“धर्मो रक्षति रक्षितः” एक संस्कृत श्लोक है जिसका अर्थ है “धर्म की रक्षा करने वाला व्यक्ति स्वयं धर्म द्वारा रक्षित होता है।” यह श्लोक महाभारत के शांति पर्व से लिया गया है और इसका उपदेश यह है कि जो व्यक्ति धर्म के मार्ग पर चलता है और धर्म की रक्षा करता है, वह स्वयं भी धर्म द्वारा संरक्षित रहता है। इस श्लोक को अक्सर धर्म के महत्व और उसके पालन की शिक्षा देने के लिए उद्धृत किया जाता है।
यदि आप पूर्ण श्लोक और उसके संदर्भ की खोज कर रहे हैं, तो कृपया ध्यान दें कि “धर्मो रक्षति रक्षितः” वाक्य स्वयं ही पूर्ण है और यह महाभारत के शांति पर्व में विभिन्न संदर्भों में आता है। महाभारत में इसके आस-पास के श्लोक भी धर्म की व्याख्या और महत्व पर प्रकाश डालते हैं।
“धर्मो रक्षति रक्षितः” श्लोक मनुस्मृति के साथ-साथ महाभारत से भी लिया गया है। मनुस्मृति में, यह श्लोक 8.15 के रूप में वर्णित है, जो धर्म के महत्व और उसके पालन की शिक्षा देता है। यह वाक्यांश धर्म के साथ खड़े रहने और उसकी रक्षा करने के महत्व पर प्रकाश डालता है, यह बताता है कि जो व्यक्ति धर्म की रक्षा करता है, धर्म स्वयं उस व्यक्ति की रक्षा करता है।
महाभारत में, इस विचार को भगवान कृष्ण द्वारा अर्जुन को गीता का उपदेश देते समय विस्तार से बताया गया है। यह धर्म की रक्षा के महत्व को उजागर करता है और यह सिखाता है कि धर्म के प्रति सच्ची निष्ठा रखने वाले व्यक्ति की रक्षा स्वयं धर्म द्वारा की जाएगी।
ये शिक्षाएँ न केवल धार्मिक नैतिकता और कर्तव्य के पालन की महत्वपूर्णता को दर्शाती हैं, बल्कि यह भी बताती हैं कि कैसे धर्म का समर्थन और अनुसरण करने से व्यक्ति को आंतरिक शांति और सुरक्षा की अनुभूति होती है।
धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः
तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोऽवधीत् ॥
यह श्लोक “धर्म एव हतो हन्ति, धर्मो रक्षति रक्षितः। तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मो हतोऽवधीत्॥” बहुत ही गहरा और महत्वपूर्ण संदेश देता है। इसकी व्याख्या इस प्रकार है:
- धर्म एव हतो हन्ति: इसका अर्थ है कि जब कोई धर्म को हानि पहुंचाता है, तो वास्तव में वह स्वयं को हानि पहुंचाता है। यह दर्शाता है कि धर्म के विरुद्ध किए गए कर्मों का परिणाम अंततः कर्ता के लिए ही हानिकारक होता है।
- धर्मो रक्षति रक्षितः: इसका अर्थ है कि धर्म, उनकी रक्षा करता है जो उसकी रक्षा करते हैं। यह योगदान और प्रतिफल का सिद्धांत है, जहां धर्म के प्रति समर्पण और उसकी रक्षा करने वाले व्यक्ति को धर्म स्वयं संरक्षण प्रदान करता है।
- तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो: इसका अर्थ है कि इसलिए धर्म को कभी भी हानि नहीं पहुँचाई जानी चाहिए। यह एक नैतिक आदेश है जो हमें धर्म के प्रति अटूट निष्ठा और समर्पण की ओर प्रेरित करता है।
- मा नो धर्मो हतोऽवधीत्: इसका अर्थ है कि हमें धर्म को हानि पहुँचाने से बचना चाहिए, क्योंकि ऐसा करने से हम स्वयं को और समाज को हानि पहुँचाते हैं। यह आत्म-संयम और नैतिक जागरूकता की महत्वपूर्णता को रेखांकित करता है।
इस श्लोक के माध्यम से, हमें सिखाया जाता है कि धर्म का संरक्षण और पालन हमारे नैतिक कर्तव्यों में से एक है। धर्म के प्रति वफादारी और समर्पण हमें व्यक्तिगत और सामाजिक स्तर पर संरक्षण और समृद्धि प्रदान करता है। यह श्लोक हमें यह भी सिखाता है कि धर्म के मार्ग पर चलने से हम न केवल स्वयं की रक्षा करते हैं, बल्कि हमारे आस-पास के समाज को भी एक बेहतर स्थान बनाते हैं।
“धर्मो रक्षति रक्षितः” का क्या अर्थ है?
यह वाक्यांश का अर्थ है “जो धर्म की रक्षा करते हैं, धर्म उनकी रक्षा करता है।” यह धर्म (नैतिकता या नैतिक कानून) का पालन और संरक्षण करने के महत्व को दर्शाता है, और बदले में, धर्म व्यक्ति की रक्षा करता है।
“धर्मो रक्षति रक्षितः” वाक्यांश किस पाठ से लिया गया है?
यह वाक्यांश महाभारत के शांति पर्व और मनुस्मृति (8.15) दोनों से लिया गया है, जो इसकी प्राचीन हिंदू शास्त्रों में महत्व को दर्शाता है।
“धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः, तस्माद्धर्मो न हन्तव्यो मा नो धर्मो हतो’वधीत्” श्लोक का क्या अर्थ है?
यह श्लोक उस सिद्धांत का विस्तार करता है कि धर्म को हानि पहुंचाने से अंततः स्वयं को हानि पहुंचती है, जबकि धर्म की रक्षा से व्यक्ति की स्वयं की रक्षा सुनिश्चित होती है। यह सलाह देता है कि धर्म को हानि पहुंचाने से बचना चाहिए ताकि आत्म-हानि से बचा जा सके और नैतिक अखंडता बनाए रखी जा सके।
“धर्मो रक्षति रक्षितः” द्वारा क्या शिक्षा दी गई है?
इस शिक्षा में बताया गया है कि धर्म (नैतिक और धार्मिक आचरण) का पालन और संरक्षण करने से धर्म बदले में व्यक्ति की रक्षा करता है। यह व्यक्ति के कर्मों और कॉस्मिक ऑर्डर के बीच आपसी संबंध पर जोर देता है।
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