दुर्गा सप्तशती, जिसे देवी माहात्म्यम के नाम से भी जाना जाता है, हिन्दू धर्म में एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है। यह मार्कण्डेय पुराण का एक भाग है और इसमें 700 श्लोक होते हैं। दुर्गा सप्तशती का पाठ मुख्य रूप से नवरात्रि के दौरान किया जाता है, जो देवी दुर्गा की उपासना का एक विशेष समय होता है।
इस ग्रंथ में देवी की विभिन्न रूपों – महाकाली, महालक्ष्मी, और महासरस्वती की पूजा और महत्ता का वर्णन है। इसके श्लोक देवी की विजय की कहानियाँ सुनाते हैं, जिसमें उन्होंने विभिन्न असुरों और दैत्यों का विनाश किया और धर्म की स्थापना की।
दुर्गा सप्तशती का पाठ करने की विधि में संकल्प, न्यास, कवच, अर्गला स्तोत्र, कीलक स्तोत्र, रहस्यम, देवी सप्तशती के पाठ, और देवी सुक्तम जैसे अंग शामिल हैं। पाठ की शुरुआत में देवी को संकल्प के साथ आह्वान किया जाता है और इसके बाद विभिन्न श्लोकों के माध्यम से देवी की आराधना की जाती है। पाठ के अंत में, देवी की आरती की जाती है और प्रसाद वितरित किया जाता है।
यह पाठ भक्तों को न केवल आध्यात्मिक शक्ति प्रदान करता है बल्कि माना जाता है कि यह जीवन की कठिनाइयों से लड़ने की शक्ति भी प्रदान करता है।
मधु और कैटभ का वध
दुर्गा सप्तशती के पहले अध्याय में मधु और कैटभ नामक दो असुरों का वध का वर्णन है, जो महाविष्णु के कानों के मैल से उत्पन्न हुए थे। इस अध्याय की कहानी न केवल भौतिक शक्ति की लड़ाई को दर्शाती है बल्कि आध्यात्मिक जागरूकता और आत्म-साक्षात्कार के महत्व को भी प्रकट करती है।
कहानी के अनुसार, जब ब्रह्मा विष्णु की नाभि से कमल के फूल पर बैठे हुए सृष्टि की रचना कर रहे थे, तब मधु और कैटभ ने उन पर आक्रमण कर दिया। ब्रह्मा ने तब महाविष्णु की प्रार्थना की, जो उस समय योगनिद्रा में थे। देवी महामाया (योगनिद्रा) ने विष्णु की आँखों से अपना मायाजाल हटा लिया, जिससे विष्णु जाग गए और उन्होंने असुरों से युद्ध किया।
युद्ध एक लंबे समय तक चला, और अंत में विष्णु ने एक चाल चली। उन्होंने मधु और कैटभ को एक वरदान मांगने को कहा। असुरों ने विष्णु को चुनने दिया कि वह वरदान क्या हो। विष्णु ने उनसे अपनी मृत्यु की इच्छा व्यक्त की, लेकिन केवल उस जगह पर जहाँ पृथ्वी पर पानी न हो। विष्णु ने उन्हें अपनी जांघों पर ले लिया, जो पृथ्वी पर एकमात्र ‘शुष्क’ स्थान था, और उनका वध कर दिया।
इस अध्याय के माध्यम से, देवी महामाया की अपराजेय शक्ति और उनके द्वारा सृष्टि के संरक्षण का महत्वए थे। जब ब्रह्मा विष्णु की नाभि कमल से सृष्टि की रचना कर रहे थे, तब मधु और कैटभ ने ब्रह्मा को मारने का प्रयास किया। इस संकट के समय, ब्रह्मा ने महाविष्णु से मदद मांगी।
महाविष्णु उस समय योगनिद्रा में थे, जो देवी महामाया का एक रूप है। ब्रह्मा ने योगनिद्रा की स्तुति की, जिससे प्रभावित होकर देवी ने विष्णु की चेतना को जागृत किया। विष्णु जागने पर मधु और कैटभ से युद्ध करने लगे। यह युद्ध हजारों वर्षों तक चला।
अंत में, महाविष्णु ने चतुराई से मधु और कैटभ को वरदान मांगने का प्रस्ताव दिया। असुरों ने विष्णु को वरदान मांगने के लिए कहा। विष्णु ने उनसे उनकी मृत्यु का वरदान मांगा, लेकिन उन्होंने एक शर्त रखी कि उनकी मृत्यु उस स्थान पर हो, जहाँ पर पृथ्वी न हो। विष्णु ने अपनी जांघों को पृथ्वी से इतर मानते हुए उन्हें अपनी जांघों पर लिटा दिया और उनका वध कर दिया।
इस प्रकार, पहला अध्याय मधु और कैटभ के वध के माध्यम से देवी के शक्तिशाली और सृष्टि के संरक्षण के रूप में उनके महत्व को दर्शाता है। यह देवी महामाया की महिमा और उनकी सृष्टि में अहम भूमिका को भी प्रकाशित करता है।
महिषासुर की सेना का वध
दुर्गा सप्तशती के दूसरे अध्याय में महिषासुर की सेना के वध का वर्णन है। महिषासुर, एक महाबली असुर था जिसने तपस्या के बल पर ब्रह्मा से अमरता का वरदान प्राप्त किया था। हालांकि, उसके वरदान में एक शर्त थी कि वह केवल एक महिला द्वारा ही मारा जा सकता था। महिषासुर इस वरदान को अपनी अजेयता का प्रमाण मानते हुए देवताओं पर विजय प्राप्त कर लेता है और स्वर्ग पर अधिकार जमा लेता है।
देवताओं की दुर्दशा देखकर, ब्रह्मा, विष्णु, और महेश्वर (शिव) ने अपनी शक्तियों को संयोजित किया और देवी दुर्गा की सृष्टि की, जो एक अद्वितीय योद्धा थीं। देवी दुर्गा को तीनों देवताओं सहित अन्य देवताओं द्वारा उनके अस्त्र-शस्त्र प्रदान किए गए, ताकि वह महिषासुर और उसकी सेना का संहार कर सकें।
दूसरे अध्याय में महिषासुर की सेना के साथ देवी दुर्गा के युद्ध का विस्तृत वर्णन है। देवी ने अपने असाधारण पराक्रम और शक्ति का प्रदर्शन करते हुए महिषासुर की सेना के विभिन्न योद्धाओं – चिक्षुर, चमर, उदग्र, महाहनु, असिलोमा, बास्कल आदि को युद्ध में पराजित किया।
इस अध्याय का संदेश यह है कि दिव्य शक्ति और धार्मिकता अंततः अधर्म और अन्याय पर विजयी होती है। यह अध्याय देवी दुर्गा की असीम शक्ति और साहस को भी प्रकाशित करता है, जो सभी बुराइयों और असुरों के विनाश की प्रेरणा बनती हैं।
महिषासुर का वध
दुर्गा सप्तशती के तीसरे अध्याय में महिषासुर, भैंसे के रूप में एक शक्तिशाली असुर का वध का विवरण है। महिषासुर ने अपनी शक्ति और पराक्रम से देवताओं को पराजित कर दिया था और स्वर्ग पर अपना अधिकार जमा लिया था। उसके अत्याचार से पीड़ित होकर देवताओं ने देवी दुर्गा की शरण ली।
देवी दुर्गा ने महिषासुर के विरुद्ध युद्ध करने का निर्णय लिया। युद्ध के दौरान, महिषासुर ने अपनी शक्तियों का पूरा उपयोग किया और विभिन्न रूपों – महिष (भैंस), सिंह, हाथी, और आदमी – में परिवर्तित होता रहा, लेकिन देवी दुर्गा ने हर बार उसे पराजित किया।
अंत में, जब महिषासुर ने भैंसे का रूप धारण किया और देवी पर तीव्र आक्रमण किया, तब देवी ने अपने त्रिशूल से उसकी छाती में वार किया और उसे मार डाला। महिषासुर के वध के साथ ही देवी ने स्वर्ग को असुरों के अत्याचार से मुक्त कर दिया और देवताओं को उनका राज्य वापस दिला दिया।
महिषासुर के वध की यह कथा बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है। यह अध्याय देवी की अद्वितीय शक्ति और पराक्रम को दर्शाता है, जिसने देवताओं को उनके दुखों से मुक्त कराया और धर्म की स्थापना की। यह कथा नवरात्रि उत्सव के दौरान विशेष रूप से स्मरण की जाती है, जहां देवी दुर्गा की भक्ति और पूजा की जाती है।
देवी स्तुति
दुर्गा सप्तशती के चौथे अध्याय में देवी की स्तुति का विवरण है। यह अध्याय महिषासुर के वध के बाद शुरू होता है, जब देवी दुर्गा ने असुरों के अत्याचार से देवताओं को मुक्त कर दिया और उन्हें उनका राज्य वापस दिला दिया। देवी की इस विजय के उपलक्ष्य में देवता उनकी स्तुति करते हैं।
इस अध्याय में देवताओं द्वारा देवी के विभिन्न रूपों और उनकी अद्भुत शक्तियों की प्रशंसा की जाती है। देवता देवी को संसार की सृष्टि, पालन, और संहार करने वाली महाशक्ति के रूप में नमन करते हैं। वे देवी की महिमा को स्वीकार करते हैं और उन्हें जगत की सर्वोच्च दिव्य शक्ति मानते हैं।
इस स्तुति में देवी को शक्ति, ज्ञान, और समृद्धि की देवी के रूप में वर्णित किया गया है। देवताओं द्वारा देवी की यह स्तुति समर्पण और भक्ति की भावना से परिपूर्ण होती है। वे देवी से आशीर्वाद और संरक्षण की प्रार्थना करते हैं, ताकि वे सदा सुखी और शांति से जीवन व्यतीत कर सकें।
चौथे अध्याय का महत्व इस बात में है कि यह भक्तों को देवी की उपासना में गहराई तक जाने और उनकी अनंत शक्तियों की स्तुति करने की प्रेरणा देता है। यह अध्याय भक्तों को यह भी सिखाता है कि विपत्ति के समय में देवी का स्मरण करने से वे उनकी असीम कृपा और संरक्षण प्राप्त कर सकते हैं। इस प्रकार, देवी स्तुति भक्तों को आध्यात्मिक ऊर्जा और सकारात्मकता से भर देती है।
दूत से देवी का संवाद
दुर्गा सप्तशती के पाँचवें अध्याय में देवी दुर्गा और शुम्भ-निशुम्भ के दूत के बीच संवाद का वर्णन है। शुम्भ और निशुम्भ, दो शक्तिशाली असुर भाई थे, जिन्होंने स्वर्ग और धरती पर अपना आधिपत्य स्थापित किया था। उनकी सुंदरता और शक्ति की ख्याति सुनकर शुम्भ ने अपने दूत द्वारा देवी दुर्गा को अपने पास बुलाने का संदेश भेजा।
देवी दुर्गा ने दूत को समझाया कि वह केवल उसी के पास जाएँगी जो उन्हें युद्ध में पराजित कर सके। देवी का यह संदेश अहंकारी शुम्भ और निशुम्भ को चुनौती देने के समान था। देवी के इस उत्तर से असुर भाइयों का अहंकार आहत हुआ और उन्होंने देवी को बलपूर्वक अपने पास लाने का निर्णय लिया।
इस अध्याय का महत्वपूर्ण तत्व यह है कि यह देवी दुर्गा की आत्मसम्मान और निर्भयता को प्रकाशित करता है। देवी ने शक्तिशाली असुरों की धमकियों का सामना करते हुए भी अपनी शर्तों पर अडिग रहने का संदेश दिया। यह संवाद भक्तों को भी यह सिखाता है कि अधिकार और सम्मान के लिए खड़े होना और सत्य के पथ पर चलना महत्वपूर्ण है, भले ही सामने कितनी भी चुनौतियाँ क्यों न हों।
यह अध्याय आगामी युद्ध की ओर भी इशारा करता है, जहाँ देवी असुरों के विरुद्ध खड़ी होती हैं और अधर्म पर धर्म की विजय सुनिश्चित करती हैं। यह धर्म की रक्षा के लिए अवतार लेने वाली दिव्य शक्ति की महिमा को भी दर्शाता है।
धूम्रलोचन वध
दुर्गा सप्तशती के छठे अध्याय में धूम्रलोचन नामक असुर के वध का वर्णन है। शुम्भ और निशुम्भ, जो महिषासुर के बाद स्वर्ग और तीनों लोकों पर राज कर रहे थे, ने जब देवी दुर्गा की महिमा के बारे में सुना, तो वे उन्हें अपने अधिकार में करने की इच्छा रखते हैं। देवी द्वारा उनके दूत को दिए गए उत्तर से असंतुष्ट होकर, उन्होंने धूम्रलोचन को देवी को जबरदस्ती उनके पास लाने का आदेश दिया।
धूम्रलोचन अपनी सेना के साथ देवी को पकड़ने के लिए जाता है, लेकिन देवी ने उसे और उसकी सेना को आसानी से पराजित कर दिया। देवी की शक्ति का सामना करने में असमर्थ, धूम्रलोचन देवी द्वारा मारा जाता है। इस अध्याय में देवी की अद्वितीय शक्ति और असुरों पर उनकी विजय का वर्णन है।
युद्ध के दौरान, धूम्रलोचन ने अपने अस्त्रों की बारिश की और देवी को पराजित करने की कोशिश की। हालांकि, देवी ने अपने विशेष अस्त्र “पिनाक” का प्रयोग करके धूम्रलोचन की धूम्रित आंखों को नष्ट कर दिया और उन्हें मार डाला।
धूम्रलोचन का वध करने के बाद, देवी ने उनकी सेना को भी संहार किया और उनके साथी असुरों को भी पराजित किया। इससे शुम्भ और निशुम्भ का दबंग अधिपत्य और उनकी सेना की शक्ति में कमी हो गई, जिसने अगले युद्ध में उनकी पराजय का मार्ग खोल दिया।
धूम्रलोचन के वध का प्रसंग यह दर्शाता है कि किसी भी प्रकार की अधर्म, अन्याय और अहंकार का अंत अवश्यम्भावी है। देवी ने अपने भक्तों की रक्षा के लिए हमेशा साहस और शक्ति का प्रदर्शन किया है, और उनके द्वारा धूम्रलोचन का वध इस बात का प्रमाण है। यह अध्याय देवी की दैवीय शक्ति और उनके द्वारा धर्म की स्थापना के महत्व को भी प्रकाशित करता है।
छठे अध्याय के वर्णन से प्रकट होता है कि देवी दुर्गा ने असुरों के वध के लिए एक के बाद एक उनके प्रमुख रक्षकों को मार डाला, जो शुम्भ और निशुम्भ के वध की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था। यह अध्याय भक्तों को धर्म के लिए लड़ने और उसे स्थायीता से प्राप्त करने का संदेश देता है।
चंदा और मुंडा का वध
सप्तम अध्याय में देवी दुर्गा द्वारा चंदा और मुंडा, दो अन्य शक्तिशाली असुरों के वध की कथा है। यह घटना धूम्रलोचन के वध के बाद घटित होती है। धूम्रलोचन के वध के बाद, शुम्भ और निशुम्भ बहुत क्रोधित हुए और उन्होंने अपने दो विश्वसनीय सेनापतियों, चंदा और मुंडा को देवी के विरुद्ध युद्ध में भेजा।
चंदा और मुंडा, देवी को पराजित करने के लिए एक बड़ी सेना लेकर उनके पास पहुंचे। इस युद्ध में देवी दुर्गा ने अपने रौद्र रूप, चामुंडा (काली) का अवतार लिया। चामुंडा की शक्ति असीम थी और उन्होंने चंदा और मुंडा के साथ उनकी सेना को भी आसानी से पराजित कर दिया। देवी चामुंडा ने चंदा और मुंडा के सिर को उनके धड़ से अलग कर दिया और उनके सिरों को देवी दुर्गा के पास ले आईं।
देवी दुर्गा ने चंदा और मुंडा के वध से प्रसन्न होकर चामुंडा को ‘चंडिका’ की उपाधि दी। चंदा और मुंडा का वध देवी दुर्गा की महान शक्ति और असुरों के विरुद्ध उनकी विजय का प्रतीक है। यह अध्याय बुराई पर अच्छाई की विजय की कहानी को आगे बढ़ाता है और भक्तों को देवी के अद्वितीय पराक्रम और करुणा की याद दिलाता है।
रक्तबीज का वध
आठवें अध्याय में रक्तबीज, एक और प्रमुख असुर के वध की कथा है। रक्तबीज एक अत्यंत शक्तिशाली असुर था, जिसकी विशेषता यह थी कि युद्ध में उसके शरीर से गिरने वाला हर एक बूँद खून जमीन पर गिरते ही उसके समान एक नया रक्तबीज उत्पन्न कर देता था। इस कारण उसे पराजित करना लगभग असंभव समझा जाता था।
जब देवी दुर्गा और उनकी सेना रक्तबीज से युद्ध कर रही थी, तो हर बार रक्तबीज के खून की बूंदें जमीन पर गिरतीं, और एक नया रक्तबीज उत्पन्न हो जाता। इससे युद्ध काफी कठिन हो गया।
इस समस्या का समाधान देवी काली (चामुंडा) ने निकाला। उन्होंने अपना विशाल मुख खोला और रक्तबीज से लड़ते समय उसके खून की हर बूँद को पी लिया, जिससे वह जमीन पर नहीं गिर सके। इस प्रकार, देवी काली ने रक्तबीज के विभाजन और गुणन की क्षमता को निष्क्रिय कर दिया। फिर देवी दुर्गा ने रक्तबीज पर प्रहार किया और उसे अंततः मार गिराया।
रक्तबीज का वध दुर्गा सप्तशती में असुरों के विरुद्ध देवी की विजय की एक और महत्वपूर्ण कड़ी है। इस कथा के माध्यम से, भक्तों को यह संदेश मिलता है कि कोई भी समस्या कितनी भी बड़ी या जटिल क्यों न हो, उसका समाधान संभव है अगर हम बुद्धिमानी और साहस के साथ सामना करें। यह अध्याय देवी की अनंत शक्ति और जीवन के कठिनाइयों पर विजय पाने की उनकी क्षमता का प्रतीक है।
निशुंभ का वध
नवम अध्याय में निशुम्भ के वध की कथा है। निशुम्भ, शुम्भ का भाई था और दोनों मिलकर देवताओं और त्रिलोक पर अपना आधिपत्य जमाए हुए थे। अपने भाई शुम्भ के साथ, निशुम्भ भी अत्यंत शक्तिशाली था और देवी दुर्गा से युद्ध में उन्हें बड़ी चुनौती प्रस्तुत करता था।
रक्तबीज, चंदा, मुंडा, और अन्य असुरों के वध के बाद, देवी दुर्गा का सामना अंततः शुम्भ और निशुम्भ से हुआ। निशुम्भ के वध के लिए, देवी दुर्गा ने फिर से अपनी अद्वितीय शक्ति और युद्ध कौशल का प्रदर्शन किया। युद्ध में निशुम्भ ने बहुत साहस दिखाया, लेकिन देवी के सामने उसकी कोई भी चाल विफल रही।
अंततः, देवी ने निशुम्भ को युद्ध में पराजित किया और उसका वध कर दिया। निशुम्भ के वध के साथ ही, देवी ने त्रिलोक में धर्म और न्याय की पुनः स्थापना की और देवताओं को उनका खोया हुआ राज्य वापस दिलाया।
नवम अध्याय न केवल बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि आत्मविश्वास, दृढ़ संकल्प, और न्याय के पथ पर चलने वाले अंततः विजयी होते हैं। देवी दुर्गा का यह विजयी अभियान भक्तों को उनकी शक्ति और कृपा में विश्वास दिलाता है और उन्हें जीवन की कठिनाइयों का सामना करने की प्रेरणा देता है।
शुंभ का वध
दसवें अध्याय में शुम्भ का वध वर्णित है, जो निशुम्भ का भाई और एक प्रमुख असुर था। शुम्भ और निशुम्भ दोनों ही असुरों के शासक थे और उन्होंने मिलकर देवताओं को पराजित किया था और स्वर्ग तथा अन्य लोकों पर अपना आधिपत्य स्थापित किया था। निशुम्भ के वध के बाद, शुम्भ ने देवी दुर्गा के विरुद्ध अकेले ही युद्ध करने का निर्णय लिया।
यह युद्ध बहुत ही भीषण था। शुम्भ ने अपनी पूरी शक्ति और कौशल का उपयोग किया, लेकिन देवी दुर्गा उसके सामने अविजित रहीं। देवी दुर्गा ने अपने अद्भुत युद्ध कौशल और दिव्य शक्तियों के माध्यम से शुम्भ को चुनौती दी।
अंत में, देवी ने शुम्भ को पराजित किया और उसका वध कर दिया। शुम्भ के वध के साथ ही असुरों के आधिपत्य का अंत हो गया, और देवताओं ने फिर से स्वर्ग और तीनों लोकों में शांति और धर्म की स्थापना की।
दसवें अध्याय की यह कथा न केवल बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है, बल्कि यह भी दर्शाती है कि अंततः सत्य और धर्म की ही विजय होती है। देवी दुर्गा की यह विजय भक्तों को उनकी शक्ति और कृपा में आस्था रखने की प्रेरणा देती है, और यह सिखाती है कि न्याय और धर्म के पथ पर चलने वाले सदैव सुरक्षित रहते हैं।
नारायणी का स्तोत्र
ग्यारहवें अध्याय में, देवी दुर्गा की महान विजय के बाद, देवताओं द्वारा देवी की स्तुति का वर्णन है, जिसे नारायणी स्तोत्र कहा जाता है। इस स्तोत्र में, देवता देवी की विभिन्न शक्तियों और रूपों की प्रशंसा करते हैं, और उन्हें संसार के सभी दुःखों और बुराइयों से मुक्ति दिलाने वाली के रूप में वर्णित करते हैं।
नारायणी स्तोत्र देवी की असीम करुणा, शक्ति, और उनकी भक्तों के प्रति अनुराग को उजागर करता है। इसमें देवी को सृष्टि की उत्पत्ति, पालन, और संहार करने वाली अद्वितीय शक्ति के रूप में स्तुति की जाती है। यह स्तोत्र देवी को नारायणी, यानी विष्णु की शक्ति, के रूप में सम्मानित करता है, जो उनके दिव्य गुणों और महत्व को दर्शाता है।
ग्यारहवें अध्याय के माध्यम से, भक्तों को यह संदेश मिलता है कि देवी की शक्ति और कृपा से कोई भी बाधा पार की जा सकती है और जीवन में सच्ची शांति और समृद्धि प्राप्त की जा सकती है। नारायणी स्तोत्र भक्तों को देवी के प्रति गहरी भक्ति और समर्पण की भावना से प्रेरित करता है, साथ ही उन्हें जीवन की प्रत्येक चुनौती का सामना करने के लिए आध्यात्मिक शक्ति प्रदान करता है।
गुणगान
बारहवें अध्याय में, दुर्गा सप्तशती की समाप्ति पर, देवी दुर्गा के गुणगान का वर्णन है। इस अध्याय में, देवी की महिमा और उनके द्वारा किए गए महान कार्यों की प्रशंसा की जाती है। देवताओं और ऋषियों द्वारा देवी के अद्वितीय गुणों और उनकी शक्तियों की स्तुति की जाती है, जिससे उन्होंने संसार को असुरों के अत्याचार से मुक्त कराया और धर्म की रक्षा की।
इस अध्याय के माध्यम से यह भी दर्शाया गया है कि देवी दुर्गा की उपासना करने से भक्तों को कैसे आध्यात्मिक शक्ति, सुरक्षा, और समृद्धि प्राप्त होती है। देवी के अनुयायी उनकी कृपा से सभी प्रकार की बाधाओं और संकटों का सामना कर सकते हैं।
बारहवें अध्याय में देवी की उपासना के महत्व और फलों पर भी प्रकाश डाला गया है। यह स्पष्ट करता है कि देवी की भक्ति में लीन होने से न केवल भौतिक लाभ प्राप्त होते हैं, बल्कि आत्मिक शांति और मोक्ष की प्राप्ति भी संभव है।
इस प्रकार, दुर्गा सप्तशती का बारहवाँ अध्याय भक्तों को देवी दुर्गा की अनुकंपा, शक्ति, और महिमा का स्मरण कराता है। यह उन्हें देवी की आराधना में अधिक से अधिक लीन होने की प्रेरणा देता है और जीवन में आध्यात्मिक विकास और सद्भाव की ओर मार्गदर्शन करता है।
सुरथ और वैश्य को वरदान देना
तेरहवें अध्याय में, देवी दुर्गा द्वारा राजा सुरथ और वैश्य (एक व्यापारी) को वरदान देने की कथा है। यह अध्याय दुर्गा सप्तशती के समापन भाग में आता है और इसमें भक्ति और देवी की असीम कृपा का संदेश है।
कथा के अनुसार, राजा सुरथ अपने राज्य को दुश्मनों द्वारा हराए जाने के बाद वन में निर्वासन का जीवन बिता रहे थे। वहाँ उनकी मुलाकात एक वैश्य से हुई, जो अपने परिवार द्वारा त्यागे जाने के कारण दुखी था। दोनों ने एक साधु की खोज की, जिन्होंने उन्हें देवी की उपासना करने की सलाह दी।
राजा सुरथ और वैश्य ने मिलकर देवी दुर्गा की उपासना की। उनकी भक्ति और निष्ठा से प्रसन्न होकर देवी दुर्गा प्रकट हुईं और उन्हें वरदान मांगने को कहा। राजा सुरथ ने अपने राज्य को पुनः प्राप्त करने और एक अच्छा शासक बनने का वरदान मांगा। वहीं, वैश्य ने ज्ञान की प्राप्ति और मोक्ष का वरदान मांगा। देवी ने उनकी प्रार्थनाओं को स्वीकार किया और उन्हें आशीर्वाद दिया।
यह अध्याय भक्तों को यह सिखाता है कि सच्ची भक्ति और निष्ठा से की गई उपासना से देवी की कृपा प्राप्त की जा सकती है और जीवन की किसी भी समस्या का समाधान संभव है। यह अध्याय विश्वास, धैर्य, और आत्मसमर्पण की शक्ति को भी दर्शाता है, जिससे भक्त अपनी आध्यात्मिक यात्रा में उच्चतम लक्ष्यों को प्राप्त कर सकते हैं
यह भी पढ़ें –
मां काली का मंत्र और उनके फायदे
3 thoughts on “दुर्गा सप्तशती”