाप और दुष्कर्म समाप्त हों।
  • शत्रवः पराङ्मुखा भवन्तु स्वाहा: शत्रु पराजित हों, स्वाहा।

श्लोक 12:

अर्थ:

  • श्रीमते शांतिनाथाय: श्री शांतिनाथ को।
  • नमः शांतिविधायिने: नमस्कार जो शांति के विधाता हैं।
  • त्रैलोक्यस्यामराधीश-मुकुटाभ्यर्चितांघ्रये: त्रैलोक्य के अमराधीश के मुकुट द्वारा पूजित चरणों को।

श्लोक 13:

अर्थ:

  • शांतिः-शांति-करः श्रीमान्‌: शांति, शांति देने वाले श्रीमान्‌।
  • शांति दिशतु मे गुरुः: गुरु मुझे शांति दें।
  • शांतिरेव सदा तेषां: सदा उनके लिए शांति हो।
  • येषां शान्तिर्गृहे गृहे: जिनके घर-घर में शांति हो।

श्लोक 14:

अर्थ:

  • उन्मृष्टरिष्ट-दुष्टग्रह-गति-दुःस्वप्न-दुर्निमित्तादिः: शत्रु, दुष्ट ग्रह, दु:स्वप्न, और अशुभ संकेतों का नाश।
  • संपादितहित-संपन्नामग्रहणं जयति शांतेः: शांति का आशीर्वाद प्राप्त हो।

श्लोक 15:

अर्थ:

  • श्रीसंघ-जगज्‌-जनपद,-राजाधिप-राज-सन्निवेशानाम्‌: श्रीसंघ, विश्व, जनपद, राजा, और उनके निवासियों।
  • गोष्ठिक-पुर-मुख्याणां: गोष्ठी, नगर के प्रमुख।
  • व्याहरणैर्व्याहरेच्छन्तिम्‌: सभी को शांति मिलें।

श्लोक 16:

अर्थ:

  • श्री श्रमणसंघस्य शांतिर्भवतु: श्री श्रमण संघ में शांति हो।
  • श्री जनपदानां शांतिर्भवतु: सभी जनपदों में शांति हो।
  • श्री राजाधिपानां शांतिर्भवतु: सभी राजाओं में शांति हो।
  • श्री राजसन्निवेशानां शांतिर्भवतु: सभी राज निवासों में शांति हो।
  • श्री गोष्ठिकानां शांतिर्भवतु: सभी समूहों में शांति हो।
  • श्री पौर-मुख्याणां शांतिर्भवतु: सभी नगर प्रमुखों में शांति हो।
  • श्री पौरजनस्य शांतिर्भवतु: सभी नगरवासियों में शांति हो।
  • श्री ब्रह्मलोकस्य शांतिर्भवतु: ब्रह्मलोक में शांति हो।

श्लोक 17:

अर्थ:

  • ॐ स्वाहा, ॐ स्वाहा, ॐ श्री पार्श्वनाथाय स्वाहा: ओम्, स्वाहा, ओम् श्री पार्श्वनाथ को स्वाहा।
  • एषा शांतिः प्रतिष्ठा-यात्रा-स्नात्रा-द्यवसानेषु: यह शांति प्रतिष्ठा यात्रा स्नान और अन्य समारोहों के समापन पर।
  • शांतिकलशं गृहीत्वा कुंकुम-चंदन-कर्पूरागरु-धूपवास-कुसुमांजलि-समेतः: शांति कलश को धारण करके जिसमें कुंकुम, चंदन, कपूर, अगर, धूप और पुष्पांजलि सहित।
  • स्नात्रचतुष्किकायां श्री संघसमेतः शुचि-शुचि-वपुः पुष्प-वस्त्र-चंदना-भरणालंकृतः: स्नात्र चतुष्किका में, श्री संघ के साथ शुद्ध शरीर, पुष्प, वस्त्र, चंदन और आभूषण से सज्जित।
  • पुष्पमालां कण्ठे कृत्वा शांतिमृद्घोषयित्वा शांतिपानीयं मस्तके दातव्यमिति: पुष्पमाला को गले में धारण करके, शांति का उद्घोष करते हुए, शांति जल को सिर पर डालना चाहिए।

श्लोक 18:

अर्थ:

  • नृत्यन्ति नृत्यं मणिपुष्पवर्षं: वे नृत्य करते हैं और मणि-पुष्पों की वर्षा करते हैं।
  • सृजन्ति गायन्ति च मंगलानि: मंगल गीत गाते हैं।
  • स्त्रोत्राणि गोत्राणि पठन्ति, मंत्रान्‌, कल्याणभाजो हि जिनाभिषेके: स्तोत्र और मंत्रों का पाठ करते हैं, जिन अभिषेक का कल्याणकारी प्रभाव होता है।

श्लोक 19:

अर्थ:

  • शिवमस्तु सर्वजगतः: सम्पूर्ण जगत के लिए कल्याण हो।
  • पर-हित-निरता भवन्तु भूतगणाः: सभी प्राणी दूसरों के हित में तत्पर रहें।
  • दोषाः प्रयान्तु नाशं: दोष नष्ट हों।
  • सर्वत्र सुखी भवन्तु लोकाः: सभी लोग सर्वत्र सुखी हों।

श्लोक 20:

अर्थ:

  • अहं तित्थयरमाया, सिवादेवी तुम्ह नयरनिवासिनी: मैं तीर्थंकर की माया, सिवा देवी हूँ और तुम नगर की निवासिनी।
  • अम्ह सिवं तुम्ह सिवं, असिवोवसमं सिवं भवतु स्वाहा: हमारा सिवं, तुम्हारा सिवं, असिवं के वश में न हो, सिवं हो, स्वाहा।

श्लोक 21:

अर्थ:

  • उपसर्गाः क्षयं यांति: उपसर्ग (बाधाएं) समाप्त हो जाएं।
  • छिद्यन्ते विघ्नवल्लयः: विघ्न (बाधाएं) समाप्त हो जाएं।
  • मनः प्रसन्नतामेति: मन प्रसन्न हो।
  • पूज्यमाने जिनेश्वरे: जब जिनेश्वर की पूजा होती है।

श्लोक 22:

सर्व मंगल मांगल्यं, सर्वकल्याण-कारणम्‌।

प्रधानं सर्वधर्माणां, जैनं जयति शासनम्‌ || 22 ||

।। इति श्री Moti Shanti मंत्र ।।

अर्थ:

  • सर्व मंगल मांगल्यं: सभी मंगलकारी मांगलिक कार्य।
  • सर्वकल्याण-कारणम्‌: सभी कल्याण का कारण।
  • प्रधानं सर्वधर्माणां: सभी धर्मों में प्रमुख।
  • जैनं जयति शासनम्‌: जैन शासन की जय हो।

संक्षिप्त सार: यह शांति मंत्र जैन धर्म के अनुयायियों द्वारा जीवन में शांति, समृद्धि, और कल्याण की कामना के लिए उच्चारित किया जाता है। इसमें ब्रह्मांड, जनपद, समाज, और आत्मिक शांति की प्रार्थना की जाती है। मंत्र में संतोष, समृद्धि, और सुरक्षा की भावना को व्यक्त किया गया है और प्रत्येक प्राणी के लिए शांति और सुख की कामना की गई है।

मोती शांति पाठ का महत्व:

  • धार्मिक शांति: यह पाठ धार्मिक आयोजनों के दौरान किया जाता है और इससे वातावरण में पवित्रता और शांति का संचार होता है।
  • कष्टों का निवारण: इसमें शामिल मंत्र और श्लोक जीवन के विभिन्न कष्टों, जैसे रोग, विपत्ति, और मानसिक अशांति को दूर करने में सहायक होते हैं।
  • धन और समृद्धि: यह पाठ परिवार में समृद्धि और धन की वृद्धि के लिए भी किया जाता है।
  • आध्यात्मिक उन्नति: नियमित रूप से मोती शांति पाठ करने से आध्यात्मिक उन्नति होती है और व्यक्ति के जीवन में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है।




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