श्री सूक्तम एक संस्कृत स्तोत्र है जो हिन्दू धर्म की देवी लक्ष्मी को समर्पित है। लक्ष्मी धन, समृद्धि, और उर्वरता की देवी मानी जाती हैं। यह ऋग्वेद का एक हिस्सा है, जो हिन्दू धर्म के सबसे पुराने शास्त्रों में से एक है, और आमतौर पर लक्ष्मी की कृपा आकर्षित करने के लिए पूजा रितुअल्स और समारोहों में पढ़ा जाता है।
॥ वैभव प्रदाता श्री सूक्त ॥
हरिः ॐ हिरण्यवर्णां हरिणीं सुवर्णरजतस्रजाम्।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह॥1॥
तां म आवह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम्।
यस्यां हिरण्यं विन्देयं गामश्वं पुरुषानहम्॥2॥
अश्वपूर्वां रथमध्यां हस्तिनादप्रबोधिनीम्।
श्रियं देवीमुपह्वये श्रीर्मा देवी जुषताम्॥3॥
कां सोस्मितां हिरण्यप्राकारामार्द्रां ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीम्।
पद्मे स्थितां पद्मवर्णां तामिहोपह्वये श्रियम्॥4॥
चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्वलन्तीं श्रियं लोके देवजुष्टामुदाराम्।
तां पद्मिनीमीं शरणमहं प्रपद्येऽलक्ष्मीर्मे नश्यतां त्वां वृणे॥5॥
आदित्यवर्णे तपसोऽधिजातो वनस्पतिस्तव वृक्षोऽथ बिल्वः।
तस्य फलानि तपसानुदन्तु मायान्तरायाश्च बाह्या अलक्ष्मीः॥6॥
उपैतु मां देवसखः कीर्तिश्च मणिना सह।
प्रादुर्भूतोऽस्मि राष्ट्रेऽस्मिन् कीर्तिमृद्धिं ददातु मे॥7॥
क्षुत्पिपासामलां ज्येष्ठामलक्ष्मीं नाशयाम्यहम्।
अभूतिमसमृद्धिं च सर्वां निर्णुद मे गृहात्॥8॥
गन्धद्वारां दुराधर्षां नित्यपुष्टां करीषिणीम्।
ईश्वरीं सर्वभूतानां तामिहोपह्वये श्रियम्॥9॥
मनसः काममाकूतिं वाचः सत्यमशीमहि।
पशूनां रूपमन्नस्य मयि श्रीः श्रयतां यशः॥10॥
कर्दमेन प्रजाभूता मयि सम्भव कर्दम।
श्रियं वासय मे कुले मातरं पद्ममालिनीम्॥11॥
आपः सृजन्तु स्निग्धानि चिक्लीत वस मे गृहे।
नि च देवीं मातरं श्रियं वासय मे कुले॥12॥
आर्द्रां पुष्करिणीं पुष्टिं पिङ्गलां पद्ममालिनीम्।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह॥13॥
आर्द्रां यः करिणीं यष्टिं सुवर्णां हेममालिनीम्।
सूर्यां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह॥14॥
तां म आवह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम्।
यस्यां हिरण्यं प्रभूतं गावो दास्योऽश्वान् विन्देयं पुरुषानहम्॥15॥
यः शुचिः प्रयतो भूत्वा जुहुयादाज्यमन्वहम्।
सूक्तं पञ्चदशर्चं च श्रीकामः सततं जपेत्॥16॥
पद्मानने पद्म ऊरू पद्माक्षी पद्मसम्भवे।
त्वं मां भजस्व पद्माक्षी येन सौख्यं लभाम्यहम्॥17॥
अश्वदायि गोदायि धनदायि महाधने।
धनं मे जुषतां देवि सर्वकामांश्च देहि मे॥18॥
पुत्रपौत्र धनं धान्यं हस्त्यश्वादिगवे रथम्।
प्रजानां भवसि माता आयुष्मन्तं करोतु माम्॥19॥
धनमग्निर्धनं वायुर्धनं सूर्यो धनं वसुः।
धनमिन्द्रो बृहस्पतिर्वरुणं धनमश्नुते॥20॥
वैनतेय सोमं पिब सोमं पिबतु वृत्रहा।
सोमं धनस्य सोमिनो मह्यं ददातु सोमिनः॥21॥
न क्रोधो न च मात्सर्य न लोभो नाशुभा मतिः।
भवन्ति कृतपुण्यानां भक्तानां श्रीसूक्तं जपेत्सदा॥22॥
वर्षन्तु ते विभावरि दिवो अभ्रस्य विद्युतः।
रोहन्तु सर्वबीजान्यव ब्रह्म द्विषो जहि॥23॥
पद्मप्रिये पद्मिनि पद्महस्ते पद्मालये पद्मदलायताक्षि।
विश्वप्रिये विष्णु मनोऽनुकूले त्वत्पादपद्मं मयि सन्निधत्स्व॥24॥
या सा पद्मासनस्था विपुलकटितटी पद्मपत्रायताक्षी।
गम्भीरा वर्तनाभिः स्तनभर नमिता शुभ्र वस्त्रोत्तरीया॥25॥
लक्ष्मीर्दिव्यैर्गजेन्द्रैर्मणिगणखचितैस्स्नापिता हेमकुम्भैः।
नित्यं सा पद्महस्ता मम वसतु गृहे सर्वमाङ्गल्ययुक्ता॥26॥
लक्ष्मीं क्षीरसमुद्र राजतनयां श्रीरङ्गधामेश्वरीम्।
दासीभूतसमस्त देव वनितां लोकैक दीपांकुराम्॥27॥
श्रीमन्मन्दकटाक्षलब्ध विभव ब्रह्मेन्द्रगङ्गाधराम्।
त्वां त्रैलोक्य कुटुम्बिनीं सरसिजां वन्दे मुकुन्दप्रियाम्॥28॥
सिद्धलक्ष्मीर्मोक्षलक्ष्मीर्जयलक्ष्मीस्सरस्वती।
श्रीलक्ष्मीर्वरलक्ष्मीश्च प्रसन्ना मम सर्वदा॥29॥
वरांकुशौ पाशमभीतिमुद्रां करैर्वहन्तीं कमलासनस्थाम्।
बालार्क कोटि प्रतिभां त्रिणेत्रां भजेहमाद्यां जगदीश्वरीं त्वाम्॥30॥
सर्वमङ्गलमाङ्गल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके।
शरण्ये त्र्यम्बके देवि नारायणि नमोऽस्तु ते॥31॥
सरसिजनिलये सरोजहस्ते धवलतरांशुक गन्धमाल्यशोभे।
भगवति हरिवल्लभे मनोज्ञे त्रिभुवनभूतिकरि प्रसीद मह्यम्॥32॥
विष्णुपत्नीं क्षमां देवीं माधवीं माधवप्रियाम्।
विष्णोः प्रियसखीं देवीं नमाम्यच्युतवल्लभाम्॥33॥
महालक्ष्मी च विद्महे विष्णुपत्नीं च धीमहि।
तन्नो लक्ष्मीः प्रचोदयात्॥34॥
श्रीवर्चस्यमायुष्यमारोग्यमाविधात् पवमानं महियते।
धनं धान्यं पशुं बहुपुत्रलाभं शतसंवत्सरं दीर्घमायुः॥35॥
ऋणरोगादिदारिद्र्यपापक्षुदपमृत्यवः।
भयशोकमनस्तापा नश्यन्तु मम सर्वदा॥36॥
य एवं वेद ॐ महादेव्यै च विद्महे विष्णुपत्नीं च धीमहि।
तन्नो लक्ष्मीः प्रचोदयात् ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥37॥
श्री सूक्तम के मुख्य विषय, आवाहन और अर्थ सहित व्याख्या
श्री सूक्तम के वर्णन में लक्ष्मी को स्वर्णिम चमक की प्रतिमूर्ति, समृद्धि की दाता, और दुर्भाग्य को दूर करने वाली के रूप में स्तुति की गई है। उन्हें विश्व की माता, विष्णु के हृदय में निवास करने वाली, और सृष्टि के सभी स्रोतों की जननी के रूप में आह्वान किया गया है। यहाँ उनके कुछ श्लोकों का हिंदी अनुवाद दिया गया है:
श्लोक 1:
हरिः ॐ हिरण्यवर्णां हरिणीं सुवर्णरजतस्रजाम्। चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह॥
अर्थ: हे जातवेद (अग्नि), मुझे हिरण्यवर्णा (सुनहरे रंग की), हरिणी (मृगनयनी, जिसकी आंखें हिरण की तरह सुंदर हैं), सुवर्ण और रजत से बनी हुई मालाओं वाली, चंद्रमा के समान चमकदार और सोने से निर्मित लक्ष्मी को लाने का आदेश दो।
श्लोक 2:
तां म आवह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम्। यस्यां हिरण्यं विन्देयं गामश्वं पुरुषानहम्॥
अर्थ: हे जातवेद, मुझे उस लक्ष्मी को लाने का आदेश दो जो कभी नहीं जाती (स्थायी लक्ष्मी), जिसमें मैं सोना, गायें, घोड़े और मनुष्य प्राप्त करूँ।
श्लोक 3:
अश्वपूर्वां रथमध्यां हस्तिनादप्रबोधिनीम्। श्रियं देवीमुपह्वये श्रीर्मा देवी जुषताम्॥
अर्थ: अश्व (घोड़े) के समान तेजस्वी, रथ के मध्य में स्थित, हाथियों की गर्जना से जागने वाली देवी श्री (लक्ष्मी) को मैं पुकारता हूँ, वह देवी श्री मुझे स्वीकार करे।
श्लोक 4:
कां सोस्मितां हिरण्यप्राकारामार्द्रां ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीम्। पद्मे स्थितां पद्मवर्णां तामिहोपह्वये श्रियम्॥
अर्थ: मैं उस मुस्कुराती हुई देवी को आह्वान करता हूँ, जिनकी देह सोने के समान चमकदार है, जो तृप्त और दूसरों को तृप्त करने वाली हैं, और जो जलती हुई और नम हैं। वह देवी जो कमल के फूल पर विराजमान हैं और जिनका वर्ण कमल के समान है, मैं उन्हें यहाँ आह्वान करता हूँ।
श्लोक 5:
चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्वलन्तीं श्रियं लोके देवजुष्टामुदाराम्। तां पद्मिनीमीं शरणमहं प्रपद्येऽलक्ष्मीर्मे नश्यतां त्वां वृणे॥
अर्थ: मैं उस देवी की शरण लेता हूँ जिनकी चमक चंद्रमा के समान है, जो यश से ज्वलन्त हैं, जिन्हें देवताओं द्वारा पूजा जाता है और जो उदार हैं। मैं उस कमलनी (लक्ष्मी) को चुनता हूँ, और प्रार्थना करता हूँ कि मेरी अलक्ष्मी (दुर्भाग्य) नष्ट हो जाए।
श्लोक 6:
आदित्यवर्णे तपसोऽधिजातो वनस्पतिस्तव वृक्षोऽथ बिल्वः। तस्य फलानि तपसानुदन्तु मायान्तरायाश्च बाह्या अलक्ष्मीः॥
अर्थ: सूर्य के वर्ण के, तपस्या से उत्पन्न हुए वनस्पति, तेरा वृक्ष बिल्व है। इस वृक्ष के फल तपस्या से पोषित हों, और सभी प्रकार की बाहरी और भीतरी अलक्ष्मी (बाधाएँ और नकारात्मकता) दूर हों।
श्लोक 7:
उपैतु मां देवसखः कीर्तिश्च मणिना सह। प्रादुर्भूतोऽस्मि राष्ट्रेऽस्मिन् कीर्तिमृद्धिं ददातु मे॥
अर्थ: मेरे पास आओ, हे देवों के मित्र (देवी लक्ष्मी), कीर्ति और रत्नों के साथ। मैं इस राष्ट्र में प्रकट हुआ हूँ; मुझे कीर्ति और समृद्धि प्रदान करो।
श्लोक 8:
क्षुत्पिपासामलां ज्येष्ठामलक्ष्मीं नाशयाम्यहम्। अभूतिमसमृद्धिं च सर्वां निर्णुद मे गृहात्॥
अर्थ: मैं भूख, प्यास, और अन्य कष्टों से युक्त ज्येष्ठा अलक्ष्मी (दुर्भाग्य) को नष्ट करता हूँ। सभी प्रकार की अभाव और असमृद्धि को मेरे घर से दूर करो।
श्लोक 9:
गन्धद्वारां दुराधर्षां नित्यपुष्टां करीषिणीम्। ईश्वरीं सर्वभूतानां तामिहोपह्वये श्रियम्॥
अर्थ: मैं गंध के द्वारा आने वाली, अद्वितीय और निरंतर पोषित, और सभी प्रकार की कीचड़ का उपयोग करने वाली ईश्वरी (सर्वोच्च) श्री (लक्ष्मी), सभी प्राणियों की देवी, को यहाँ आमंत्रित करता हूँ।
श्लोक 10:
मनसः काममाकूतिं वाचः सत्यमशीमहि। पशूनां रूपमन्नस्य मयि श्रीः श्रयतां यशः॥
अर्थ: मेरी मनोकामनाएँ पूर्ण हों, मेरे वचन सत्य हों, मैं अच्छे रूप और अन्न (भोजन) से समृद्ध होऊं। मेरे ऊपर श्री (लक्ष्मी) की कृपा हो और यश (प्रतिष्ठा) मेरा आश्रय हो।
श्लोक 11:
कर्दमेन प्रजाभूता मयि सम्भव कर्दम। श्रियं वासय मे कुले मातरं पद्ममालिनीम्॥
अर्थ: हे कर्दम (यहाँ पर प्रजनन क्षमता का प्रतीक), मेरे में प्रजनन हो। मेरे कुल में श्री (समृद्धि और सौभाग्य) को निवास कराओ, हे पद्ममालिनी माता (लक्ष्मी, जो कमल की माला पहनती हैं)।
श्लोक 12:
आपः सृजन्तु स्निग्धानि चिक्लीत वस मे गृहे। नि च देवीं मातरं श्रियं वासय मे कुले॥
अर्थ: जल (आपः) मेरे घर में स्निग्धता (स्नेह और समृद्धि) उत्पन्न करें। हे देवी, हे माता श्री, मेरे कुल में निवास करो।
श्लोक 13:
आर्द्रां पुष्करिणीं पुष्टिं पिङ्गलां पद्ममालिनीम्। चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह॥
अर्थ: हे जातवेद (अग्नि), मेरे पास आर्द्रा (नम और समृद्ध), पुष्करिणी (कमल की पूल से युक्त), पुष्टि (पोषण देने वाली), पिङ्गला (गहरे भूरे रंग की), पद्ममालिनी (कमल की माला पहनने वाली), चंद्रानना (चांद की तरह सुंदर), हिरण्मयी (स्वर्णिम) लक्ष्मी को लाओ।
श्लोक 14:
आर्द्रां यः करिणीं यष्टिं सुवर्णां हेममालिनीम्। सूर्यां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह॥
अर्थ: हे जातवेद, मेरे पास आर्द्रा (नम), यः करिणी (जिसकी उपस्थिति में प्रचुरता हो), यष्टि (डंडी), सुवर्णा (सोने के रंग की), हेममालिनी (सोने की माला पहनने वाली), सूर्य समान चमकदार हिरण्मयी लक्ष्मी को लाओ।
श्लोक 15:
तां म आवह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम्। यस्यां हिरण्यं प्रभूतं गावो दास्योऽश्वान् विन्देयं पुरुषानहम्॥
अर्थ: हे जातवेद, मुझे वह लक्ष्मी लाओ जो कभी न जाए (स्थायी लक्ष्मी), जिसमें प्रचुर हिरण्य (सोना), गायें, दास, घोड़े, और मनुष्य मिल सकें।
श्लोक 16:
यः शुचिः प्रयतो भूत्वा जुहुयादाज्यमन्वहम्। सूक्तं पञ्चदशर्चं च श्रीकामः सततं जपेत्॥
अर्थ: जो व्यक्ति शुद्ध और संकल्पित हो, उसे रोज़ घी का हवन करना चाहिए और श्री सूक्त की पंद्रह ऋचाओं का निरंतर जाप करना चाहिए यदि वह लक्ष्मी की कामना रखता है।
श्लोक 17:
पद्मानने पद्म ऊरू पद्माक्षी पद्मसम्भवे। त्वं मां भजस्व पद्माक्षी येन सौख्यं लभाम्यहम्॥
अर्थ: हे पद्मानने (कमल के समान चेहरे वाली), पद्म ऊरू (कमल के समान जांघों वाली), पद्माक्षी (कमल के समान आंखों वाली), पद्मसम्भवे (कमल से उत्पन्न), हे पद्माक्षी, तुम मुझे भजो जिससे मैं सुख प्राप्त कर सकूँ।
श्लोक 18:
अश्वदायि गोदायि धनदायि महाधने। धनं मे जुषतां देवि सर्वकामांश्च देहि मे॥
अर्थ: हे अश्वदायि (घोड़े देने वाली), गोदायि (गायें देने वाली), धनदायि (धन देने वाली), महाधने (महान धन वाली), हे देवी, मुझे धन और सभी इच्छाओं को पूरा करने की कृपा करो।
श्लोक 19:
पुत्रपौत्र धनं धान्यं हस्त्यश्वादिगवे रथम्। प्रजानां भवसि माता आयुष्मन्तं करोतु माम्॥
अर्थ: पुत्र, पौत्र, धन, धान्य, हाथी, घोड़े, गाय, रथ — ये सभी मुझे प्रदान किया जाए। हे लक्ष्मी, जो सभी प्राणियों की माता हैं, कृपया मुझे दीर्घायु बनाओ।
श्लोक 20:
धनमग्निर्धनं वायुर्धनं सूर्यो धनं वसुः। धनमिन्द्रो बृहस्पतिर्वरुणं धनमश्नुते॥
अर्थ: अग्नि से धन, वायु से धन, सूर्य से धन, और वसु से धन; इंद्र और बृहस्पति से धन, और वरुण से धन प्राप्त हो। इस श्लोक में विभिन्न देवताओं से धन की प्राप्ति की कामना की गई है।
श्लोक 21:
वैनतेय सोमं पिब सोमं पिबतु वृत्रहा। सोमं धनस्य सोमिनो मह्यं ददातु सोमिनः॥
अर्थ: हे गरुड़ (वैनतेय), सोमरस पीओ; हे इंद्र (वृत्रहा, जिसने वृत्र का वध किया), सोमरस पीओ। जो सोम के धनी हैं, वे मुझे सोमरस दें। यह श्लोक सोमरस के माध्यम से धन और समृद्धि की प्रार्थना करता है।
श्लोक 22:
न क्रोधो न च मात्सर्य न लोभो नाशुभा मतिः। भवन्ति कृतपुण्यानां भक्तानां श्रीसूक्तं जपेत्सदा॥
अर्थ: क्रोध, ईर्ष्या, लोभ, और अशुभ विचार उन भक्तों में नहीं होते जो कृतपुण्य हैं, और जो सदैव श्री सूक्त का जाप करते हैं। यह श्लोक भक्ति के माध्यम से नैतिक और आध्यात्मिक शुद्धि को प्रोत्साहित करता है।
श्लोक 23:
वर्षन्तु ते विभावरि दिवो अभ्रस्य विद्युतः। रोहन्तु सर्वबीजान्यव ब्रह्म द्विषो जहि॥
अर्थ: आकाश की बिजलियाँ तुम पर वर्षा करें, और सभी बीज उगें; हे ब्रह्मण (सर्वशक्तिमान), सभी द्वेषों को नष्ट कर दो। यह श्लोक प्रकृति की शक्तियों और ब्रह्मांड की सकारात्मक ऊर्जाओं को साकार करने की प्रार्थना करता है।
श्लोक 24:
पद्मप्रिये पद्मिनि पद्महस्ते पद्मालये पद्मदलायताक्षि। विश्वप्रिये विष्णु मनोऽनुकूले त्वत्पादपद्मं मयि सन्निधत्स्व॥
अर्थ: हे पद्मप्रिये (कमल को प्रिय), पद्मिनी (कमल में निवास करने वाली), पद्महस्ते (कमल को हाथ में धारण करने वाली), पद्मालये (कमल के घर में निवास करने वाली), पद्मदलायताक्षि (कमल की पंखुड़ियों जैसी आँखें वाली), विश्वप्रिये (संसार को प्रिय), विष्णु मनोऽनुकूले (विष्णु के मन के अनुकूल), अपने पद्मपद्म (कमल के फूल के पाद) को मेरे पास स्थापित करो।
श्लोक 25:
या सा पद्मासनस्था विपुलकटितटी पद्मपत्रायताक्षी। गम्भीरा वर्तनाभिः स्तनभर नमिता शुभ्र वस्त्रोत्तरीया॥
अर्थ: वह देवी जो पद्मासन पर विराजमान हैं, जिनकी विशाल कमर है और कमल के पत्तों जैसी चौड़ी आंखें हैं, जिनकी नाभि गहरी है और जिनके भारी स्तन नम्र हैं, और जो शुभ्र वस्त्रों में लिपटी हुई हैं।
श्लोक 26:
लक्ष्मीर्दिव्यैर्गजेन्द्रैर्मणिगणखचितैस्स्नापिता हेमकुम्भैः। नित्यं सा पद्महस्ता मम वसतु गृहे सर्वमाङ्गल्ययुक्ता॥
अर्थ: लक्ष्मी, जिन्हें दिव्य हाथियों द्वारा और मणियों से जड़ित सोने के कुंभों से स्नान कराया गया है, जो सदैव पद्म (कमल) धारण करती हैं, वह सभी मांगलिक गुणों से युक्त होकर मेरे घर में निवास करें।
श्लोक 27:
लक्ष्मीं क्षीरसमुद्र राजतनयां श्रीरङ्गधामेश्वरीम्। दासीभूतसमस्त देव वनितां लोकैक दीपांकुराम्॥
अर्थ: लक्ष्मी, जो क्षीर सागर (दूध के समुद्र) की पुत्री हैं और श्रीरंगधाम की इश्वरी हैं, जिन्होंने सभी देवियों को अपनी दासी बना रखा है और जो संसार के लिए एकल दीपक की तरह हैं।
श्लोक 28:
श्रीमन्मन्दकटाक्षलब्ध विभव ब्रह्मेन्द्रगङ्गाधराम्। त्वां त्रैलोक्य कुटुम्बिनीं सरसिजां वन्दे मुकुन्दप्रियाम्॥
अर्थ: जिन्होंने अपनी कृपालु दृष्टि से ब्रह्मा, इंद्र और शिव (गंगाधर) को धन प्रदान किया है, उन त्रैलोक्य कुटुम्बिनी (तीन लोकों की माता), सरसिजां (कमल से जन्मी), मुकुन्द (विष्णु) की प्रिय देवी को मैं नमन करता हूँ।
श्लोक 29:
सिद्धलक्ष्मीर्मोक्षलक्ष्मीर्जयलक्ष्मीस्सरस्वती। श्रीलक्ष्मीर्वरलक्ष्मीश्च प्रसन्ना मम सर्वदा॥
अर्थ: सिद्धि प्रदान करने वाली सिद्धलक्ष्मी, मोक्ष प्रदान करने वाली मोक्षलक्ष्मी, विजय प्रदान करने वाली जयलक्ष्मी, ज्ञान प्रदान करने वाली सरस्वती, समृद्धि प्रदान करने वाली श्रीलक्ष्मी, और वरदान प्रदान करने वाली वरलक्ष्मी, सदैव मुझ पर प्रसन्न रहें।
श्लोक 30:
वरांकुशौ पाशमभीतिमुद्रां करैर्वहन्तीं कमलासनस्थाम्। बालार्क कोटि प्रतिभां त्रिणेत्रां भजेहमाद्यां जगदीश्वरीं त्वाम्॥
अर्थ: वरमुद्रा, अंकुश, पाश और अभयमुद्रा को अपने हाथों में धारण करने वाली, कमलासन पर विराजमान, करोड़ों सूर्यों के प्रतिभा समान और तीन नेत्रों वाली, आदि जगदीश्वरी देवी की मैं भक्ति करता हूँ।
श्लोक 31:
सर्वमङ्गलमाङ्गल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके। शरण्ये त्र्यम्बके देवि नारायणि नमोऽस्तु ते॥
अर्थ: तुम सभी मंगलों का स्रोत हो, सभी प्रयोजनों को सिद्ध करने वाली, शरण देने वाली, तीन आँखों वाली देवी, हे नारायणी, तुम्हें नमस्कार है। यह श्लोक देवी को सर्वशक्तिमान और सभी कल्याणकारी शक्तियों का स्रोत मानकर संबोधित करता है।
श्लोक 32:
सरसिजनिलये सरोजहस्ते धवलतरांशुक गन्धमाल्यशोभे। भगवति हरिवल्लभे मनोज्ञे त्रिभुवनभूतिकरि प्रसीद मह्यम्॥
अर्थ: हे कमल पर निवास करने वाली, कमल धारण करने वाले हाथों वाली, उज्ज्वल वस्त्र और सुगंधित मालाओं से शोभित, हे भगवती हरि की प्रिय, मनोहर, तीन लोकों की समृद्धि देने वाली, मुझ पर प्रसन्न हो।
श्लोक 33:
विष्णुपत्नीं क्षमां देवीं माधवीं माधवप्रियाम्। विष्णोः प्रियसखीं देवीं नमाम्यच्युतवल्लभाम्॥
अर्थ: हे विष्णु की पत्नी, क्षमा स्वरूपिणी, माधवी, माधव की प्रियतमा, विष्णु की प्रिय सखी, अच्युत की प्रियतमा, मैं तुम्हें नमन करता हूँ। यह श्लोक देवी लक्ष्मी के विष्णु के साथ गहरे संबंधों और उनके दिव्य स्वरूप को व्यक्त करता है।
श्लोक 34:
महालक्ष्मी च विद्महे विष्णुपत्नीं च धीमहि। तन्नो लक्ष्मीः प्रचोदयात्॥
अर्थ: हम महालक्ष्मी को जानते हैं, विष्णु की पत्नी का ध्यान करते हैं। हमें लक्ष्मी प्रेरित करें। यह गायत्री मंत्र जैसा एक ध्यान मंत्र है जो लक्ष्मी की दिव्य ऊर्जा को आकर्षित करने के लिए है।
श्लोक 35:
श्रीवर्चस्यमायुष्यमारोग्यमाविधात् पवमानं महियते। धनं धान्यं पशुं बहुपुत्रलाभं शतसंवत्सरं दीर्घमायुः॥
अर्थ: समृद्धि, लंबी उम्र, स्वास्थ्य, पवित्रता और महत्व प्राप्त करें; धन, अनाज, पशु, अनेक संतानों की प्राप्ति, और शताब्दी लंबी उम्र प्राप्त हो। यह श्लोक भौतिक और आध्यात्मिक संपन्नता की प्रार्थना करता है।
श्लोक 36:
ऋणरोगादिदारिद्र्यपापक्षुदपमृत्यवः। भयशोकमनस्तापा नश्यन्तु मम सर्वदा॥
अर्थ: कर्ज, रोग, दरिद्रता, पाप, भूख, अकाल मृत्यु, भय, शोक और मानसिक पीड़ाएँ हमेशा मेरे लिए नष्ट हो जाएँ। यह श्लोक नकारात्मकता और दुखों से मुक्ति की प्रार्थना करता है।
श्लोक 37:
य एवं वेद ॐ महादेव्यै च विद्महे विष्णुपत्नीं च धीमहि। तन्नो लक्ष्मीः प्रचोदयात् ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥
अर्थ: जो इस प्रकार जानता है, महादेवी को जानते हैं, विष्णु की पत्नी का ध्यान करते हैं; लक्ष्मी हमें प्रेरित करें। शान्तिः, शान्तिः, शान्तिः। यह श्लोक शांति का आह्वान करता है और यह विद्या का सार है कि ज्ञान के माध्यम से ही शांति प्राप्त होती है।
ये श्लोक देवी लक्ष्मी की समृद्धि, सुरक्षा, और दिव्य आशीर्वाद के लिए प्रार्थनाएँ हैं, जो भक्तों को दिव्यता और जीवन की सामग्री संपन्नता की ओर ले जाती हैं।
श्री सूक्तम की प्रत्येक ऋचा में लक्ष्मी के विभिन्न रूपों और गुणों का वर्णन होता है, जैसे कि उनका हिरण्यमयी (सुनहरी) रूप, उनकी उर्वरता, और उनकी शक्ति जो समृद्धि लाती है। यह स्तोत्र न केवल भौतिक संपदा के लिए प्रार्थना करता है बल्कि आध्यात्मिक समृद्धि के लिए भी प्रार्थना करता है।
श्री सूक्तम का प्रयोग:
- धन और समृद्धि के लिए: श्री सूक्तम का पाठ व्यक्तियों द्वारा अपने घरों, कार्यालयों या व्यापारिक स्थलों पर धन और समृद्धि को आकर्षित करने के लिए किया जाता है।
- उत्सवों और पूजाओं में: हिन्दू धर्म में दिवाली, वरलक्ष्मी व्रतम्, और अन्य लक्ष्मी पूजाओं के दौरान श्री सूक्तम का पाठ आमतौर पर किया जाता है।
- नित्य पूजा में: कई घरों में श्री सूक्तम का पाठ प्रतिदिन सुबह की पूजा में भी शामिल होता है।
इस प्रकार, श्री सूक्तम न केवल धार्मिक महत्व रखता है बल्कि यह व्यक्तिगत और सामुदायिक समृद्धि के लिए भी एक शक्तिशाली उपकरण के रूप में काम करता है।
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श्री सूक्तम क्या है?
श्री सूक्तम एक संस्कृत स्तोत्र है जो हिंदू धर्म की देवी लक्ष्मी को समर्पित है, जो धन, समृद्धि, और उर्वरता की देवी मानी जाती हैं। यह ऋग्वेद का एक हिस्सा है और आमतौर पर लक्ष्मी की कृपा आकर्षित करने के लिए पूजा अनुष्ठानों में पढ़ा जाता है।
श्री सूक्तम का पाठ क्यों किया जाता है?
श्री सूक्तम का पाठ देवी लक्ष्मी की दिव्य आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए करते हैं। यह स्तोत्र देवी लक्ष्मी के गुणों की प्रशंसा करता है और धन, समृद्धि और कल्याण के लिए उनका आशीर्वाद मांगता है।
श्री सूक्तम का पाठ कब किया जाता है?
श्री सूक्तम का पाठ मुख्य रूप से दिवाली, वरलक्ष्मी व्रत जैसे त्योहारों और लक्ष्मी पूजा के दौरान किया जाता है। यह कई हिंदू घरों में दैनिक पूजा का भी हिस्सा होता है।
श्री सूक्तम के पाठ के लाभ क्या हैं?
श्री सूक्तम का पाठ करने से माना जाता है कि यह देवी लक्ष्मी की कृपा को आकर्षित करता है जिससे धन और समृद्धि मिलती है, आर्थिक बाधाएं दूर होती हैं और समग्र भलाई और समृद्धि के लिए दिव्य अनुग्रह प्राप्त होता है।
श्री सूक्तम में लक्ष्मी का वर्णन कैसे किया गया है?
श्री सूक्तम में देवी लक्ष्मी को सोने के समान पीले रंग की, चांदी और सोने की मालाओं से सजी, चंद्रमा के समान चमकदार और समृद्धि की देवी के रूप में वर्णित किया गया है।
श्री सूक्तम का आध्यात्मिक महत्व क्या है?
श्री सूक्तम का आध्यात्मिक महत्व इसके द्वारा मन और परिवेश को शुद्ध करने की क्षमता में निहित है। यह भक्तों को देवी लक्ष्मी के दिव्य गुणों जैसे कि शुद्धता, समृद्धि, और सामंजस्य के साथ संरेखित करने में मदद करता है, जिससे उनकी आध्यात्मिक उन्नति होती है।