Gyanvapi Case: ज्ञानवापी समाचार, ASI सर्वेक्षण, इतिहास

महादेव साथियों, अयोध्या में राम मंदिर का भव्य प्राण प्रतिष्ठा हो चुका है। काशी के ज्ञानवापी मस्जिद विवाद में हिन्दू समुदाय के पक्ष में फैसले आने लगे हैं। वाराणसी की एक अदालत ने 1996 की रिपोर्ट को आधार बनाकर व्यास के तहखाने में पूजा करने की अनुमति प्रदान की है। वाराणसी जिला न्यायालय ने यह महत्वपूर्ण निर्णय दिया है कि हिन्दू समुदाय व्यास में पूजा कर सकता है, जिसे पहले हमारे साथ हुए अन्याय के कारण रोक दिया गया था, और आज न्यायालय ने अपने निर्णय के माध्यम से यह संकेत दिया है कि कुछ लोगों को वहां पूजा करने का अधिकार है। यह भी बताया जा रहा है कि हिन्दू समुदाय लगातार यह दावा कर रहा है कि ज्ञानवापी मस्जिद का निर्माण, मंदिर को ध्वस्त करके किया गया था। मस्जिद के तहखाने में ASI द्वारा किए गए सर्वेक्षण में मंदिर के अवशेष मिले हैं। कई साक्ष्य मिले हैं, इन्हीं आधारों पर, हिन्दू समुदाय तीन प्रमुख मांगें कर रहा है:

पहली, ज्ञानवापी परिसर को काशी विश्वनाथ मंदिर के अंग के रूप में घोषित किया जाए,

दूसरी, ज्ञानवापी मस्जिद को हटाकर वहां एक मंदिर का निर्माण किया जाए, और

तीसरी, मुस्लिम समुदाय को वहां आने से प्रतिबंधित किया जाए।

एएसआई के सर्वेक्षण ने ऐसे प्रमाण पाए हैं जो किसी के भी तर्क को चुनौती देने के लिए पर्याप्त हैं। चलिए आपको बताते हैं कि इस 100 दिनों के लंबे सर्वेक्षण में 321 प्रमाण मिले हैं, जिनमें शिवलिंग, हनुमान, कृष्ण, और विष्णु की मूर्तियां शामिल हैं। रिपोर्ट में यह साफ तौर पर उल्लेखित है कि औरंगजेब के शासन के दौरान 17वीं सदी में ज्ञानवापी की संरचना को नष्ट कर दिया गया था और इसके कुछ हिस्सों को संशोधित किया गया था। मस्जिद के भीतर भी, मंदिर के कई भागों को प्लास्टर और चूने के साथ छिपाया गया था। मस्जिद की दीवारों पर शिव के चार नामों में से तीन पाए गए हैं। सर्वेक्षण के अनुसार, मस्जिद की पश्चिमी दीवार पूरी तरह से हिन्दू मंदिर का एक भाग है। सर्वेक्षण में, पश्चिमी दीवार में स्वस्तिक और त्रिशूल के प्रतीक पाए गए हैं। इसके अलावा, 32 ऐसे पत्थर के स्लैब और पत्थर पाए गए हैं जो पहले हिन्दू मंदिर के अस्तित्व का प्रमाण देते हैं। इन पत्थरों पर तेलुगु और कन्नड़ में अभिलेख लिखे गए हैं। एक पत्थर की प्लेट पर जनार्दन रुद्र और उमेश्वर लिखा है जबकि दूसरे पर महा मुक्ति मंडप लिखा है। मस्जिद के विभिन्न भागों में मंदिर की संरचनाएँ मिली हैं। परिसर में एक खंडित शिवलिंग, एक खंडित नंदी की मूर्ति, एक गदा का सिर, मिश्रित धातु से बनी एक सजावटी मछली, एक नाल, एक खंडित मानव आकृति जो मिट्टी से बनी है, और कम से कम 20 और ऐसे प्रमाण मिले हैं। रिपोर्ट में यह भी विस्तार से बताया गया है कि कैसे मस्जिद परिसर के अंदर हिन्दू आकृतियों और प्रतीकों को लगातार छिपाने, मिटाने या विकृत करने का प्रयास किया गया है। दोस्तों, यदि हम इन सभी प्रमाणों को आधार बनाएं, इतिहास के साक्ष्यों पर विश्वास करें, और पुराणों में लिखी गई बातों को मानें, तो अयोध्या की भांति ज्ञानवापी मामले में भी हिन्दुओं के पक्ष में फैसला होना संदेह से परे है। सच तो यह है कि ज्ञानवापी मामले में मिले सबूत अधिक प्रमाणिक हैं। यह देखना अभी बाकी है कि अदालत 1991 के पूजा स्थल अधिनियम को ध्यान में रखते हुए इस मामले को कैसे संभालती है। हालांकि, कई कानूनी विशेषज्ञों का कहना है कि पूजा स्थल अधिनियम की धारा 4(3) स्पष्ट रूप से कहती है कि यह कानून प्राचीन और ऐतिहासिक स्थलों पर लागू नहीं होता है। इस प्रकार, यदि कोई निर्माण 100 वर्ष से पुराना है, तो उसे प्राचीन स्थल के रूप में माना जाएगा। विशेषज्ञों का कहना है कि यदि अदालत इस प्राचीन स्थल की परिभाषा को स्वीकार करती है, तो यह कानून काशी और मथुरा के मंदिरों पर लागू नहीं होगा।

संक्षेप में समझने के लिए ए.एस.आई (भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण) की रिपोर्ट में ज्ञानवापी मस्जिद परिसर के अंदर हुए सर्वेक्षण के दौरान कई महत्वपूर्ण खोजें की गईं। इन खोजों में शामिल हैं:

  1. शिवलिंग, हनुमानजी, कृष्णजी और भगवान विष्णु की मूर्तियाँ: ये खोजें हिंदू धर्म से संबंधित हैं और इन्हें परिसर के विभिन्न हिस्सों में पाया गया।
  2. मस्जिद की दीवारों पर भगवान शिव के नाम: यह संकेत देता है कि मस्जिद की कुछ संरचनाएँ हिंदू मंदिर के हिस्से के रूप में मौजूद थीं।
  3. पश्चिमी दीवार पूरी तरह से हिन्दू मंदिर का हिस्सा: इस दीवार में स्वस्तिक और त्रिशूल के प्रतीक पाए गए, जो हिंदू धर्म के प्रतीक हैं।
  4. 32 पत्थर के स्लैब और पत्थर: इन पर तेलुगु और कन्नड़ में अभिलेख लिखे गए हैं, जो हिन्दू मंदिर के अस्तित्व के सबूत प्रदान करते हैं।
  5. खंडित शिवलिंग और नंदी की मूर्ति: ये खोजें भी हिन्दू धर्म से संबंधित हैं और मंदिर के पूर्व अस्तित्व का संकेत देती हैं।
  6. मंदिर की संरचनाओं को छिपाने, मिटाने या विकृत करने की कोशिश: रिपोर्ट में यह भी वर्णित है कि मस्जिद परिसर के अंदर हिन्दू आकृतियों और प्रतीकों को लगातार छिपाने, मिटाने या विकृत करने की कोशिश की गई है।

तेरी डमरू की धुन सुनकर मैं काशी नगरी आई हूं,

मेरे भोले बम भोले में काशी नगरी आई हूं

एक ऐसा नगर जिसका नाम सुनते ही मन में भक्ति की भावना जाग उठती है। विश्व का सबसे प्राचीन शहर, जिसे कहा जाता है कि वह भगवान शिव के त्रिशूल पर विराजमान है। एक ऐसा शहर, जिसका वर्णन ऋग्वेद, रामायण, महाभारत और स्कंद पुराण जैसे सबसे प्राचीन ग्रंथों में मिलता है। जब विश्वामित्र ने राजा हरिश्चंद्र की परीक्षा ली, तब वे काशी में शरण लेने आए थे, जो इस शहर की प्राचीनता को दर्शाता है। स्कंद पुराण, जो 18 पुराणों में सबसे विशाल है, महर्षि व्यास द्वारा रचित है और इसमें कुल सात खंड हैं: महेश्वर खंड, वैष्णव खंड, ब्रह्मा खंड, काशी खंड, अवंत खंड, नगर खंड, और प्रभास खंड। इनमें, काशी खंड में विश्वनाथ मंदिर का विशेष उल्लेख है।

मैं यह सब इसलिए बता रहा हूं क्योंकि कुछ लोग यह आरोप लगाते हैं कि ज्ञानवापी मस्जिद के स्थान पर कभी मंदिर नहीं था और यह सब एक साजिश है। पहले, आइए हम अपने वेदों और पुराणों के अनुसार इस विषय को समझें। स्कंद पुराण का काशी खंड, जो पांचवीं से आठवीं सदी के मध्य काल में माना जाता है, में ज्ञानवापी की महिमा का वर्णन है। विशेष रूप से, अध्याय 34, 36, 37, 38, और 39 में इसकी महिमा पर विशेष रूप से प्रकाश डाला गया है। अध्याय 36 में यह स्पष्ट रूप से लिखा है कि ज्ञानवापी विश्वेश्वर के दक्षिण में स्थित है और नंदी का मुख मस्जिद की ओर है, जिसका अर्थ है कि वहां शिवलिंग था। इसी तरह, अध्याय के 7वें वर्ण में यह कहा गया है कि ज्ञानवापी के दर्शन मात्र से ही मुझे ज्ञान की प्राप्ति हुई, जिससे इसके नाम का अर्थ “ज्ञान का कुआँ” स्पष्ट होता है।

जिस तरह से अयोध्या मामले में, श्री राम भद्राचार्य जी ने वेदों से प्रमाणित किया था कि अयोध्या में राम मंदिर का उल्लेख है। और उन्होंने अपने तरीकों से यह बात अदालत को बताएं कि राम का जन्म उक्त स्थान पर ही हुआ था, जहां पर मंदिर निर्माण प्रस्तावित है।

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मुस्लिम समुदाय का दावा है, दोस्तों, कि जहां आज मस्जिद स्थित है, वहां पहले कभी मंदिर मौजूद नहीं था। वे कहते हैं कि यह स्थान मंदिर के अस्तित्व में कभी नहीं था। लेकिन आज हम आपको बताएंगे कि हमारे पुराणों में ज्ञानवापी मस्जिद के स्थान पर मंदिर की उपस्थिति के बारे में क्या वर्णित है। हम आपको यह भी बताएंगे कि पिछले 1000 वर्षों में काशी आने वाले विदेशी यात्रियों ने इस बारे में क्या कहा है, जो खुद उस समय काशी में मंदिरों के बजाय मस्जिद के निर्माण के गवाह थे। हम आपको इस अवधि में मंदिर के कितनी बार ध्वस्त होने के बारे में भी जानकारी देंगे।

इस अवधि के दौरान, एक ब्रिटिश यात्री पीटर मंडी भारत आए। उनकी पुस्तक “द ट्रैवल्स ऑफ पीटर मंडी इन यूरोप एंड एशिया 1608 टू 1667” में उन्होंने बनारस की अपनी यात्रा का वर्णन किया है। पुस्तक में उन्होंने शिव पूजा पर भी विस्तार से चर्चा की है। पीटर मंडी ने बनारस के बारे में लिखा कि यह क्षत्रियों, ब्राह्मणों, और बनियों का एक बस्ती है। उन्होंने काशी विश्वनाथ महादेव मंदिर को सबसे बड़ा मंदिर बताया, जहां लोग पूजा करने के लिए दूर-दूर से आते हैं। पीटर मंडी ने अपनी पुस्तक में यह भी उल्लेख किया है कि वे खुद मंदिर के अंदर गए जहां बीच में एक ऊँची जगह पर एक बड़ी शिला है जिसे लोग गंगा नदी से पानी और दूध चढ़ाते हैं। वहां के लोग इसे महादेव कहते हैं। वह एक ब्रिटिश यात्री थे और उस समय के अन्य यात्रियों की तरह, वह दुनिया की यात्रा कर रहे थे और अपने अनुभवों को साझा कर रहे थे।

18वीं सदी में भारत आए अंग्रेजी लेखक जेम्स प्रिंस ने अपनी पुस्तक ‘बनारस इलस्ट्रेटेड’ में ज्ञानवापी मस्जिद क्षेत्र के इतिहास का विस्तार से वर्णन किया है। प्रिंस ने मेटल लिथोग्राफी तकनीक का उपयोग करके दिखाया कि मस्जिद का निर्माण पूर्व में मौजूद मंदिर को ध्वस्त करके किया गया था। उन्होंने इस पुस्तक में उस क्षेत्र में मौजूद कई हिंदू कलाकृतियों की उपस्थिति के बारे में भी चर्चा की, जो 200 वर्ष पुरानी थीं। प्रिंस ने यह दावा हवा में नहीं किया बल्कि वैज्ञानिक सर्वेक्षण के माध्यम से इसे साबित किया कि मंदिर को न केवल एक बार बल्कि कई बार ध्वस्त किया गया था।

शर्की सुल्तानत के शासन का आगमन हुआ और इस शर्की सुल्तानत के तीसरे सुल्तान, महमूद शाह शर्की ने, 1436 ईसवी से 1558 ईसवी के बीच पुनः मंदिरों का विध्वंस आरंभ कर दिया। इस समय, काशी विश्वनाथ मंदिर का भी फिर से विध्वंस किया गया। यह काशी विश्वनाथ मंदिर का दूसरी बार विध्वंस था और उसके पश्चात् अगले डेढ़ वर्ष तक वहाँ कोई मंदिर नहीं था। तब सम्राट अकबर ने भारत पर शासन आरंभ किया। अकबर के दरबार के नौ रत्नों में से एक, तोड़रमलजी ने अपने पुत्र द्वारा मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया। इसके बाद, 1632 में, शाहजहाँ ने इसे ध्वस्त करने के लिए एक सेना बल भेजा, किन्तु भीड़ के प्रबल विरोध के कारण उन्हें वापस लौटना पड़ा। बाद के वर्षों में, शाहजहाँ के बीमार पड़ने के बाद, उनका प्रभाव कम होने लगा। बाद में, वही शाहजहाँ का पुत्र औरंगजेब अपने भाइयों को मारकर राजा बना। औरंगजेब अब तक के मुगल शासकों में सबसे अधिक कट्टर और क्रूर था। जैसे ही औरंगजेब को पता चला कि बनारस के कई स्कूलों में बच्चे भारतीय संस्कृति और धर्म का अध्ययन करते हैं, औरंगजेब ने इन स्कूलों और कॉलेजों के विध्वंस का आदेश दिया। वही औरंगजेब जिसने अपने 49 वर्षों के शासनकाल में देश भर में सैकड़ों मंदिरों का विध्वंस किया, वही औरंगजेब जिसने हिन्दुओं पर जजिया कर लगाया, वही औरंगजेब जिसने असंख्य हिन्दुओं की हत्या की। हम केवल ऐतिहासिक तथ्यों की चर्चा कर रहे हैं, चाहे वे हजारों वर्ष पूर्व लिखे गए हों। चाहे प्राचीन पुराण हों या सैकड़ों वर्ष पूर्व आए विदेशी यात्रियों की बातें। यह घटना ज्ञानवापी मस्जिद में हुई। अब हम मंदिर के निर्माण के इतिहास और इस मंदिर को न केवल एक बार बल्कि कई बार नष्ट करने वाले आक्रमणों की चर्चा करते हैं। खैर, काशी विश्वनाथ मंदिर के बारे में सबसे मजबूत प्रमाण या इतिहासकारों की सामान्य राय यह है कि इसका निर्माण 11वीं सदी में हुआ था। राजा विक्रमादित्य ने इसे मंजूरी दी, लेकिन इसके निर्माण के कुछ वर्षों के भीतर ही, 12वीं सदी में इस पर पहला आक्रमण हुआ। हसन निजामी, जो 12वीं सदी में जन्मे एक फारसी भाषा के कवि और इतिहासकार थे, ने अपनी पुस्तक ताज उल मासिर में विश्वनाथ मंदिर पर आक्रमण के बारे में लिखा है। निजामी विस्तार से लिखते हैं कि 1194 में कन्नौज के राजा जैचंद को हराने के बाद, मोहम्मद घोरी के जनरल कुतुबुद्दीन ऐबक ने बनारस की ओर प्रस्थान किया। कहा जाता है कि बनारस पहुँचने के बाद, इन लोगों ने कई मंदिरों का विध्वंस किया। काशी मंदिर पर भी आक्रमण हुआ और इसे पूरी तरह से ध्वस्त कर दिया गया। यह काशी विश्वनाथ मंदिर पर पहला आक्रमण था। इसके बाद, इल्तुतमिश के समय में, हिन्दू व्यापारियों ने काशी में कई ध्वस्त मंदिरों का पुनर्निर्माण आरंभ किया, औरंगजेब की कट्टर सोच के कारण देश में कई मंदिरों का विध्वंस हुआ और बाबा विश्वनाथ का मंदिर भी उनमें से एक था। एक और बात यह है कि औरंगजेब ने विश्वनाथ मंदिर को ध्वस्त करने का भी आदेश जारी किया था। यह आदेश आज भी कोलकाता की एशियाटिक लाइब्रेरी में संरक्षित है। मंदिर के विध्वंस की घटना का पूरा विवरण मसिद आलमगिरी में दिया गया है, जो उस समय के लेखक साकी मुस्तैद खान द्वारा लिखित था।

भोलेनाथ, जिन्होंने इस सृष्टि की रचना की है, उन्हें कोई नष्ट नहीं कर सकता। यही आध्यात्मिक सत्य और शाश्वत विश्वास का केंद्र है। औरंगजेब की क्रूरता के 100 वर्षों के बाद, इतिहास ने देखा कि कैसे आस्था और समर्पण ने विनाश की गहराइयों से नई उम्मीद की किरण निकाली। 1777-80 के दौरान, इंदौर की महान शासिका रानी अहिल्याबाई होलकर ने ज्ञानवापी मस्जिद के आस-पास की जमीन खरीदी और स्थानीय नवाब से बातचीत करके वहां एक नया मंदिर बनवाया। उनकी इस पहल ने भक्ति और श्रद्धा की एक नई लहर को जन्म दिया।

इसके बाद, पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह ने उसी परिसर में विश्वनाथ मंदिर का निर्माण करवाया। ग्वालियर की महारानी बैजाबाई ने ज्ञानवापी का मंडप बनवाया और नेपाल के महाराजा ने वहां एक विशाल नंदी मूर्ति स्थापित की। नंदी मूर्ति के चेहरे का उल्टा होने का रहस्य इस बात का प्रतीक है कि किसी भी विध्वंस के बावजूद, आस्था और भक्ति अटूट रहती है।

हिन्दू समुदाय ने ज्ञानवापी मस्जिद के लिए अपना संघर्ष जारी रखा। यह संघर्ष 1810 तक जारी रहा, जब बनारस में पदस्थ अंग्रेजी अधिकारी एम वाटसन ने वाइस प्रेसिडेंट इन काउंसिल को एक पत्र लिखा, जिसमें मांग की गई थी कि ज्ञानवापी परिसर को हिन्दुओं को हमेशा के लिए सौंप दिया जाए। हालांकि, यह मांग कभी पूरी नहीं हुई। इस प्रकार के इतिहास में, हम देखते हैं कि भक्ति, श्रद्धा, और आस्था के बल पर बार-बार नवीनीकरण और पुनर्जागरण होता है, जो दर्शाता है कि अंततः आध्यात्मिक शक्ति ही सर्वोपरि है।

काशी विश्वनाथ मंदिर के विध्वंस और उसके पुनर्निर्माण की कहानी एक लंबे इतिहासिक संघर्ष और आस्था की गवाही देती है। यह कहानी निम्नलिखित चरणों में बताई गई है:

  1. प्रारंभिक निर्माण: इतिहासकारों का मानना है कि काशी विश्वनाथ मंदिर का मूल निर्माण 11वीं सदी में हुआ था, जिसे राजा विक्रमादित्य ने मंजूरी दी थी।
  2. पहला विध्वंस (1194): 12वीं सदी में, कुतुबुद्दीन ऐबक के नेतृत्व में मोहम्मद गौरी की सेनाओं ने मंदिर को पहली बार ध्वस्त किया।
  3. पुनर्निर्माण और दूसरा विध्वंस (1436-1558): इल्तुतमिश के शासनकाल के दौरान हिंदू व्यापारियों ने काशी विश्वनाथ मंदिर सहित कई मंदिरों का पुनर्निर्माण किया। हालांकि, शर्की सल्तनत के दौरान इसे फिर से ध्वस्त किया गया।
  4. तीसरा विध्वंस (1669): औरंगजेब, जो सभी मुगल शासकों में सबसे कट्टर था, ने मंदिर को ध्वस्त कर दिया और उसके स्थान पर एक मस्जिद बनवाई।
  5. पुनर्निर्माण (1777-80): इंदौर की रानी अहिल्याबाई होलकर ने मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया, जिसे आज भी काशी विश्वनाथ मंदिर के रूप में जाना जाता है।
  6. अद्यतन योगदान: पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह और ग्वालियर की महारानी बैजाबाई ने मंदिर परिसर में योगदान दिया, जिसमें नेपाल के महाराजा द्वारा स्थापित विशाल नंदी मूर्ति भी शामिल है।

स्वतंत्रता के दशकों बाद भी, ज्ञानवापी मस्जिद और काशी विश्वनाथ मंदिर के आसपास के क्षेत्र में स्थित ऐतिहासिक और धार्मिक स्थलों की मरम्मत और संरक्षण को लेकर सरकारों की ओर से ध्यानाकर्षण नहीं होना वाकई दुखद है। 1984 में, जब विश्व हिन्दू परिषद ने अयोध्या, मथुरा, और काशी के तीन प्रमुख मंदिरों का मुद्दा उठाया, तो ज्ञानवापी मस्जिद का मुद्दा भी पहली बार सामने आया। हालांकि, इस आंदोलन का मुख्य फोकस अयोध्या पर था।

1991 में, पहली बार वाराणसी अदालत में ज्ञानवापी परिसर में पूजा की अनुमति की मांग के साथ भगवान विश्वेश्वर की ओर से एक याचिका दायर की गई। इस आंदोलन के दौरान, केंद्रीय सरकार ने पूजा स्थल अधिनियम लागू किया, जिसके अनुसार 1947 के बाद किसी भी धार्मिक स्थल की संरचना में परिवर्तन नहीं किया जा सकता। इस कानून ने ज्ञानवापी मस्जिद के मामले को जटिल बना दिया।

1998 में, जब यह मामला बनारस की सिविल अदालत में पहुँचा, तो मुस्लिम पक्ष ने हाई कोर्ट का रुख किया। हाई कोर्ट ने सिविल अदालत में सुनवाई पर रोक लगा दी, और इसके बाद 22 वर्षों तक मामले पर कोई सुनवाई नहीं हुई। हालांकि, 2019 में, विजयशंकर रस्तोगी ने ज्ञानवापी परिसर का एएसआई सर्वेक्षण करने की मांग के साथ वाराणसी जिला अदालत में एक याचिका दायर की।

अप्रैल 2021 में, वाराणसी जिला अदालत ने मामले को फिर से खोला और मस्जिद के सर्वेक्षण की अनुमति दी। इस पर, मुस्लिम पक्ष ने हाई कोर्ट में चुनौती दी, लेकिन अंततः हिन्दू पक्ष ने सत्र न्यायालय से विवादित स्थल को सील करने की मांग की। सुप्रीम कोर्ट ने जहाँ शिवलिंग पाया गया था उस स्थान को सुरक्षित रखने का आदेश दिया।

2023 में, जिला न्यायाधीश डॉ. अजय कृष्ण ने पूरे ज्ञानवापी परिसर का सर्वेक्षण करने का आदेश दिया, जिसके बाद सर्वेक्षण का कार्य पूरा हो गया और रिपोर्ट अदालत में पेश की गई। हिन्दू पक्ष इस रिपोर्ट से खुश है और दावा कर रहा है कि विवादित स्थल पर मंदिर का अस्तित्व था। इस मामले की अदालती कार्रवाई और सर्वेक्षण के नतीजे धार्मिक स्थलों के इतिहास और उनके संरक्षण को लेकर समाज में व्याप्त गहरी भावनाओं को दर्शाते हैं।

  1. 1991 में पहली याचिका: ज्ञानवापी मस्जिद परिसर में पूजा करने की अनुमति मांगते हुए स्वयंभू ज्योतिर्लिंग भगवान विश्वेश्वर की ओर से वाराणसी अदालत में पहली बार एक याचिका दायर की गई।
  2. पूजा स्थल अधिनियम, 1991: केंद्र सरकार ने एक कानून लागू किया जिसके अनुसार 1947 के बाद किसी भी धार्मिक स्थल की संरचना में कोई बदलाव नहीं किया जा सकता।
  3. 1998 में मुकदमा: मुस्लिम पक्ष ने हाई कोर्ट में अपील की, जिसमें कहा गया कि वाराणसी सिविल अदालत में चल रही कार्रवाई पूजा स्थल अधिनियम का उल्लंघन है। हाई कोर्ट ने सिविल अदालत से सुनवाई पर रोक लगा दी।
  4. 22 वर्षों तक कोई सुनवाई नहीं: अगले 22 वर्षों तक मामले पर कोई सुनवाई नहीं हुई।
  5. 2019 में नई याचिका: विजयशंकर रस्तोगी ने वाराणसी जिला अदालत में एक नई याचिका दायर की, जिसमें पूरे ज्ञानवापी परिसर का एएसआई सर्वेक्षण करने की मांग की गई।
  6. 2020 में हाई कोर्ट का आदेश: इलाहाबाद हाई कोर्ट ने सिविल अदालत की कार्रवाई पर रोक लगा दी।
  7. 2021 में सर्वेक्षण की अनुमति: वाराणसी जिला अदालत ने मस्जिद के सर्वेक्षण की अनुमति दी। मुस्लिम पक्ष ने हाई कोर्ट में अपील की, लेकिन इस बार उनकी याचिका खारिज कर दी गई।
  8. 2022 में सुप्रीम कोर्ट का आदेश: सुप्रीम कोर्ट ने मस्जिद के अंदर जहाँ शिवलिंग पाया गया था उस स्थान को सुरक्षित रखने का आदेश दिया।

ज्ञानवापी विवाद का इतिहास और इसके आसपास की कानूनी लड़ाइयाँ न केवल एक धार्मिक स्थल के भौतिक स्वरूप को लेकर हैं, बल्कि यह विवाद भारतीय समाज में आस्था, संस्कृति और इतिहास की गहराई को भी दर्शाता है। इस विवाद ने दिखाया है कि कैसे सदियों से, विविध धार्मिक और सामाजिक परिस्थितियों के बीच, भारतीय समाज ने अपने धार्मिक स्थलों के प्रति अटूट आस्था और समर्पण दिखाया है।

काशी और अयोध्या जैसे मामलों में देखे गए संघर्ष यह बताते हैं कि आस्था की जड़ें कितनी गहरी हैं और कैसे यह समय के साथ और मजबूत होती जाती हैं। यह विवाद समय के साथ न्याय की आशा को भी दर्शाता है, जहाँ धार्मिक स्थलों के इतिहास और उनके महत्व को पहचानने की मांग की जाती है।

औरंगजेब द्वारा मंदिर को तोड़कर मस्जिद बनाने की क्रूरता और उसके बाद भी हिन्दू समाज का कभी हार न मानने का दृढ़ संकल्प, यह दिखाता है कि आस्था और संस्कृति के संरक्षण के लिए लड़ाई कितनी महत्वपूर्ण है। डॉ. राजेंद्र प्रसाद के शब्दों में, सृजन की शक्ति हमेशा विनाश की शक्ति से अधिक होती है, यह संदेश हमें उम्मीद और साहस प्रदान करता है।

अंततः, ज्ञानवापी विवाद पर हमारी चर्चा न केवल इतिहास और कानूनी लड़ाई का विश्लेषण है, बल्कि यह भारतीय समाज की आस्था, सहिष्णुता, और न्याय की आशा के प्रति समर्पण को भी दर्शाता है। इस विवाद का परिणाम जो भी हो, यह स्पष्ट है कि आस्था और इतिहास के प्रति समर्पण हमेशा भारतीय समाज के केंद्र में रहेगा।


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