महाकाली स्तोत्रम् देवी काली की उपासना के लिए एक पवित्र और शक्तिशाली स्तोत्र है, जो उनकी महिमा, शक्ति, और कृपा का गुणगान करता है। यह स्तोत्र भक्तों को न केवल आध्यात्मिक शक्ति प्रदान करता है बल्कि उन्हें भय, संशय, और नकारात्मक शक्तियों से मुक्ति दिलाने में भी सहायक होता है।
जिन मंत्रों का आपने उल्लेख किया है, वे देवी महाकाली के विभिन्न गुणों और उनकी दिव्यता का वर्णन करते हैं। इस स्तोत्र का पाठ या जप भक्तों को आंतरिक शांति, मानसिक स्थिरता, और जीवन में सकारात्मक दिशा प्रदान करने के लिए किया जाता है।
ध्यान दें कि स्तोत्र का पाठ करते समय सही उच्चारण और विधि का पालन करना महत्वपूर्ण है, इसलिए यदि संभव हो तो एक अनुभवी गुरु या पंडित से मार्गदर्शन प्राप्त करें।
Mahakali Stotra | महाकाली स्तोत्र
अनादिं सुरादिं मखादिं भवादिं, स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवाः ।।1।।
जगन्मोहिनीयं तु वाग्वादिनीयं, सुहृदपोषिणी शत्रुसंहारणीयं |
वचस्तम्भनीयं किमुच्चाटनीयं, स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवाः ।।2।।
इयं स्वर्गदात्री पुनः कल्पवल्ली, मनोजास्तु कामान्यथार्थ प्रकुर्यात |
तथा ते कृतार्था भवन्तीति नित्यं, स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवाः ।।3।।
सुरापानमत्ता सुभक्तानुरक्ता, लसत्पूतचित्ते सदाविर्भवस्ते |
जपध्यान पुजासुधाधौतपंका, स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवाः ।।4।।
चिदानन्दकन्द हसन्मन्दमन्द, शरच्चन्द्र कोटिप्रभापुन्ज बिम्बं |
मुनिनां कवीनां हृदि द्योतयन्तं, स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवाः ।।5।।
महामेघकाली सुरक्तापि शुभ्रा, कदाचिद्विचित्रा कृतिर्योगमाया |
न बाला न वृद्धा न कामातुरापि, स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवाः ।। 6।।
क्षमास्वापराधं महागुप्तभावं, मय लोकमध्ये प्रकाशीकृतंयत् |
तवध्यान पूतेन चापल्यभावात्, स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवाः ।। 7।।
यदि ध्यान युक्तं पठेद्यो मनुष्य, स्तदा सर्वलोके विशालो भवेच्च |
गृहे चाष्ट सिद्धिर्मृते चापि मुक्ति, स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवाः ।।8।।
।। इति महाकाली स्तोत्रम् ।।
Mahakali Stotra | महाकाली स्तोत्र की अर्थ सहित व्याख्या
अनादिं सुरादिं मखादिं भवादिं, स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवाः ।।1।।
जगन्मोहिनीयं तु वाग्वादिनीयं, सुहृदपोषिणी शत्रुसंहारणीयं |
अनादिं सुरादिं मखादिं भवादिं, स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवाः।।
- अनादिं: जिसकी कोई आदि (शुरुआत) नहीं है।
- सुरादिं: देवताओं का आदि, यानी देवताओं की उत्पत्ति का स्रोत।
- मखादिं: यज्ञों का आदि, यानी यज्ञों की उत्पत्ति का स्रोत।
- भवादिं: सृष्टि का आदि, यानी सृष्टि की उत्पत्ति का स्रोत।
- स्वरूपं त्वदीयं: तुम्हारा स्वरूप।
- न विन्दन्ति देवाः: देवता भी नहीं पा सकते।
जगन्मोहिनीयं तु वाग्वादिनीयं, सुहृदपोषिणी शत्रुसंहारणीयं |
- जगन्मोहिनीयं: जो संपूर्ण जगत को मोहित करती है। यहाँ दिव्यता की ऐसी शक्ति का वर्णन है जो सभी को अपनी ओर आकर्षित करती है, अपनी सुंदरता और दिव्य गुणों के माध्यम से।
- तु वाग्वादिनीयं: जो वाणी और तर्क में उत्कृष्ट है। इससे दिव्यता की वह शक्ति का संकेत मिलता है जो सत्य और ज्ञान के माध्यम से प्रकट होती है, और जिसके वचन और तर्क अपराजेय होते हैं।
- सुहृदपोषिणी: जो मित्रों का पोषण करती है। यह दिव्यता की उस शक्ति को दर्शाता है जो भक्तों और अनुयायियों का समर्थन और पोषण करती है, उन्हें आध्यात्मिक, मानसिक, और भौतिक स्तर पर सहायता प्रदान करती है।
- शत्रुसंहारणीयं: जो शत्रुओं का नाश करती है। यह दिव्यता के उस रूप को इंगित करता है जो नकारात्मक शक्तियों और बाधाओं का निवारण करती है, भक्तों की रक्षा करती है, और उन्हें आंतरिक और बाह्य शत्रुओं से मुक्ति दिलाती है।
यह मंत्र दिव्य शक्ति की विविधता और समग्रता को दर्शाता है, जो न केवल सृष्टि को अपनी सुंदरता से मोहित करती है बल्कि ज्ञान, पोषण, और सुरक्षा का भी स्रोत है।
वचस्तम्भनीयं किमुच्चाटनीयं, स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवाः ।।2।।
इयं स्वर्गदात्री पुनः कल्पवल्ली, मनोजास्तु कामान्यथार्थ प्रकुर्यात |
वचस्तम्भनीयं किमुच्चाटनीयं, स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवाः।।
- वचस्तम्भनीयं: जो वाणी को स्थिर कर देता है, या जिसके विषय में बोलना मुश्किल है।
- किमुच्चाटनीयं: चर्चा के योग्य, या जिसके विषय में बात की जा सके।
- स्वरूपं त्वदीयं: तुम्हारा स्वरूप।
- न विन्दन्ति देवाः: देवता भी नहीं पा सकते।
इस मंत्र का अर्थ है कि दिव्य स्वरूप, जिसकी महिमा के विषय में बोलना या चर्चा करना दुष्कर है, ऐसा स्वरूप है जिसे देवता भी नहीं जान पाते। यह ईश्वरीय सत्ता की अगम्यता और अव्यक्त प्रकृति को दर्शाता है।
इयं स्वर्गदात्री पुनः कल्पवल्ली, मनोजास्तु कामान्यथार्थ प्रकुर्यात |
- इयं: यह।
- स्वर्गदात्री: स्वर्ग देने वाली।
- पुनः कल्पवल्ली: फिर से उत्पन्न होने वाली कल्पवृक्ष की तरह।
- मनोजास्तु कामान्यथार्थ प्रकुर्यात: मन से उत्पन्न होने वाली कामनाओं को साकार करती है।
इस मंत्र का अर्थ है कि यह दिव्य स्वरूप स्वर्ग का दान करने वाली है, कल्पवृक्ष की तरह पुनः उत्पन्न होती है, और मन से उत्पन्न होने वाली कामनाओं को साकार करती है। यह मंत्र दिव्यता की कृपा और उसके आशीर्वाद की शक्ति को दर्शाता है, जो मनुष्य की कामनाओं को पूरा करती है और उसे स्वर्गीय सुख प्रदान करती है।
तथा ते कृतार्था भवन्तीति नित्यं, स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवाः ।।3।।
सुरापानमत्ता सुभक्तानुरक्ता, लसत्पूतचित्ते सदाविर्भवस्ते |
तथा ते कृतार्था भवन्तीति नित्यं, स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवाः।।
- तथा: इस प्रकार।
- ते कृतार्था भवन्तीति नित्यं: वे सदैव कृतार्थ (पूर्ण) होते हैं।
- स्वरूपं त्वदीयं: तुम्हारा स्वरूप।
- न विन्दन्ति देवाः: देवता भी नहीं पा सकते।
इस मंत्र का अर्थ है कि दिव्यता के समक्ष समर्पित भक्त सदैव कृतार्थ होते हैं, फिर भी देवता भी उस दिव्य स्वरूप को पूर्णतः नहीं जान सकते। यह दिव्यता की असीमता और उसकी कृपा के प्रति भक्तों की पूर्णता को दर्शाता है।
सुरापानमत्ता सुभक्तानुरक्ता, लसत्पूतचित्ते सदाविर्भवस्ते |
- सुरापानमत्ता: मदिरा पान करने से मत्त (मदोन्मत्त)।
- सुभक्तानुरक्ता: अपने भक्तों से अनुरक्त (प्रेमी)।
- लसत्पूतचित्ते: चमकते हुए पवित्र मन में।
- सदाविर्भवस्ते: सदा प्रकट होने वाली।
इस मंत्र का अर्थ है कि दिव्यता, जो अपने भक्तों के प्रति अनुराग रखती है और जिनके पवित्र चित्त में सदैव प्रकट होती है, वह भक्ति के माध्यम से एक दिव्य मदोन्मत्तता प्रदान करती है। यहाँ ‘सुरापानमत्ता’ शब्द का उपयोग आध्यात्मिक आनंद और भक्ति में लीन होने की अवस्था को व्यक्त करने के लिए किया गया है, जो भौतिक मदिरा के सेवन से भिन्न है। ये मंत्र दिव्य स्वरूप की अद्भुतता, भक्तों के प्रति उसके अनुराग, और आध्यात्मिक उन्नति के मार्ग में उसकी सहायता को दर्शाते हैं।
जपध्यान पुजासुधाधौतपंका, स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवाः ।।4।।
चिदानन्दकन्द हसन्मन्दमन्द, शरच्चन्द्र कोटिप्रभापुन्ज बिम्बं |
जपध्यान पुजासुधाधौतपंका, स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवाः।।
- जपध्यान पुजासुधाधौतपंका: जप, ध्यान, और पूजा के माध्यम से धोए गए (शुद्ध किए गए) पाप।
- स्वरूपं त्वदीयं: तुम्हारा स्वरूप।
- न विन्दन्ति देवाः: देवता भी नहीं पा सकते।
इस मंत्र का अर्थ है कि भक्ति, जप, ध्यान, और पूजा के द्वारा जब व्यक्ति अपने पापों को धोता है, तब भी देवता तुम्हारे दिव्य स्वरूप को पूर्णतः नहीं जान सकते। यह मंत्र दिव्यता की अगम्य और अव्यक्त प्रकृति को दर्शाता है, जो मनुष्य और देवता दोनों के लिए अज्ञेय है।
चिदानन्दकन्द हसन्मन्दमन्द, शरच्चन्द्र कोटिप्रभापुन्ज बिम्बं |
- चिदानन्दकन्द: चैतन्य और आनंद का स्रोत।
- हसन्मन्दमन्द: मंद मुस्कान के साथ।
- शरच्चन्द्र कोटिप्रभापुन्ज बिम्बं: शरद पूर्णिमा के चंद्रमा के कोटि (करोड़ों) प्रकाश के समान।
इस मंत्र का अर्थ है कि दिव्यता, जो चैतन्य और आनंद का स्रोत है, और जिसका स्वरूप शरद पूर्णिमा के चंद्रमा के प्रकाश के करोड़ों गुना उज्ज्वल है, वह हल्की मुस्कान के साथ प्रकट होता है। यह मंत्र दिव्यता के उज्ज्वल, आनंदमय, और शांतिपूर्ण स्वरूप को व्यक्त करता है। ये मंत्र आध्यात्मिक साधना के महत्व और दिव्य स्वरूप की अद्वितीयता तथा उसके उज्ज्वल प्रकाश की भव्यता को दर्शाते हैं।
मुनिनां कवीनां हृदि द्योतयन्तं, स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवाः ।।5।।
महामेघकाली सुरक्तापि शुभ्रा, कदाचिद्विचित्रा कृतिर्योगमाया |
मुनिनां कवीनां हृदि द्योतयन्तं, स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवाः ।।
- मुनिनां कवीनां हृदि द्योतयन्तं: साधकों और कवियों के हृदय में प्रकाशित होता हुआ।
- स्वरूपं त्वदीयं: तुम्हारा स्वरूप।
- न विन्दन्ति देवाः: देवता भी नहीं पा सकते।
यह मंत्र दिखाता है कि दिव्य स्वरूप, जो साधकों और कवियों के हृदय में प्रकाशित होता है, वह देवताओं द्वारा भी समझा नहीं जा सकता। यह इस अमूर्त स्वरूप की अतीत, वर्तमान और भविष्य के सम्पूर्ण ज्ञान को संकेतित करता है जो साधकों के मन में प्रवेश करता है।
महामेघकाली सुरक्तापि शुभ्रा, कदाचिद्विचित्रा कृतिर्योगमाया |
- महामेघकाली: महाकाल के समय में विचार करने वाली।
- सुरक्तापि शुभ्रा: देवताओं के शुभ विचारों से परिपूर्ण।
- कदाचिद्विचित्रा: किसी समय विचित्रता से युक्त।
- कृतिर्योगमाया: कला, योग, और अद्वितीय माया।
इस मंत्र के माध्यम से दिखाया गया है कि दिव्यता, जो विचारों के समय में विचार करती है और देवताओं के शुभ विचारों से परिपूर्ण है, कभी-कभी अद्वितीयता से युक्त होती है। यह मंत्र उस दिव्य स्वरूप की अद्वितीयता और असंभवी गुणों को व्यक्त करता है जो दिव्यता के साथ सम्पर्क करने वाले व्यक्ति को अनुभव करते हैं।
न बाला न वृद्धा न कामातुरापि, स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवाः ।। 6।।
क्षमास्वापराधं महागुप्तभावं, मय लोकमध्ये प्रकाशीकृतंयत् |
न बाला न वृद्धा न कामातुरापि, स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवाः ।।
- न बाला न वृद्धा न कामातुरापि: न बच्चा, न बूढ़ा, न ही काम से पीड़ित।
- स्वरूपं त्वदीयं: तुम्हारा स्वरूप।
- न विन्दन्ति देवाः: देवता भी नहीं पा सकते।
इस मंत्र का अर्थ है कि दिव्य स्वरूप, जो न बच्चा है, न बूढ़ा है, और न ही काम से पीड़ित है, ऐसा स्वरूप है जिसे देवता भी नहीं जान पाते। यह मंत्र दिव्यता की अकालिकता और अतीन्द्रियता को दर्शाता है, जो मानवीय अनुभवों और सीमाओं से परे है।
क्षमास्वापराधं महागुप्तभावं, मय लोकमध्ये प्रकाशीकृतंयत् |
- क्षमास्वापराधं: अपराध को क्षमा करो।
- महागुप्तभावं: महान गुप्त भाव, या गहरी छिपी हुई स्थिति।
- मय लोकमध्ये प्रकाशीकृतंयत्: मेरे द्वारा इस लोक में प्रकाशित किया गया।
इस मंत्र का अर्थ है कि भक्त दिव्यता से अनुरोध करता है कि उसके द्वारा किए गए किसी भी अपराध को क्षमा कर दिया जाए, जिससे वह गहरी छिपी हुई दिव्यता के भाव को इस लोक में प्रकाशित कर सके। यह मंत्र मनुष्य और दिव्यता के बीच के संबंध को दर्शाता है, जहां भक्त दिव्य कृपा और क्षमा की आशा रखता है।
तवध्यान पूतेन चापल्यभावात्, स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवाः ।। 7।।
यदि ध्यान युक्तं पठेद्यो मनुष्य, स्तदा सर्वलोके विशालो भवेच्च |
तवध्यान पूतेन चापल्यभावात्, स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवाः ।।
- तवध्यान पूतेन: तुम्हारे ध्यान से पवित्र।
- चापल्यभावात्: चंचलता के भाव से।
- स्वरूपं त्वदीयं: तुम्हारा स्वरूप।
- न विन्दन्ति देवाः: देवता भी नहीं पा सकते।
इस मंत्र का अर्थ है कि तुम्हारे ध्यान से पवित्र होकर और चंचलता के भाव से मुक्त होकर, फिर भी देवता तुम्हारे सच्चे स्वरूप को नहीं जान पाते। यह मंत्र ध्यान और एकाग्रता के महत्व को बताता है और यह भी कि दिव्य स्वरूप की पूर्णता को समझना मनुष्य और देवता दोनों के लिए दुर्लभ है।
यदि ध्यान युक्तं पठेद्यो मनुष्य, स्तदा सर्वलोके विशालो भवेच्च |
- यदि ध्यान युक्तं पठेद्यो मनुष्य: जो मनुष्य ध्यानपूर्वक पढ़ता है।
- स्तदा सर्वलोके विशालो भवेच्च: तब वह सभी लोकों में महान हो जाता है।
इस मंत्र का अर्थ है कि जो व्यक्ति ध्यान के साथ इन शिक्षाओं का अध्ययन करता है, वह सभी लोकों में विशाल और महान हो जाता है। यह ध्यान और आत्म-अध्ययन के महत्व को बताता है और इसे आत्मिक विकास के लिए आवश्यक माना गया है।
गृहे चाष्ट सिद्धिर्मृते चापि मुक्ति, स्वरूपं त्वदीयं न विन्दन्ति देवाः ।।8।।
- गृहे चाष्ट सिद्धिर्: घर में आठ सिद्धियाँ।
- मृते चापि मुक्ति: मृत्यु पर भी मुक्ति।
- स्वरूपं त्वदीयं: तुम्हारा स्वरूप।
- न विन्दन्ति देवाः: देवता भी नहीं पा सकते।
इस मंत्र का अर्थ गहरा है और यह दिव्य स्वरूप की विशेषताओं को उजागर करता है। इस मंत्र का कहना है कि भक्त के जीवन में आठ प्रकार की सिद्धियाँ (आध्यात्मिक शक्तियाँ या पूर्णताएँ) प्राप्त हो सकती हैं और मृत्यु के समय भी मुक्ति (मोक्ष) प्राप्त हो सकती है, फिर भी देवता भी उस दिव्य स्वरूप को पूर्णतः नहीं जान पाते, जो इन सिद्धियों और मुक्ति का स्रोत है।
यह मंत्र इस बात को प्रकट करता है कि आध्यात्मिक उन्नति और अंतिम मोक्ष की प्राप्ति के लिए दिव्य स्वरूप का ध्यान आवश्यक है। यह दिव्यता की अगम्यता और उसके स्वरूप की अद्वितीयता को भी रेखांकित करता है।
यह भी पढ़ें –
शिव स्तुति: मंत्र, श्लोक, और अर्थ सहित | Shiv Stuti Mantra, Shlok, Aur Arth Sahit
महाकाली स्तोत्र क्या है और इसका महत्व क्या है?
महाकाली स्तोत्र देवी काली की उपासना के लिए एक पवित्र और शक्तिशाली स्तोत्र है, जो उनकी महिमा, शक्ति, और कृपा का गुणगान करता है। यह भक्तों को न केवल आध्यात्मिक शक्ति प्रदान करता है बल्कि भय, संशय और नकारात्मक शक्तियों से मुक्ति दिलाने में भी सहायक होता है।
महाकाली स्तोत्र के जाप से भक्तों को क्या लाभ होता है?
महाकाली स्तोत्र का जप या पाठ करने वाले भक्त आंतरिक शांति, मानसिक स्थिरता और जीवन में सकारात्मक दिशा प्राप्त करते हैं। यह उन्हें आध्यात्मिक, मानसिक और बाधाओं को पार करने में सहायता प्रदान करता है।
महाकाली स्तोत्र का पाठ करते समय विशेष विधि का पालन करना क्यों महत्वपूर्ण है?
हां, महाकाली स्तोत्र का पाठ करते समय सही उच्चारण और विधि का पालन करना अत्यंत महत्वपूर्ण है। यदि संभव हो तो, इसे एक अनुभवी गुरु या पंडित से मार्गदर्शन प्राप्त करके करना चाहिए।
क्या देवता महाकाली के दिव्य स्वरूप को पूरी तरह से समझ सकते हैं?
नहीं, देवता भी महाकाली के दिव्य स्वरूप को पूरी तरह से समझ नहीं सकते, जो उनके गहन और अव्याख्यायित प्रकृति को दर्शाता है।
6 thoughts on “Mahakali Stotra | महाकाली स्तोत्र”