अपराजिता देवी ध्यान:
ॐ निलोत्पलदलश्यामां भुजंगाभरणानिव्ताम।
शुद्ध्स्फटीकंसकाशां चन्द्र्कोटिनिभाननां॥
शड़्खचक्रधरां देवीं वैष्णवीं अपराजिताम।
बालेंदुशेख्रां देवीं वर्दाभाय्दायिनीं।
नमस्कृत्य पपाठैनां मार्कंडेय महातपा:॥
मार्कंडेय उवाच:
शृणुष्वं मुनय: सर्वे सर्व्कामार्थ्सिद्धिदाम।
असिद्धसाधनीं देवीं वैष्णवीं अपराजिताम्॥
विष्णोरियमानुपप्रोकता सर्वकामफलप्रदा।
सर्वसौभाग्यजननी सर्वभितिविनाशनी।
सवैश्र्च पठितां सिद्धैविष्णो: परम्वाल्लभा ॥
नानया सदृशं किन्चिदुष्टानां नाशनं परं ।
विद्द्या रहस्या, कथिता वैष्ण्व्येशापराजिता ।
पठनीया प्रशस्ता वा साक्शात्स्त्वगुणाश्रया ॥
ॐ शुक्लाम्बरधरं विष्णुं शशिवर्णं चतुर्भुजं।
प्रसन्नवदनं ध्यायेत्सर्वविघ्नोपशान्तये ॥
अथात: संप्रवक्ष्यामी हृाभ्यामपराजितम् ।
यथाशक्तिमार्मकी वत्स रजोगुणमयी मता ॥
सर्वसत्वमयी साक्शात्सर्वमन्त्रमयी च या ।
या स्मृता पूजिता जप्ता न्यस्ता कर्मणि योजिता ॥
सर्वकामदुधा वत्स शृणुश्वैतां ब्रवीमिते ।
यस्या: प्रणश्यते पुष्पं गर्भो वा पतते यदि ॥
भ्रियते बालको यस्या: काक्बन्ध्या च या भवेत् ।
धारयेघा इमां विधामेतैदोषैन लिप्यते ॥
गर्भिणी जीवव्त्सा स्यात्पुत्रिणी स्यान्न संशय:।
भूर्जपत्रे त्विमां विद्धां लिखित्वा गंध्चंदनैः ॥
एतैदोषैन लिप्यते सुभगा पुत्रिणी भवेत् ।
रणे राजकुले दुते नित्यं तस्य जयो भवेत् ॥
शस्त्रं वारयते हृोषा समरे काडंदारूणे ।
गुल्मशुलाक्शिरोगाणां न नाशिनी सर्वदेहिनाम्॥
इत्येषा कथिता विद्द्या अभयाख्या अपराजिता।
एतस्या: स्म्रितिमात्रेंण भयं क्वापि न जायते ॥
नोपसर्गा न रोगाश्च न योधा नापि तस्करा:।
न राजानो न सर्पाश्च न द्वेष्टारो न शत्रव: ।
यक्षराक्षसवेताला न शाकिन्यो न च ग्रहा: ॥
अग्नेभ्र्यं न वाताच्च न स्मुद्रान्न वै विषात् ।
कामणं वा शत्रुकृतं वशीकरणमेव च ॥
उच्चाटनं स्तम्भनं च विद्वेषणमथापि वा ।
न किन्चितप्रभवेत्त्र यत्रैषा वर्ततेऽभया ॥
पठेद वा यदि वा चित्रे पुस्तके वा मुखेऽथवा ।
हृदि वा द्वार्देशे व वर्तते हृाभय: पुमान् ॥
ह्रदय विन्यसेदेतां ध्यायदेवीं चतुर्भुजां ।
रक्त्माल्याम्बरधरां पद्दरागसम्प्रभां ॥
पाशाकुशाभयवरैरलंकृतसुविग्रहां ।
साध्केभ्य: प्र्यछ्न्तीं मंत्रवर्णामृतान्यापि ॥
नात: परतरं किन्च्चिद्वाशिकरणमनुतम्ं ।
रक्षणं पावनं चापि नात्र कार्या विचारणा ॥
प्रात: कुमारिका: पूज्या: खाद्दैराभरणैरपि ।
तदिदं वाचनीयं स्यातत्प्रिया प्रियते तू मां ॥
ॐ अथात: सम्प्रक्ष्यामी विद्दामपी महाबलां ।
सर्व्दुष्टप्रश्मनी सर्वशत्रुक्षयड़्करीं ॥
दारिद्र्य्दुखशमनीं दुभार्ग्यव्याधिनाशिनिं ।
भूतप्रेतपिशाचानां यक्श्गंध्वार्क्षसां ॥
डाकिनी शाकिनी स्कन्द कुष्मांडनां च नाशिनिं ।
महारौदिं महाशक्तिं सघ: प्रत्ययकारिणीं ॥
गोपनीयं प्रयत्नेन सर्वस्वंपार्वतीपते: ।
तामहं ते प्रवक्ष्यामि सावधानमनाः श्रृणु ॥
एकाहिृकं द्वहिकं च चातुर्थिकर्ध्मासिकं।
द्वैमासिकं त्रैमासिकं तथा चातुर्थ्मासिकं ॥
पाँचमासिक षाड्मासिकं वातिक पैत्तिक्ज्वरं।
श्रैष्मिकं सानिपातिकं तथैव सततज्वरं ॥
मौहूर्तिकं पैत्तिकं शीतज्वरं विषमज्वरं ।
द्वहिंकं त्रयहिन्कं चैव ज्वर्मेकाहिकं तथा ॥
क्षिप्रं नाशयेते नित्यं स्मरणाद्पराजिता।
यत एवागतं पापं तत्रैव प्रतिगच्छ्तु, स्वाहेत्योंम ॥
अमोघैषा महाविद्दा वैष्णवी चापराजिता ।
स्वयं विश्नुप्रणीता च सिद्धेयं पाठत: सदा ॥
एषा महाबला नाम कथिता तेऽपराजित ।
नानया सदृशी रक्षा त्रिषु लोकेषु विद्दते ॥
तमोगुणमयी साक्षद्रोद्री शक्तिरियं मता ।
कृतान्तोऽपि यतोभीत: पाद्मुले व्यवस्थित: ॥
मूलाधारे न्यसेदेतां रात्रावेन च संस्मरेत ।
नीलजीतमूतसंड़्काशां तडित्कपिलकेशिकाम् ॥
उद्ददादित्यसंकाशां नेत्रत्रयविराजिताम् ।
शक्तिं त्रिशूलं शड़्खं चपानपात्रं च बिभ्रतीं ।
व्याघ्र्चार्म्परिधानां किड़्किणीजालमंडितं ॥
धावंतीं गगंस्यांत: पादुकाहितपादकां ।
दंष्टाकरालवदनां व्यालकुण्डलभूषितां ॥
व्यात्वक्त्रां ललजिहृां भुकुटिकुटिलालकां ।
स्वभक्तद्वेषिणां रक्तं पिबन्तीं पान्पात्रत: ॥
सप्तधातून शोषयन्तीं क्रूरदृष्टया विलोकनात् ।
त्रिशुलेन च तज्जिहृां कीलयंतीं मुहुमुर्हु: ॥
पाशेन बद्धा तं साधमानवंतीं तन्दिके ।
अर्द्धरात्रस्य समये देवीं ध्यायेंमहबलां ॥
यस्य यस्य वदेन्नाम जपेन्मंत्रं निशांतके ।
तस्य तस्य तथावस्थां कुरुते सापियोगिनी ॥
ॐ बले महाबले असिद्धसाधनी स्वाहेति, अमोघां पठति सिद्धां श्रीवैष्णवीं। श्रीमद्पाराजिताविद्दां ध्यायते ॥
दु:स्वप्ने दुरारिष्टे च दुर्निमिते तथैव च ।
व्यवहारे भवेत्सिद्धि: पठेद्विघ्नोपशान्त्ये ॥
यदत्र पाठे जगदम्बिके मया, विसर्गबिन्द्धऽक्षरहीमीड़ितं ।
तदस्तु सम्पूर्णतमं प्रयान्तु मे, सड़्कल्पसिद्धिस्तु सदैव जायतां ॥
तव तत्वं न जानामि किदृशासी महेश्वरी।
यादृशासी महादेवी ताद्रिशायै नमो नम: ॥
य इमां पराजितां परम्वैष्ण्वीं प्रतिहतां
पठति सिद्धां स्मरति सिद्धां महाविद्द्यां ॥
जपति पठति श्रृणोति स्मरति धारयति किर्तयती वा
न तस्याग्निवायुवज्रोपलाश्निवर्शभयं ॥
न समुद्रभयं न ग्रह्भयं न चौरभयं
न शत्रुभयं न शापभयं वा भवेत् ॥
क्वाचिद्रत्र्यधकारस्त्रीराजकुलविद्वेषी
विषगरगरदवशीकरण विद्वेशोच्चाटनवध बंधंभयं वा न भवेत् ॥
।। इति अपराजिता स्तोत्रम् ।।
अपराजिता स्तोत्र हिंदी में अर्थ सहित
अपराजिता देवी ध्यान:
ॐ निलोत्पलदलश्यामां भुजंगाभरणानिव्ताम।
शुद्ध्स्फटीकंसकाशां चन्द्र्कोटिनिभाननां॥
शड़्खचक्रधरां देवीं वैष्णवीं अपराजिताम।
बालेंदुशेख्रां देवीं वर्दाभाय्दायिनीं।
नमस्कृत्य पपाठैनां मार्कंडेय महातपा:॥
यह श्लोक अपराजिता देवी, जो वैष्णवी शक्ति की स्तुति में गाया गया है। इस श्लोक के माध्यम से देवी के दिव्य रूप का वर्णन किया गया है और उनके दिव्य गुणों की प्रशंसा की गई है। अपराजिता देवी को अजेय और अपराजेय के रूप में दर्शाया गया है, जो किसी भी प्रकार के भय और अशुभता से रक्षा करने की क्षमता रखती हैं।
श्लोक का अनुवाद इस प्रकार है:
- “ॐ निलोत्पलदलश्यामां” – नीले कमल के पत्ते के समान श्याम वर्ण की,
- “भुजंगाभरणानिव्ताम” – सर्पों से सज्जित,
- “शुद्धस्फटीकांसकाशां” – शुद्ध स्फटिक की तरह चमकदार,
- “चन्द्रकोटिनिभाननां” – करोड़ों चंद्रमाओं के समान मुख वाली,
- “शड्खचक्रधरां देवीं” – छह चक्रों को धारण करने वाली देवी,
- “वैष्णवीं अपराजिताम” – वैष्णवी, अजेय,
- “बालेंदुशेख्रां देवीं” – युवा चंद्रमा की तरह मस्तक पर चंद्रमा धारण किए,
- “वरदाभायदायिनीं” – वरदान और भय निवारण करने वाली,
- “नमस्कृत्य पपाठैनां मार्कंडेय महातपा:” – इन्हें प्रणाम करके मार्कंडेय महातपा ने इसे पढ़ा।
इस श्लोक के माध्यम से मार्कंडेय महातपा देवी अपराजिता की स्तुति करते हैं और उनसे संरक्षण और आशीर्वाद प्राप्त करने की कामना करते हैं। यह श्लोक उनकी दिव्यता और शक्ति को समर्पित है।
मार्कंडेय उवाच:
शृणुष्वं मुनय: सर्वे सर्व्कामार्थ्सिद्धिदाम।
असिद्धसाधनीं देवीं वैष्णवीं अपराजिताम्॥
विष्णोरियमानुपप्रोकता सर्वकामफलप्रदा।
सर्वसौभाग्यजननी सर्वभितिविनाशनी।
सवैश्र्च पठितां सिद्धैविष्णो: परम्वाल्लभा ॥
इस श्लोक में, मार्कंडेय ऋषि अन्य मुनियों को संबोधित कर रहे हैं और उन्हें अपराजिता देवी के विषय में बता रहे हैं, जिन्हें वैष्णवी भी कहा जाता है। देवी अपराजिता को सर्व कामनाओं की सिद्धि देने वाली, सर्व भयों को नाश करने वाली और सर्व सौभाग्य की जननी के रूप में प्रशंसित किया गया है। इस श्लोक में विष्णु द्वारा उनकी सराहना किए जाने का भी उल्लेख है, जो उन्हें उनका परम वल्लभा बताते हैं।
श्लोक का विस्तृत अर्थ इस प्रकार है:
– “शृणुष्वं मुनय: सर्वे सर्वकामार्थ्सिद्धिदाम” – हे मुनियों, सभी सुनो, यह देवी सभी कामनाओं की सिद्धि देने वाली है,
– “असिद्धसाधनीं देवीं वैष्णवीं अपराजिताम्” – जो असिद्ध (अपूर्ण) साधनाओं को सिद्ध करने वाली, वैष्णवी और अपराजिता हैं,
– “विष्णोरियमानुपप्रोकता सर्वकामफलप्रदा” – विष्णु द्वारा प्रोक्त (कहा गया) है कि यह देवी सभी कामनाओं के फल देने वाली हैं,
– “सर्वसौभाग्यजननी सर्वभितिविनाशनी” – सभी प्रकार के सौभाग्य की जननी और सभी प्रकार के भयों को नष्ट करने वाली,
– “सवैश्र्च पठितां सिद्धैविष्णो: परम्वाल्लभा” – विष्णु द्वारा बहुत प्रिय और सिद्ध (पूर्णता प्राप्त) मानी जाती हैं।
नानया सदृशं किन्चिदुष्टानां नाशनं परं ।
विद्द्या रहस्या, कथिता वैष्ण्व्येशापराजिता ।
पठनीया प्रशस्ता वा साक्शात्स्त्वगुणाश्रया ॥
- “नानया सदृशं किन्चिदुष्टानां नाशनं परं” – इसके समान कोई और नहीं है जो दुष्टों (बुराइयों) का नाश कर सके।
- “विद्द्या रहस्या, कथिता वैष्ण्व्येशापराजिता” – यह विद्या (ज्ञान) एक गुप्त रहस्य है, जिसे वैष्णवी शापराजिता के रूप में कहा गया है।
- “पठनीया प्रशस्ता वा साक्शात्स्त्वगुणाश्रया” – इसे पढ़ना और प्रशंसा करना चाहिए क्योंकि यह सीधे तुम्हारे गुणों का आश्रय है।
ॐ शुक्लाम्बरधरं विष्णुं शशिवर्णं चतुर्भुजं।
प्रसन्नवदनं ध्यायेत्सर्वविघ्नोपशान्तये ॥
- “ॐ शुक्लाम्बरधरं विष्णुं शशिवर्णं चतुर्भुजं” – ओम, विष्णु जो श्वेत वस्त्र धारण करते हैं, चंद्रमा के समान वर्ण वाले, चार भुजाएँ रखते हैं।
- “प्रसन्नवदनं ध्यायेत्सर्वविघ्नोपशान्तये” – प्रसन्न मुख का ध्यान करो जिससे सभी विघ्न (बाधाएं) शांत हों।
अथात: संप्रवक्ष्यामी हृाभ्यामपराजितम् ।
यथाशक्तिमार्मकी वत्स रजोगुणमयी मता ॥
- “अथात: संप्रवक्ष्यामी हृदयाभ्यामपराजितम्” – अब मैं तुम्हें हृदय से अपराजित (अजेय) के बारे में बताऊंगा।
- “यथाशक्तिमार्मकी वत्स रजोगुणमयी मता” – हे वत्स (प्रिय), जैसी उनकी शक्ति है, वैसी ही वे रजोगुणमयी मानी जाती हैं।
सर्वसत्वमयी साक्शात्सर्वमन्त्रमयी च या ।
या स्मृता पूजिता जप्ता न्यस्ता कर्मणि योजिता ॥
- “सर्वसत्वमयी साक्शात्सर्वमन्त्रमयी च या” – वह साक्षात सर्वसत्वमयी (सभी प्राणियों में व्याप्त) और सर्वमन्त्रमयी (सभी मंत्रों में व्याप्त) हैं।
- “या स्मृता पूजिता जप्ता न्यस्ता कर्मणि योजिता” – जो स्मरण किया जाता है, पूजा जाती है, जप किया जाता है, और कर्मों में लगाया जाता है।
सर्वकामदुधा वत्स शृणुश्वैतां ब्रवीमिते ।
यस्या: प्रणश्यते पुष्पं गर्भो वा पतते यदि ॥
- “सर्वकामदुधा वत्स शृणुश्वैतां ब्रवीमिते” – सभी कामनाओं की पूर्ति करने वाली, हे वत्स, इसे ध्यान से सुनो जो मैं तुम्हें बता रहा हूँ।
- “यस्या: प्रणश्यते पुष्पं गर्भो वा पतते यदि” – जिसका पुष्प (प्रसाद) नष्ट हो जाता है या गर्भ गिर जाता है।
भ्रियते बालको यस्या: काक्बन्ध्या च या भवेत् ।
धारयेघा इमां विधामेतैदोषैन लिप्यते ॥
- “भ्रियते बालको यस्या: काक्बन्ध्या च या भवेत्” – जिसके बच्चे की देखभाल हो और जो बाँझ हो (बच्चे को जन्म न दे सके)।
- “धारयेघा इमां विधामेतैदोषैन लिप्यते” – इस विधि का पालन करने से इन दोषों से मुक्ति मिलती है।
गर्भिणी जीवव्त्सा स्यात्पुत्रिणी स्यान्न संशय:।
भूर्जपत्रे त्विमां विद्धां लिखित्वा गंध्चंदनैः ॥
- “गर्भिणी जीवव्त्सा स्यात्पुत्रिणी स्यान्न संशय:” – गर्भधारण करने वाली और पुत्र प्राप्ति वाली हो, इसमें कोई संदेह नहीं।
- “भूर्जपत्रे त्विमां विद्धां लिखित्वा गंध्चंदनैः” – भूर्ज पत्र पर इस विद्या को लिखें और चंदन से सुशोभित करें।
एतैदोषैन लिप्यते सुभगा पुत्रिणी भवेत् ।
रणे राजकुले दुते नित्यं तस्य जयो भवेत् ॥
- “एतैदोषैन लिप्यते सुभगा पुत्रिणी भवेत्” – इन दोषों से मुक्त होकर सुखी और पुत्रवती हो जाएगी।
- “रणे राजकुले दुते नित्यं तस्य जयो भवेत्” – युद्ध में, राजकुल में, दूत के रूप में हमेशा उसकी जय हो।
शस्त्रं वारयते हृोषा समरे काडंदारूणे ।
गुल्मशुलाक्शिरोगाणां न नाशिनी सर्वदेहिनाम्॥
- “शस्त्रं वारयते हृदया समरे काटंदारूणे” – युद्ध में, जब स्थितियाँ अत्यंत कठिन हों, तब भी शस्त्रों को उसके हृदय से वारया जाता है।
- “गुल्मशुलाक्शिरोगाणां न नाशिनी सर्वदेहिनाम्” – गुल्म (गांठ), शूल (दर्द) और सिर की बीमारियों का नाश करने वाली, सभी जीवों के लिए।
इत्येषा कथिता विद्द्या अभयाख्या अपराजिता।
एतस्या: स्म्रितिमात्रेंण भयं क्वापि न जायते ॥
- “इत्येषा कथिता विद्या अभयाख्या अपराजिता” – इस प्रकार यह विद्या अभय (भयमुक्त) के नाम से जानी जाती है, अपराजिता के रूप में।
- “एतस्या: स्मृतिमात्रेण भयं क्वापि न जायते” – केवल इसके स्मरण मात्र से कहीं भी कोई भय नहीं उत्पन्न होता।
नोपसर्गा न रोगाश्च न योधा नापि तस्करा:।
न राजानो न सर्पाश्च न द्वेष्टारो न शत्रव: ।
यक्षराक्षसवेताला न शाकिन्यो न च ग्रहा: ॥
- “नोपसर्गा न रोगाश्च न योधा नापि तस्करा:” – न कोई उपसर्ग, न रोग, न योद्धा, न चोर।
- “न राजानो न सर्पाश्च न द्वेष्टारो न शत्रव:” – न राजा, न सर्प, न द्वेषी, न शत्रु।
- “यक्षराक्षसवेताला न शाकिन्यो न च ग्रहा:” – न यक्ष, न राक्षस, न वेताल, न शाकिनी और न ही ग्रह।
अग्नेभ्र्यं न वाताच्च न स्मुद्रान्न वै विषात् ।
कामणं वा शत्रुकृतं वशीकरणमेव च ॥
- “अग्नेभ्र्यं न वाताच्च न स्मुद्रान्न वै विषात्” – न अग्नि से, न वायु से, न समुद्र से, न विष से,
- “कामणं वा शत्रुकृतं वशीकरणमेव च” – न कामना से, न शत्रु द्वारा की गई क्रियाओं से, न वशीकरण से,
उच्चाटनं स्तम्भनं च विद्वेषणमथापि वा ।
न किन्चितप्रभवेत्त्र यत्रैषा वर्ततेऽभया ॥
- “उच्चाटनं स्तम्भनं च विद्वेषणमथापि वा” – उच्चाटन (बिखेरना), स्तम्भन (रोकना), और विद्वेषण (बाधा उत्पन्न करना) से भी,
- “न किन्चितप्रभवेत्त्र यत्रैषा वर्ततेऽभया” – कुछ भी प्रभावित नहीं कर सकता जहां यह देवी अभया (भयरहित) के रूप में विद्यमान हैं।
पठेद वा यदि वा चित्रे पुस्तके वा मुखेऽथवा ।
हृदि वा द्वार्देशे व वर्तते हृाभय: पुमान् ॥
- “पठेद वा यदि वा चित्रे पुस्तके वा मुखेऽथवा” – चाहे पढ़े, चित्र में, पुस्तक में, या मुख से,
- “हृदि वा द्वार्देशे व वर्तते हृदयाभय: पुमान्” – चाहे हृदय में या घर के द्वार पर, जो व्यक्ति हृदय से अभय (निर्भय) रहता है।
ह्रदय विन्यसेदेतां ध्यायदेवीं चतुर्भुजां ।
रक्त्माल्याम्बरधरां पद्दरागसम्प्रभां ॥
- “हृदय विन्यसेदेतां ध्यायदेवीं चतुर्भुजां” – हृदय में इसे स्थापित करते हुए, चतुर्भुजा देवी का ध्यान करें।
- “रक्तमाल्याम्बरधरां पद्मरागसम्प्रभां” – जो रक्त माल्य और वस्त्र धारण किए हैं और पद्मराग (मणि) जैसी चमक वाली हैं।
पाशाकुशाभयवरैरलंकृतसुविग्रहां ।
साध्केभ्य: प्र्यछ्न्तीं मंत्रवर्णामृतान्यापि ॥
- “पाशाकुशाभयवरैरलंकृतसुविग्रहां” – पाश, अंकुश और वरमुद्रा धारण किए हुए सुंदर रूप वाली।
- “साधकेभ्य: प्रयच्छंतीं मंत्रवर्णामृतान्यापि” – साधकों को मंत्रों के अमृत रूपी अक्षर देने वाली।
नात: परतरं किन्च्चिद्वाशिकरणमनुतम्ं ।
रक्षणं पावनं चापि नात्र कार्या विचारणा ॥
- “नात: परतरं किन्चिद्वाशिकरणमनुत्तमम्” – इससे श्रेष्ठ कोई अनुत्तम वशीकरण नहीं है।
- “रक्षणं पावनं चापि नात्र कार्या विचारणा” – रक्षा और पवित्रता प्रदान करती है, इस पर और विचार की आवश्यकता नहीं है।
प्रात: कुमारिका: पूज्या: खाद्दैराभरणैरपि ।
तदिदं वाचनीयं स्यातत्प्रिया प्रियते तू मां ॥
- “प्रात: कुमारिका: पूज्या: खाद्दैराभरणैरपि” – प्रातःकाल में कुमारिकाओं की पूजा की जाती है, खाद्य पदार्थों और आभूषणों से भी।
- “तदिदं वाचनीयं स्यातत्प्रिया प्रियते तू मां” – यह पढ़ा जाना चाहिए, जिससे कि वह (देवी) मुझे प्रिय करें।
ॐ अथात: सम्प्रक्ष्यामी विद्दामपी महाबलां ।
सर्व्दुष्टप्रश्मनी सर्वशत्रुक्षयड़्करीं ॥
- “ॐ अथात: सम्प्रक्ष्यामी विद्दामपी महाबलां” – ओम, अब मैं इस महाबली विद्या को समझाऊंगा।
- “सर्वदुष्टप्रशमनी सर्वशत्रुक्षयड्करीं” – सभी दुष्टों को शांत करने वाली और सभी शत्रुओं का नाश करने वाली।
दारिद्र्य्दुखशमनीं दुभार्ग्यव्याधिनाशिनिं ।
भूतप्रेतपिशाचानां यक्श्गंध्वार्क्षसां ॥
- “दारिद्र्यदुखशमनीं दुभार्ग्यव्याधिनाशिनिं” – दरिद्रता और दुःख को दूर करने वाली और दुर्भाग्य तथा रोगों का नाश करने वाली।
- “भूतप्रेतपिशाचानां यक्श्गंध्वार्क्षसां” – भूत, प्रेत, पिशाच, यक्ष, गंधर्व, और राक्षसों का नाश करने वाली।
डाकिनी शाकिनी स्कन्द कुष्मांडनां च नाशिनिं ।
महारौदिं महाशक्तिं सघ: प्रत्ययकारिणीं ॥
- “डाकिनी शाकिनी स्कन्द कुष्मांडनां च नाशिनिं” – डाकिनी, शाकिनी, स्कन्द, और कुष्मांड का नाश करने वाली।
- “महारौदिं महाशक्तिं सघ: प्रत्ययकारिणीं” – महान रौद्र और महान शक्ति वाली, जो सघन विश्वास उत्पन्न करती हैं।
गोपनीयं प्रयत्नेन सर्वस्वंपार्वतीपते: ।
तामहं ते प्रवक्ष्यामि सावधानमनाः श्रृणु ॥
- “गोपनीयं प्रयत्नेन सर्वस्वंपार्वतीपते:” – इसे प्रयत्नपूर्वक गोपनीय रखना चाहिए, यह सर्वस्व है पार्वती के पति का।
- “तामहं ते प्रवक्ष्यामि सावधानमनाः श्रृणु” – उसे मैं तुम्हें बताऊंगा, सावधानी से सुनो।
एकाहिृकं द्वहिकं च चातुर्थिकर्ध्मासिकं।
द्वैमासिकं त्रैमासिकं तथा चातुर्थ्मासिकं ॥
- “एकाहिकं द्वहिकं च चातुर्थिकर्ध्मासिकं” – एक दिन की, दो दिन की, चार दिन की, अर्धमासिक (पंद्रह दिन)।
- “द्वैमासिकं त्रैमासिकं तथा चातुर्थमासिकं” – दो महीने की, तीन महीने की, और चार महीने की साधनाओं का वर्णन किया गया है।
पाँचमासिक षाड्मासिकं वातिक पैत्तिक्ज्वरं।
श्रैष्मिकं सानिपातिकं तथैव सततज्वरं ॥
- “पाँचमासिक षाड्मासिकं वातिक पैत्तिक्ज्वरं” – पांच महीने और छह महीने के दौरान विकसित होने वाले वात और पित्त ज्वर।
- “श्रैष्मिकं सानिपातिकं तथैव सततज्वरं” – ग्रीष्मकालीन, सानिपातिक (त्रिदोष ज्वर) और सतत (निरंतर) ज्वर।
मौहूर्तिकं पैत्तिकं शीतज्वरं विषमज्वरं ।
द्वहिंकं त्रयहिन्कं चैव ज्वर्मेकाहिकं तथा ॥
- “मौहूर्तिकं पैत्तिकं शीतज्वरं विषमज्वरं” – क्षणिक, पित्तज, शीत और विषम ज्वर।
- “द्वहिंकं त्रयहिन्कं चैव ज्वर्मेकाहिकं तथा” – दो दिन, तीन दिन और एक दिन में विकसित होने वाले ज्वर।
क्षिप्रं नाशयेते नित्यं स्मरणाद्पराजिता।
यत एवागतं पापं तत्रैव प्रतिगच्छ्तु, स्वाहेत्योंम ॥
- “क्षिप्रं नाशयेते नित्यं स्मरणाद्पराजिता” – नियमित रूप से पराजिता की स्मरण से तुरंत नष्ट हो जाते हैं।
- “यत एवागतं पापं तत्रैव प्रतिगच्छ्तु, स्वाहेत्योंम” – जो कुछ भी बुराई आई है, वह वहीं लौट जाए, स्वाहा।
अमोघैषा महाविद्दा वैष्णवी चापराजिता ।
स्वयं विश्नुप्रणीता च सिद्धेयं पाठत: सदा ॥
- “अमोघैषा महाविद्दा वैष्णवी चापराजिता” – यह महाविद्या अमोघ (अचूक) है, वैष्णवी और अपराजिता।
- “स्वयं विश्नुप्रणीता च सिद्धेयं पाठत: सदा” – स्वयं विष्णु द्वारा प्रणीत (स्थापित) और पाठ करने से सदैव सिद्ध होने वाली।
एषा महाबला नाम कथिता तेऽपराजित ।
नानया सदृशी रक्षा त्रिषु लोकेषु विद्दते ॥
- “एषा महाबला नाम कथिता तेऽपराजित” – इसे ‘महाबला’ के नाम से जाना जाता है, ओ अपराजित।
- “नानया सदृशी रक्षा त्रिषु लोकेषु विद्दते” – इसके समान कोई रक्षा तीनों लोकों में नहीं पाई जाती।
तमोगुणमयी साक्षद्रोद्री शक्तिरियं मता ।
कृतान्तोऽपि यतोभीत: पाद्मुले व्यवस्थित: ॥
- “तमोगुणमयी साक्षद्रोद्री शक्तिरियं मता” – यह शक्ति साक्षात तमोगुणमयी और रौद्री (उग्र) मानी जाती है।
- “कृतान्तोऽपि यतोभीत: पाद्मुले व्यवस्थित:” – यहां तक कि कृतांत (मृत्यु) भी इससे भयभीत है और पादुका के नीचे व्यवस्थित है।
मूलाधारे न्यसेदेतां रात्रावेन च संस्मरेत ।
नीलजीतमूतसंड़्काशां तडित्कपिलकेशिकाम् ॥
- “मूलाधारे न्यसेदेतां रात्रावेन च संस्मरेत” – मूलाधार चक्र में इसे स्थापित करें और रात में इसका स्मरण करें।
- “नीलजीतमूतसंडकाशां तडित्कपिलकेशिकाम्” – जिसका रंग नीलजीतमूत (गहरा नीला) के समान है और जिसके कपिल (भूरे) रंग के केश हैं।
उद्ददादित्यसंकाशां नेत्रत्रयविराजिताम् ।
शक्तिं त्रिशूलं शड़्खं चपानपात्रं च बिभ्रतीं ।
व्याघ्र्चार्म्परिधानां किड़्किणीजालमंडितं ॥
- “उद्ददादित्यसंकाशां नेत्रत्रयविराजिताम्” – जिसका तेज सूर्य के समान है और जिसकी तीन नेत्र चमक रहे हैं।
- “शक्तिं त्रिशूलं शड्खं चपानपात्रं च बिभ्रतीं” – जो शक्ति, त्रिशूल, शंख और पान पात्र धारण कर रही हैं।
- “व्याघ्रचार्मपरिधानां किड्किणीजालमंडितं” – जो व्याघ्र की खाल पहने हुए हैं और किंकिणी (छोटी घंटियाँ) से सजी हुई हैं।
धावंतीं गगंस्यांत: पादुकाहितपादकां ।
दंष्टाकरालवदनां व्यालकुण्डलभूषितां ॥
- “धावंतीं गगनस्यांत: पादुकाहितपादकां” – जो आकाश में दौड़ रही हैं और जिनके पादुका से हितकारी पदचिन्ह पड़ रहे हैं।
- “दंष्टाकरालवदनां व्यालकुण्डलभूषितां” – जिसका मुख विकराल और दंष्ट्रायुक्त है और जो व्याल (सर्प) कुंडल से सजी हुई हैं।
व्यात्वक्त्रां ललजिहृां भुकुटिकुटिलालकां ।
स्वभक्तद्वेषिणां रक्तं पिबन्तीं पान्पात्रत: ॥
- “व्यात्वक्त्रां ललजिहृां भुकुटिकुटिलालकां” – जिनका मुख विकृत है, जीभ लाल है, और जिनके बाल कुटिल हैं।
- “स्वभक्तद्वेषिणां रक्तं पिबन्तीं पानपात्रत:” – अपने भक्तों के दुश्मनों का रक्त पीते हुए, पान पात्र से।
सप्तधातून शोषयन्तीं क्रूरदृष्टया विलोकनात् ।
त्रिशुलेन च तज्जिहृां कीलयंतीं मुहुमुर्हु: ॥
- “सप्तधातून शोषयन्तीं क्रूरदृष्टया विलोकनात्” – अपनी क्रूर दृष्टि से सात धातुओं को सुखाने वाली।
- “त्रिशूलेन च तज्जिहृां कीलयंतीं मुहुमुर्हु:” – त्रिशूल से बार-बार उस जीभ को छेदते हुए।
पाशेन बद्धा तं साधमानवंतीं तन्दिके ।
अर्द्धरात्रस्य समये देवीं ध्यायेंमहबलां ॥
- “पाशेन बद्धा तं साधमानवंतीं तन्दिके” – पाश से बंधा हुआ, उस साधु पुरुष को तंडव करते हुए।
- “अर्द्धरात्रस्य समये देवीं ध्यायेंमहबलां” – अर्धरात्रि के समय में इस महाबली देवी का ध्यान करें।
यस्य यस्य वदेन्नाम जपेन्मंत्रं निशांतके ।
तस्य तस्य तथावस्थां कुरुते सापियोगिनी ॥
- “यस्य यस्य वदेन्नाम जपेन्मंत्रं निशांतके” – जिस किसी का नाम लेते हुए, जिस किसी मंत्र का जप रात के अंत में किया जाता है,
- “तस्य तस्य तथावस्थां कुरुते सापियोगिनी” – उस उस की स्थिति को वह योगिनी (देवी) तथा बना देती है।
ॐ बले महाबले असिद्धसाधनी स्वाहेति, अमोघां पठति सिद्धां श्रीवैष्णवीं। श्रीमद्पाराजिताविद्दां ध्यायते ॥
- “ॐ बले महाबले असिद्धसाधनी स्वाहेति, अमोघां पठति सिद्धां श्रीवैष्णवीं” – “ओम बले महाबले असिद्ध साधनी स्वाहा”, इस अमोघ (अचूक) मंत्र को पढ़ता है जो सिद्ध श्री वैष्णवी है।
- “श्रीमद्पाराजिताविद्दां ध्यायते” – श्रीमद् अपराजिता विद्या का ध्यान करते हैं।
दु:स्वप्ने दुरारिष्टे च दुर्निमिते तथैव च ।
व्यवहारे भवेत्सिद्धि: पठेद्विघ्नोपशान्त्ये ॥
- “दुःस्वप्ने दुरारिष्टे च दुर्निमिते तथैव च” – बुरे सपनों, अशुभ घटनाओं और अशुभ लक्षणों में भी,
- “व्यवहारे भवेत्सिद्धि: पठेद्विघ्नोपशान्त्ये” – व्यवहार में सिद्धि प्राप्त होती है, इसे पढ़ने से सभी विघ्नों का शांत होना।
यदत्र पाठे जगदम्बिके मया, विसर्गबिन्द्धऽक्षरहीमीड़ितं ।
तदस्तु सम्पूर्णतमं प्रयान्तु मे, सड़्कल्पसिद्धिस्तु सदैव जायतां ॥
- “यदत्र पाठे जगदम्बिके मया, विसर्गबिन्द्धऽक्षरहीमीड़ितं” – हे जगदम्बिके (विश्व की माँ), यदि इस पाठ में मैंने कोई अक्षर गलती से छोड़ दिया हो या कोई त्रुटि हो गई हो,
- “तदस्तु सम्पूर्णतमं प्रयान्तु मे, सड़्कल्पसिद्धिस्तु सदैव जायतां” – तो वह (त्रुटि) पूर्ण हो जाए और मेरी सभी साधनाएँ सफल हों, संकल्प सिद्धि सदैव मेरे लिए हो।
तव तत्वं न जानामि किदृशासी महेश्वरी।
यादृशासी महादेवी ताद्रिशायै नमो नम: ॥
- “तव तत्वं न जानामि किदृशासी महेश्वरी” – तेरे वास्तविक स्वरूप को मैं नहीं जानता, कैसी हो तुम महेश्वरी।
- “यादृशासी महादेवी ताद्रिशायै नमो नम:” – जैसी भी हो तुम महादेवी, उसी रूप में तुम्हें मेरा नमस्कार है।
य इमां पराजितां परम्वैष्ण्वीं प्रतिहतां
पठति सिद्धां स्मरति सिद्धां महाविद्द्यां ॥
- “य इमां पराजितां परम्वैष्ण्वीं प्रतिहतां पठति सिद्धां स्मरति सिद्धां महाविद्द्यां” – जो इस पराजिता, परम वैष्णवी, प्रतिहत (अपराजित) विद्या का पाठ करता है और स्मरण करता है, वह सिद्ध होता है, वह महाविद्या है।
जपति पठति श्रृणोति स्मरति धारयति किर्तयती वा
न तस्याग्निवायुवज्रोपलाश्निवर्शभयं ॥
- “जपति पठति श्रृणोति स्मरति धारयति किर्तयती वा” – जो कोई भी जप करता है, पढ़ता है, सुनता है, याद करता है, धारण करता है, या गुणगान करता है,
- “न तस्याग्निवायुवज्रोपलाश्निवर्शभयं” – उसे आग, वायु, वज्र, शिला, या बैल जैसे प्राणियों का कोई भय नहीं होता,
न समुद्रभयं न ग्रह्भयं न चौरभयं
न शत्रुभयं न शापभयं वा भवेत् ॥
- “न समुद्रभयं न ग्रह्भयं न चौरभयं” – न समुद्र का भय, न ग्रहों का भय, न चोरों का भय,
- “न शत्रुभयं न शापभयं वा भवेत्” – न शत्रुओं का भय, न शाप का भय होता है।
क्वाचिद्रत्र्यधकारस्त्रीराजकुलविद्वेषी
विषगरगरदवशीकरण विद्वेशोच्चाटनवध बंधंभयं वा न भवेत् ॥
- “क्वाचिद्रत्र्यधकारस्त्रीराजकुलविद्वेषी” – कभी भी रात्रि के अंधकार में या राजकुल (राजवंश) के विरोधी होने पर,
- “विषगरगरदवशीकरण विद्वेशोच्चाटनवध बंधंभयं वा न भवेत्” – विष, गरल (जहर), वशीकरण, विद्वेष (द्वेष), उच्चाटन (निकालना), वध (हत्या), बंधन का डर नहीं होता।
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