“चतुःश्लोकी भागवत”
अहमेवासमेवाग्रे नान्यद यत् सदसत परम। पश्चादहं यदेतच्च योऽवशिष्येत सोऽस्म्यहम।।
ऋतेऽर्थ यत् प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि। तद्विद्यादात्मनो माया यथाऽऽभासो यथा तमः।।
यथा महान्ति भूतानि भूतेषुच्चावचेष्वनु। प्रविष्टान्यप्रविष्टानि तथा तेषु न तेषवहम।।
एतावदेव जिज्ञास्यं त्वजिज्ञासुनाऽऽत्मनः। अन्वयव्यतिरेकाभ्यां यत् स्यात् सर्वत्र सर्वदा।।
“चतुःश्लोकी भागवत” पुराण के माध्यम से ब्रह्माजी को भगवान नारायण ने सम्पूर्ण भागवत-तत्व का उपदेश दिया था। इन श्लोकों के माध्यम से ब्रह्म, आत्मा, माया और सृष्टि के स्वरूप का वर्णन किया गया है।
इन श्लोकों को “चतुःश्लोकी भागवत” के नाम से जाना जाता है, और यह धार्मिक और अध्यात्मिक अन्वेषण में रुचि रखने वाले भक्तों और साधकों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। ये श्लोक आत्म-साक्षात्कार की दिशा में एक मार्गदर्शिका के रूप में कार्य करते हैं, जो व्यक्ति को सच्चे आत्मतत्व की ओर ले जाते हैं।
चार श्लोक भागवत पुराण में ब्रह्मांड की सृष्टि, स्थिति, और प्रलय के समय भगवान के स्वरूप की अनुपमता का वर्णन है। ये श्लोक हमें यह सिखाते हैं कि सच्चाई की खोज में जीवन की सारी विविधताओं और परिवर्तनों के मध्य एक अविचलित, अद्वितीय और अनंत सत्ता है, जो कि आत्मा या ब्रह्म है।
इस संदर्भ में, जब हम “चार श्लोकों की संपूर्ण भागवत” की बात करते हैं, तो यह उल्लेखित होता है कि पुरुषोत्तम मास में इन चार श्लोकों का जाप करने से व्यक्ति को श्रीमद्भागवत पुराण का पूरा पठन-पाठन करने जैसा पुण्य प्राप्त होता है। ये चार श्लोक भगवान नारायण द्वारा ब्रह्माजी को दिए गए उपदेश हैं, जिन्हें “चतुःश्लोकी भागवत” कहा जाता है।
यह विश्वास और परंपरा भक्तों को अधिक मास में विशेष रूप से अध्यात्मिक साधना में लीन होने के लिए प्रेरित करती है, जिससे वे भगवान की कृपा प्राप्त कर सकें और अपने जीवन में आध्यात्मिक उन्नति की ओर अग्रसर हों। यह मान्यता है कि पुरुषोत्तम मास में भक्ति और साधना के जरिए व्यक्ति अपने जीवन को और अधिक पवित्र और आध्यात्मिक बना सकता है।
श्लोक:अहमेवासमेवाग्रे नान्यद यत् सदसत परम। पश्चादहं यदेतच्च योऽवशिष्येत सोऽस्म्यहम।।
अर्थ: “मैं ही आदि में था, मैं ही अंत में रहूँगा, इसके अतिरिक्त जो कुछ भी है – सत या असत, वह मैं ही हूँ। जो कुछ भी प्रकट होता है और जो अंत में शेष रहता है, वह मैं ही हूँ।”
व्याख्या: इस श्लोक में ‘अहम्’ (मैं) का उपयोग आत्मा या ब्रह्म (अंतिम सत्य) के रूप में किया गया है, जो कि समस्त ब्रह्माण्ड का मूल है। ‘आदि’ से अभिप्राय है कि सृष्टि के आरंभ में केवल ब्रह्म ही मौजूद था, और ‘अंत’ में भी केवल वही रहेगा। इस श्लोक में ‘सत’ और ‘असत’ से तात्पर्य है वह सब कुछ जो अस्तित्व में है और जो नहीं है, यानी वास्तविक और आभासिक।
यहाँ पर जोर दिया गया है कि सभी चीजों का सार एक ही है – वह है ब्रह्म, जिसे ‘अहम्’ के रूप में संदर्भित किया गया है। यह श्लोक हमें यह सिखाता है कि संपूर्ण ब्रह्माण्ड में सब कुछ एक दूसरे से जुड़ा हुआ है और अंततः एक ही सत्य में समाहित है।
इस तरह, यह श्लोक आध्यात्मिक जागरूकता की ओर ले जाता है, जिसमें व्यक्ति को अपने आत्मा की असीमितता और सर्वव्यापकता का बोध होता है, और यह समझ में आता है कि हम सभी एक ही अंतिम सत्य का हिस्सा हैं।
श्लोक:ऋतेऽर्थ यत् प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि। तद्विद्यादात्मनो माया यथाऽऽभासो यथा तमः।।
अर्थ: “जैसा कि सत्यानुसार दिखाई देता है या नहीं दिखाई देता, वह अपने आत्मा में नहीं दिखाई देता है। उसे आत्मा की माया के रूप में जानना चाहिए, जैसे कि प्रकाश की अभास के रूप में और जैसे कि अंधकार है।”
व्याख्या: इस श्लोक में, वेदान्तिक दृष्टिकोण से, ‘ऋते’ या ‘सत्य’ का अर्थ है सच्चाई या ब्रह्म, जो कि आत्मा का स्वरूप है। ‘अर्थ’ या ‘दिखाई देना’ यहाँ पर सांसारिक जगत की व्यावहारिकता को संदर्भित करता है। इस श्लोक में कहा गया है कि सत्य केवल सांसारिक जगत में नहीं पाया जा सकता है, बल्कि उसको आत्मा में प्राप्त किया जा सकता है।
आत्मा को समझने के लिए, एक व्यक्ति को माया का विवेचन करना होगा, जो कि इस श्लोक में ‘तमः’ या ‘अंधकार’ के रूप में उल्लेख किया गया है। माया आत्मा को ब्रह्म के रूप में नहीं दिखा सकती, लेकिन वास्तविकता में, आत्मा ही ब्रह्म है।
इस श्लोक के माध्यम से, हमें बताया गया है कि सत्य और मिथ्या की भ्रांति के माध्यम से आत्मा का वास्तविक स्वरूप समझा जा सकता है, और इस विचार को समझकर हम अपने आत्मा को पहचान सकते हैं।
श्लोक:यथा महान्ति भूतानि भूतेषुच्चावचेष्वनु। प्रविष्टान्यप्रविष्टानि तथा तेषु न तेषवहम।।
अर्थ: जिस प्रकार बड़ी और छोटी सभी प्राणियां उच्च और नीच के भूतों (तत्वों) में प्रवेश करती हैं और नहीं भी करतीं, उसी प्रकार मैं उनमें हूं और फिर भी उनमें नहीं हूं।
व्याख्या: यह श्लोक अद्वैत वेदांत की एक मूल अवधारणा को प्रकट करता है, जिसमें ब्रह्म (अंतिम सत्य या सर्वोच्च चेतना) के सर्वव्यापी और अखंड स्वरूप का वर्णन किया गया है। ‘भूतेषु’ यहां सभी प्रकार के भौतिक तत्वों का संकेत देता है, और ‘महान्ति भूतानि’ से तात्पर्य बड़े और छोटे सभी प्रकार के जीवों से है, जो इन भौतिक तत्वों में प्रविष्ट होते हैं और साथ ही साथ उनसे अलग भी होते हैं।
इस श्लोक का संदेश यह है कि ब्रह्म सर्वत्र विद्यमान है – सभी जीवों में, सभी वस्तुओं में, यहाँ तक कि सबसे उच्च और सबसे नीच तत्वों में भी। हालांकि, इसी के साथ यह भी कहा गया है कि ब्रह्म इनमें ‘प्रविष्टानि’ (प्रवेश करने वाला) है और ‘अप्रविष्टानि’ (प्रवेश न करने वाला) भी है, यानी कि ब्रह्म इनमें व्याप्त है लेकिन फिर भी इसका स्वतंत्र अस्तित्व है।
इस श्लोक के माध्यम से, अद्वैत वेदांत हमें सिखाता है कि ब्रह्म इस जगत कच्च और निम्न प्रकार की भूतों में प्रविष्ट होती हैं और नहीं होतीं, उसी प्रकार मैं उनमें हूँ और नहीं भी हूँ।
इस प्रकार, यह श्लोक हमें यह सिखाता है कि सर्वव्यापी दिव्य सत्ता हमारे अस्तित्व के हर पहलू में मौजूद है, लेकिन फिर भी यह इस सांसारिक माया से परे है। यह हमें यह अनुभव करने की दिशा में ले जाता है कि हम सभी एक ही अखंड सत्य का हिस्सा हैं, जो हमें एकता की गहरी समझ प्रदान करता है।
श्लोक:एतावदेव जिज्ञास्यं त्वजिज्ञासुनाऽऽत्मनः। अन्वयव्यतिरेकाभ्यां यत् स्यात् सर्वत्र सर्वदा।।
अर्थ: आत्मन के जिज्ञासु को केवल इतना ही जानना चाहिए कि अन्वय (सम्बन्ध) और व्यतिरेक (असंबन्ध) के द्वारा, जो कुछ भी सर्वत्र और सर्वदा मौजूद रहता है।
व्याख्या: यह श्लोक आत्म-ज्ञान की खोज में जिज्ञासुओं के लिए एक महत्वपूर्ण संदेश देता है। ‘एतावदेव जिज्ञास्यं’ का तात्पर्य है कि आत्म-ज्ञान की खोज में लगे व्यक्ति को केवल उसी तक सीमित रहना चाहिए जो अत्यंत आवश्यक है। यहाँ पर ‘आत्मनः’ आत्मा का ज्ञान है, जो कि आत्म-ज्ञान की खोज का मूल उद्देश्य है।
‘अन्वयव्यतिरेकाभ्यां’ से तात्पर्य है कि यह ज्ञान दो प्रमुख तर्कों – अन्वय (अफर्मेशन) और व्यतिरेक (निगेशन) के माध्यम से प्राप्त होता है। ‘अन्वय’ का अर्थ है कि जब कोई चीज़ मौजूद होती है तो उसके साथ कुछ विशेष भी मौजूद होता है, और ‘व्यतिरेक’ का अर्थ है कि जब कोई चीज़ अनुपस्थित होती है तो उसके साथ कुछ विशेष भी अनुपस्थित होता है। इस प्रकार, यह तर्क आत्मा के स्वरूप की व्याख्या करने में मदद करता है।
‘यत् स्यात् सर्वत्र सर्वदा’ – इसका अर्थ है कि आत्म-ज्ञान की खोज में, जिज्ञासु को उस सत्य की खोज करनी चाहिए जो हर समय, हर जगह मौजूद होता है। यह सत्य आत्मा है, जो कि अपरिवर्तनीय, सनातन और सर्वव्यापी है।
इस प्रकार, यह श्लोक आत्म-ज्ञान की खोज के लिए एक मार्गदर्शक सिद्धांत प्रस्तुत करता है, जो कि जिज्ञासुओं को उस सत्य की ओर ले जाता है जो हमेशा मौजूद रहता है, और जो उन्हें उनके आत्मा के सच्चे स्वरूप की ओर निर्देशित करता है।
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