आदित्य हृदय स्तोत्र- Aditya Hriday Strot
आदित्य हृदय स्तोत्र एक शक्तिशाली और पवित्र हिन्दू स्तोत्र है जो भगवान सूर्य को समर्पित है। यह वाल्मीकि रामायण के युद्धकांड में वर्णित है, जहां ऋषि अगस्त्य ने श्री राम को लंका के राजा रावण के विरुद्ध युद्ध में विजयी होने के लिए इस स्तोत्र का पाठ करने की सलाह दी थी।
आदित्यहृदय स्तोत्र
ततो युद्धपरिश्रान्तं समरे चिन्तया स्थितम् ।
रावणं चाग्रतो दृष्टवा युद्धाय समुपस्थितम् ॥1॥
दैवतैश्च समागम्य द्रष्टुमभ्यागतो रणम् ।
उपगम्याब्रवीद् राममगरत्यो भगवांस्तदा ॥2॥
राम राम महाबाहो श्रृणु गुह्यं सनातनम् ।
येन सर्वानरीन् वत्स समरे विजयिष्यसे ॥3॥
आदित्यहृदयं पुण्यं सर्वशत्रुविनाशनम् ।
जयावहं जपं नित्यमक्षयं परमं शिवम् ॥4॥
सर्वमंगलमांगल्यं सर्वपापप्रणाशनम् ।
चिन्ताशोकप्रशमनमायुर्वधैनमुत्तमम् ॥5॥
रश्मिमन्तं समुद्यन्तं देवासुरनमस्कृतम् ।
पूजयस्व विवस्वन्तं भास्करं भुवनेश्वरम् ॥6॥
सर्वदेवतामको ह्येष तेजस्वी रश्मिभावनः ।
एष देवासुरगणाँल्लोकान् पाति गभस्तिभिः ॥7॥
एष ब्रह्मा च विष्णुश्च शिवः स्कन्दः प्रजापतिः ।
महेन्द्रो धनदः कालो यमः सोमो ह्यपां पतिः ॥8॥
पितरो वसवः साध्या अश्विनौ मरुतो मनुः ।
वायुर्वन्हिः प्रजाः प्राण ऋतुकर्ता प्रभाकरः ॥9॥
आदित्यः सविता सूर्यः खगः पूषा गर्भास्तिमान् ।
सुवर्णसदृशो भानुहिरण्यरेता दिवाकरः ॥10॥
हरिदश्वः सहस्रार्चिः सप्तसप्तिर्मरीचिमान् ।
तिमिरोन्मथनः शम्भूस्त्ष्टा मार्तण्डकोंऽशुमान् ॥11॥
हिरण्यगर्भः शिशिरस्तपनोऽहरकरो रविः ।
अग्निगर्भोऽदितेः पुत्रः शंखः शिशिरनाशनः ॥12॥
व्योमनाथस्तमोभेदी ऋम्यजुःसामपारगः ।
घनवृष्टिरपां मित्रो विन्ध्यवीथीप्लवंगमः ॥13॥
आतपी मण्डली मृत्युः पिंगलः सर्वतापनः ।
कविर्विश्वो महातेजा रक्तः सर्वभवोदभवः ॥14॥
नक्षत्रग्रहताराणामधिपो विश्वभावनः ।
तेजसामपि तेजस्वी द्वादशात्मन् नमोऽस्तु ते ॥15॥
नमः पूर्वाय गिरये पश्चिमायाद्रये नमः ।
ज्योतिर्गणानां पतये दिनाधिपतये नमः ॥16॥
जयाय जयभद्राय हर्यश्वाय नमो नमः ।
नमो नमः सहस्रांशो आदित्याय नमो नमः ॥17॥
नम उग्राय वीराय सारंगाय नमो नमः ।
नमः पद्मप्रबोधाय प्रचण्डाय नमोऽस्तु ते ॥18॥
ब्रह्मेशानाच्युतेशाय सूरायदित्यवर्चसे ।
भास्वते सर्वभक्षाय रौद्राय वपुषे नमः ॥19॥
तमोघ्नाय हिमघ्नाय शत्रुघ्नायामितात्मने ।
कृतघ्नघ्नाय देवाय ज्योतिषां पतये नमः ॥20॥
तप्तचामीकराभाय हस्ये विश्वकर्मणे ।
नमस्तमोऽभिनिघ्नाय रुचये लोकसाक्षिणे ॥21॥
नाशयत्येष वै भूतं तमेव सृजति प्रभुः ।
पायत्येष तपत्येष वर्षत्येष गभस्तिभिः ॥22॥
एष सुप्तेषु जागर्ति भूतेषु परिनिष्ठितः ।
एष चैवाग्निहोत्रं च फलं चैवाग्निहोत्रिणाम् ॥23 ॥
देवाश्च क्रतवश्चैव क्रतूनां फलमेव च ।
यानि कृत्यानि लोकेषु सर्वेषु परमप्रभुः ॥24॥
एनमापत्सु कृच्छ्रेषु कान्तारेषु भयेषु च ।
कीर्तयन् पुरुषः कश्चिन्नावसीदति राघव ॥25॥
पूजयस्वैनमेकाग्रो देवदेवं जगत्पतिम् ।
एतत् त्रिगुणितं जप्तवा युद्धेषु विजयिष्ति ॥26॥
अस्मिन् क्षणे महाबाहो रावणं त्वं जहिष्यसि ।
एवमुक्त्वा ततोऽगस्त्यो जगाम स यथागतम् ॥27॥
एतच्छ्रुत्वा महातेजा, नष्टशोकोऽभवत् तदा ।
धारयामास सुप्रीतो राघवः प्रयतात्मवान् ॥28॥
आदित्यं प्रेक्ष्य जप्त्वेदं परं हर्षमवाप्तवान् ।
त्रिराचम्य शुचिर्भूत्वा धनुरादाय वीर्यवान् ॥29॥
रावणं प्रेक्ष्य हृष्टात्मा जयार्थे समुपागमत् ।
सर्वयत्नेन महता वृतस्तस्य वधेऽभवत् ॥30॥
अथ रविरवदन्निरीक्ष्य रामं मुदितनाः परमं प्रहृष्यमाणः ।
निशिचरपतिसंक्षयं विदित्वा सुरगणमध्यगतो वचस्त्वरेति ॥31 ॥
आदित्य हृदय स्तोत्र का महत्व:
- आत्मबल और साहस में वृद्धि: इस स्तोत्र का पाठ आत्मबल और साहस को बढ़ाता है, जिससे कठिन परिस्थितियों का सामना करने में सहायता मिलती है।
- मानसिक शांति: यह स्तोत्र मानसिक शांति प्रदान करता है और चिंता एवं तनाव को कम करता है।
- स्वास्थ्य लाभ: भगवान सूर्य की ऊर्जा से आरोग्य और विटामिन D का लाभ होता है, जो कि स्तोत्र के पाठ से भी प्रतीकात्मक रूप से जुड़ा हुआ है।
- सफलता और समृद्धि: इसके पाठ से व्यक्ति को कार्यक्षेत्र में सफलता और धन-समृद्धि की प्राप्ति होती है।
आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ कैसे करें:
- स्नान करके साफ वस्त्र पहनें: स्तोत्र का पाठ करने से पहले, स्नान करके पवित्र हो जाएं और साफ वस्त्र पहनें।
- पूर्व या उत्तर की ओर मुख करके बैठें: भगवान सूर्य की ओर मुख करके, पूर्व या उत्तर दिशा में बैठें।
- ध्यान और प्रार्थना: भगवान सूर्य का ध्यान करते हुए, उनकी प्रार्थना करें और उन्हें अपने मन में बसा लें।
- स्तोत्र का पाठ करें: इसके बाद, आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ शुरू करें।
आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ नियमित रूप से करने से, व्यक्ति के जीवन में सकारात्मक परिवर्तन आते हैं और अनेक प्रकार की समस्याओं से मुक्ति मिलती है। यह स्तोत्र सूर्य देव की अद्भुत शक्ति का स्रोत है, जो व्यक्ति को आंतरिक शक्ति और प्रेरणा प्रदान करता है।
आदित्यहृदय स्तोत्र की ब्याख्या अर्थ सहित
ततो युद्धपरिश्रान्तं समरे चिन्तया स्थितम् ।
रावणं चाग्रतो दृष्टवा युद्धाय समुपस्थितम् ॥1॥
श्लोक 1:
- ततो युद्धपरिश्रान्तं समरे चिन्तया स्थितम्: इसमें बताया गया है कि श्री राम युद्ध से थक गए थे और चिंता के कारण समरभूमि में स्थित थे।
- रावणं चाग्रतो दृष्टवा युद्धाय समुपस्थितम्: रावण को अपने सामने युद्ध के लिए तैयार देखकर श्री राम की चिंता बढ़ गई थी।
दैवतैश्च समागम्य द्रष्टुमभ्यागतो रणम् ।
उपगम्याब्रवीद् राममगरत्यो भगवांस्तदा ॥2॥
श्लोक 2:
- दैवतैश्च समागम्य द्रष्टुमभ्यागतो रणम्: देवता युद्ध देखने के लिए समागम्य हुए और युद्धभूमि में आए।
- उपगम्याब्रवीद् राममगरत्यो भगवांस्तदा: उस समय अगस्त्य ऋषि ने श्री राम के पास आकर उनसे बात की।
राम राम महाबाहो श्रृणु गुह्यं सनातनम् ।
येन सर्वानरीन् वत्स समरे विजयिष्यसे ॥3॥
श्लोक 3:
- राम राम महाबाहो श्रृणु गुह्यं सनातनम्: ऋषि अगस्त्य श्री राम को संबोधित करते हुए कहते हैं, “हे राम, हे महाबाहो (महान बलशाली), इस गुप्त और सनातन (अनंत काल से चली आ रही) विधि को सुनो।”
- येन सर्वानरीन् वत्स समरे विजयिष्यसे: उन्होंने श्री राम से कहा कि इस विधि का पालन करके, वे सभी शत्रुओं को युद्ध में पराजित करेंगे।
आदित्यहृदयं पुण्यं सर्वशत्रुविनाशनम् ।
जयावहं जपं नित्यमक्षयं परमं शिवम् ॥4॥
श्लोक 4:
- आदित्यहृदयं पुण्यं सर्वशत्रुविनाशनम्: आदित्य हृदय स्तोत्र को पुण्य (पवित्र) और सर्वशत्रुविनाशनम् (सभी शत्रुओं का नाश करने वाला) बताया गया है।
- जयावहं जपं नित्यमक्षयं परमं शिवम्: इस स्तोत्र के नित्य जप से जय प्राप्त होती है, यह अक्षय (कभी न खत्म होने वाला), परम शिवम् (अत्यंत शुभ) है।
सर्वमंगलमांगल्यं सर्वपापप्रणाशनम् ।
चिन्ताशोकप्रशमनमायुर्वधैनमुत्तमम् ॥5॥
श्लोक 5:
- सर्वमंगलमांगल्यं सर्वपापप्रणाशनम्: यह श्लोक भगवान सूर्य को सभी मंगल (शुभ) कार्यों के लिए मंगलमय और सभी पापों का नाश करने वाला बताता है।
- चिन्ताशोकप्रशमनमायुर्वधैनमुत्तमम्: यह भी कहा गया है कि भगवान सूर्य चिंता और शोक को दूर करते हैं और आयु को बढ़ाने वाले हैं, जो उत्तम है।
रश्मिमन्तं समुद्यन्तं देवासुरनमस्कृतम् ।
पूजयस्व विवस्वन्तं भास्करं भुवनेश्वरम् ॥6॥
श्लोक 6:
- रश्मिमन्तं समुद्यन्तं देवासुरनमस्कृतम्: यह श्लोक भगवान सूर्य के उदय होने पर उनकी किरणों की महिमा और देवताओं और असुरों द्वारा उनके सम्मान का वर्णन करता है।
- पूजयस्व विवस्वन्तं भास्करं भुवनेश्वरम्: यहाँ श्री राम को सलाह दी गई है कि वे भगवान सूर्य की पूजा करें, जिन्हें विवस्वान, भास्कर और भुवनेश्वर (जगत के ईश्वर) के नाम से जाना जाता है।
सर्वदेवतामको ह्येष तेजस्वी रश्मिभावनः ।
एष देवासुरगणाँल्लोकान् पाति गभस्तिभिः ॥7॥
श्लोक 7:
- सर्वदेवतामको ह्येष तेजस्वी रश्मिभावनः: यह श्लोक भगवान सूर्य को सभी देवताओं में सर्वोच्च और सबसे तेजस्वी के रूप में वर्णित करता है, जिनकी किरणें सृष्टि के सभी प्राणियों को ऊर्जा प्रदान करती हैं।
- एष देवासुरगणाँल्लोकान् पाति गभस्तिभिः: इसमें कहा गया है कि भगवान सूर्य अपनी किरणों के माध्यम से देवताओं, असुरों और सभी लोकों की रक्षा करते हैं।
एष ब्रह्मा च विष्णुश्च शिवः स्कन्दः प्रजापतिः ।
महेन्द्रो धनदः कालो यमः सोमो ह्यपां पतिः ॥8॥
श्लोक 8:
- एष ब्रह्मा च विष्णुश्च शिवः स्कन्दः प्रजापतिः: यह श्लोक भगवान सूर्य को सृष्टि के मुख्य देवताओं – ब्रह्मा, विष्णु, शिव, स्कंद (कार्तिकेय), और प्रजापति के समान बताता है।
- महेन्द्रो धनदः कालो यमः सोमो ह्यपां पतिः: इसमें भगवान सूर्य को इंद्र, कुबेर (धन के देवता), काल (समय), यम (मृत्यु के देवता), और सोम (चंद्रमा, जल के देवता) के समान वर्णित किया गया है।
पितरो वसवः साध्या अश्विनौ मरुतो मनुः ।
वायुर्वन्हिः प्रजाः प्राण ऋतुकर्ता प्रभाकरः ॥9॥
श्लोक 9:
- पितरो वसवः साध्या अश्विनौ मरुतो मनुः: इस श्लोक में भगवान सूर्य को पितरों (पूर्वजों), वसुओं, साध्यों, अश्विनी कुमारों, मरुतों (वायु देवता), और मनु (मानवता के प्रथम पिता) के संरक्षक के रूप में वर्णित किया गया है।
- वायुर्वन्हिः प्रजाः प्राण ऋतुकर्ता प्रभाकरः: भगवान सूर्य को वायु (हवा), अग्नि (आग), प्रजाओं (जीवों) के जीवन, प्राण (जीवन शक्ति), ऋतुओं के निर्माता, और प्रकाश के स्रोत के रूप में वर्णित किया गया है।
आदित्यः सविता सूर्यः खगः पूषा गर्भास्तिमान् ।
सुवर्णसदृशो भानुहिरण्यरेता दिवाकरः ॥10॥
श्लोक 10:
- आदित्यः सविता सूर्यः खगः पूषा गर्भास्तिमान्: इस श्लोक में भगवान सूर्य के विभिन्न नामों का उल्लेख है, जैसे आदित्य, सविता, सूर्य, खग (आकाश में चलने वाला), पूषा (पोषण करने वाला), और गर्भास्तिमान् (गर्भ में विद्यमान शक्ति)।
- सुवर्णसदृशो भानु हिरण्यरेता दिवाकरः: भगवान सूर्य को सोने के समान चमकदार, भानु (प्रकाश के स्रोत), हिरण्यरेता (स्वर्णिम तेज के साथ), और दिवाकर (दिन को प्रकाशित करने वाले) के रूप में वर्णित किया गया है।
हरिदश्वः सहस्रार्चिः सप्तसप्तिर्मरीचिमान् ।
तिमिरोन्मथनः शम्भूस्त्ष्टा मार्तण्डकोंऽशुमान् ॥11॥
श्लोक 11:
- हरिदश्वः सहस्रार्चिः सप्तसप्तिर्मरीचिमान्: भगवान सूर्य को हरिदश्व (हरे घोड़ों वाला), सहस्रार्चि (हजार किरणों वाला), सप्तसप्ति (सत्तर किरणों वाला), मरीचिमान (किरणों वाला) के रूप में वर्णित किया गया है।
- तिमिरोन्मथनः शम्भूस्त्ष्टा मार्तण्डकोंऽशुमान्: वे तिमिरोन्मथन (अंधकार को नष्ट करने वाला), शंभू (शिव के समान प्रकाशित), त्वष्टा (शिल्पी), मार्तण्ड (मृत्यु के देवता के पुत्र), अंशुमान (प्रकाशित) कहलाते हैं।
हिरण्यगर्भः शिशिरस्तपनोऽहरकरो रविः ।
अग्निगर्भोऽदितेः पुत्रः शंखः शिशिरनाशनः ॥12॥
श्लोक 12:
- हिरण्यगर्भः शिशिरस्तपनोऽहरकरो रविः: भगवान सूर्य को हिरण्यगर्भ (सृष्टि का आधार), शिशिरस्तपन (शीतलता देने वाला), अहरकर (दिन का निर्माता), रवि (सूर्य) के रूप में वर्णित किया गया है।
- अग्निगर्भोऽदितेः पुत्रः शंखः शिशिरनाशनः: वे अग्निगर्भ (अग्नि के भीतर से जन्मा), अदिति के पुत्र (देवमाता अदिति के पुत्र), शंख (शंख के समान पवित्र), शिशिरनाशन (ठंड को दूर करने वाला) के रूप में जाने जाते हैं।
व्योमनाथस्तमोभेदी ऋम्यजुःसामपारगः ।
घनवृष्टिरपां मित्रो विन्ध्यवीथीप्लवंगमः ॥13॥
श्लोक 13:
- व्योमनाथस्तमोभेदी ऋग्म्यजुःसामपारगः: भगवान सूर्य को आकाश के स्वामी, अंधकार को दूर करने वाले, और ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद के ज्ञाता के रूप में वर्णित किया गया है।
- घनवृष्टिरपां मित्रो विन्ध्यवीथीप्लवंगमः: वे बादलों से वर्षा करने वाले, जल के मित्र, और विन्ध्य पर्वतमाला को लांघने वाले के रूप में वर्णित हैं।
आतपी मण्डली मृत्युः पिंगलः सर्वतापनः ।
कविर्विश्वो महातेजा रक्तः सर्वभवोदभवः ॥14॥
श्लोक 14:
- आतपी मण्डली मृत्युः पिंगलः सर्वतापनः: भगवान सूर्य को तप्त (गर्म), सभी को गर्म करने वाले, मृत्यु के रूप में और पिंगल (लाल रंग के) के रूप में वर्णित किया गया है।
- कविर्विश्वो महातेजा रक्तः सर्वभवोदभवः: वे सर्वज्ञ, विश्व के भीतर और बाहर विद्यमान, अत्यंत तेजस्वी, रक्त वर्ण के, और सभी भूतों के उद्भव के स्रोत के रूप में वर्णित हैं।
नक्षत्रग्रहताराणामधिपो विश्वभावनः ।
तेजसामपि तेजस्वी द्वादशात्मन् नमोऽस्तु ते ॥15॥
श्लोक 15:
- नक्षत्रग्रहताराणामधिपो विश्वभावनः: भगवान सूर्य को नक्षत्रों, ग्रहों, और तारों का अधिपति, और विश्व के निर्माता के रूप में वर्णित किया गया है।
- तेजसामपि तेजस्वी द्वादशात्मन् नमोऽस्तु ते: वे सभी तेजस्वी वस्तुओं से भी अधिक तेजस्वी हैं। “द्वादशात्मन्” उनके बारह रूपों (सूर्य के बारह नाम) को संदर्भित करता है। इस श्लोक में उन्हें प्रणाम किया गया है।
नमः पूर्वाय गिरये पश्चिमायाद्रये नमः ।
ज्योतिर्गणानां पतये दिनाधिपतये नमः ॥16॥
श्लोक 16:
- नमः पूर्वाय गिरये पश्चिमायाद्रये नमः: इस श्लोक में पूर्व और पश्चिम की पहाड़ियों के प्रति सम्मान प्रकट किया गया है, जो सूर्योदय और सूर्यास्त के स्थानों को दर्शाते हैं।
- ज्योतिर्गणानां पतये दिनाधिपतये नमः: ज्योतिषीय गणों (नक्षत्रों, ग्रहों आदि) के स्वामी और दिन के अधिपति (सूर्य) के प्रति विनम्र प्रणाम किया गया है।
जयाय जयभद्राय हर्यश्वाय नमो नमः ।
नमो नमः सहस्रांशो आदित्याय नमो नमः ॥17॥
श्लोक 17:
- जयाय जयभद्राय हर्यश्वाय नमो नमः: इस श्लोक में भगवान सूर्य की जय, शुभता, और उनके ‘हर्यश्व’ (हरे रंग के घोड़े वाले) रूप को नमन किया गया है।
- नमो नमः सहस्रांशो आदित्याय नमो नमः: ‘सहस्रांशो’ (हजार किरणों वाले) और ‘आदित्य’ (सूर्य देव) के रूप में भगवान सूर्य को बार-बार नमस्कार किया गया है।
नम उग्राय वीराय सारंगाय नमो नमः ।
नमः पद्मप्रबोधाय प्रचण्डाय नमोऽस्तु ते ॥18॥
श्लोक 18:
- नम उग्राय वीराय सारंगाय नमो नमः: भगवान सूर्य के ‘उग्र’ (प्रचंड), ‘वीर’ (बहादुर), और ‘सारंग’ (हिरण की तरह सुंदर) रूपों की वंदना की गई है।
- नमः पद्मप्रबोधाय प्रचण्डाय नमोऽस्तु ते: ‘पद्मप्रबोध’ (कमल को खिलाने वाले) और ‘प्रचंड’ (अत्यंत शक्तिशाली) रूप में भगवान सूर्य के प्रति समर्पण का भाव व्यक्त किया गया है।
ब्रह्मेशानाच्युतेशाय सूरायदित्यवर्चसे ।
भास्वते सर्वभक्षाय रौद्राय वपुषे नमः ॥19॥
श्लोक 19:
- ब्रह्मेशानाच्युतेशाय सूरायदित्यवर्चसे: भगवान सूर्य को ब्रह्मा, ईशान (शिव), और अच्युत (विष्णु) के समान, सूर्य देवता, और अदिति के तेज के रूप में सम्मानित किया गया है।
- भास्वते सर्वभक्षाय रौद्राय वपुषे नमः: उन्हें चमकदार, सभी को ग्रहण करने वाले, रौद्र (शक्तिशाली) रूप के लिए नमन किया जाता है।
तमोघ्नाय हिमघ्नाय शत्रुघ्नायामितात्मने ।
कृतघ्नघ्नाय देवाय ज्योतिषां पतये नमः ॥20॥
श्लोक 20:
- तमोघ्नाय हिमघ्नाय शत्रुघ्नायामितात्मने: भगवान सूर्य को अंधकार, ठंड, और शत्रुओं को नष्ट करने वाले, असीम आत्मा वाले के रूप में नमन किया गया है।
- कृतघ्नघ्नाय देवाय ज्योतिषां पतये नमः: उन्हें कृतज्ञता को नष्ट करने वाले, देवता, और ज्योतिषों के स्वामी के रूप में सम्मानित किया गया है।
तप्तचामीकराभाय हस्ये विश्वकर्मणे ।
नमस्तमोऽभिनिघ्नाय रुचये लोकसाक्षिणे ॥21॥
श्लोक 21:
- तप्तचामीकराभाय हस्ये विश्वकर्मणे: भगवान सूर्य को तप्त चामीकर (सुनहरी धातु) के समान चमकदार और विश्वकर्मा (सृष्टि के शिल्पकार) के रूप में नमन किया जाता है।
- नमस्तमोऽभिनिघ्नाय रुचये लोकसाक्षिणे: अंधकार को नष्ट करने वाले, प्रकाश के रूप में, और संसार के साक्षी के रूप में भगवान सूर्य को नमस्कार है।
नाशयत्येष वै भूतं तमेव सृजति प्रभुः ।
पायत्येष तपत्येष वर्षत्येष गभस्तिभिः ॥22॥
श्लोक 22:
- नाशयत्येष वै भूतं तमेव सृजति प्रभुः: यह श्लोक भगवान सूर्य को प्रभु के रूप में वर्णित करता है जो सृष्टि को नष्ट भी करते हैं और सृजन भी करते हैं।
- पायत्येष तपत्येष वर्षत्येष गभस्तिभिः: भगवान सूर्य अपनी किरणों के माध्यम से जीवन को पोषित करते हैं, तपते हैं (ताप प्रदान करते हैं), और वर्षा करते हैं, जिससे सृष्टि में जीवन चक्र संचालित होता है।
एष सुप्तेषु जागर्ति भूतेषु परिनिष्ठितः ।
एष चैवाग्निहोत्रं च फलं चैवाग्निहोत्रिणाम् ॥23 ॥
श्लोक 23:
- एष सुप्तेषु जागर्ति भूतेषु परिनिष्ठितः: यह श्लोक बताता है कि भगवान सूर्य सभी प्राणियों के सोते समय भी जागते रहते हैं और सभी जीवों में पूर्णतः समाहित हैं।
- एष चैवाग्निहोत्रं च फलं चैवाग्निहोत्रिणाम्: वे अग्निहोत्र (वैदिक यज्ञ) और अग्निहोत्र करने वालों के फल (पुण्य) के भी स्वामी हैं।
देवाश्च क्रतवश्चैव क्रतूनां फलमेव च ।
यानि कृत्यानि लोकेषु सर्वेषु परमप्रभुः ॥24॥
श्लोक 24:
- देवाश्च क्रतवश्चैव क्रतूनां फलमेव च: यह श्लोक बताता है कि भगवान सूर्य देवताओं, यज्ञों, और यज्ञों के फलों के भी अधिपति हैं।
- यानि कृत्यानि लोकेषु सर्वेषु परमप्रभुः: वे सभी कर्मों और कृत्यों के परमप्रभु हैं, जो इस लोक में किए जाते हैं।
एनमापत्सु कृच्छ्रेषु कान्तारेषु भयेषु च ।
कीर्तयन् पुरुषः कश्चिन्नावसीदति राघव ॥25॥
श्लोक 25:
- एनमापत्सु कृच्छ्रेषु कान्तारेषु भयेषु च: इस श्लोक में कहा गया है कि संकटों, कठिनाइयों, वनों में और भय के समय में भी, जो कोई पुरुष भगवान सूर्य का कीर्तन करता है, वह कभी निराश नहीं होता।
- कीर्तयन् पुरुषः कश्चिन्नावसीदति राघव: इसका अर्थ है कि राघव (भगवान राम) के समक्ष ऋषि अगस्त्य बताते हैं कि भगवान सूर्य का स्मरण और कीर्तन करने वाला व्यक्ति कभी निराश नहीं होता।
पूजयस्वैनमेकाग्रो देवदेवं जगत्पतिम् ।
एतत् त्रिगुणितं जप्तवा युद्धेषु विजयिष्ति ॥26॥
श्लोक 26:
- पूजयस्वैनमेकाग्रो देवदेवं जगत्पतिम्: यहाँ ऋषि अगस्त्य भगवान राम को सलाह देते हैं कि वे एकाग्रचित्त होकर देवों के देव, जगत के पति भगवान सूर्य की पूजा करें।
- एतत् त्रिगुणितं जप्तवा युद्धेषु विजयिष्यसि: इसका अर्थ है कि इस स्तोत्र को तीन बार जपने के पश्चात्, वे युद्ध में विजयी होंगे।
अस्मिन् क्षणे महाबाहो रावणं त्वं जहिष्यसि ।
एवमुक्त्वा ततोऽगस्त्यो जगाम स यथागतम् ॥27॥
श्लोक 27:
- अस्मिन् क्षणे महाबाहो रावणं त्वं जहिष्यसि: ऋषि अगस्त्य ने भगवान राम से कहा कि इस क्षण में, हे महाबाहो (महान बलशाली), तुम रावण को पराजित करोगे।
- एवमुक्त्वा ततोऽगस्त्यो जगाम स यथागतम्: ऐसा कहकर, ऋषि अगस्त्य वहां से चले गए, जैसे वे आए थे।
एतच्छ्रुत्वा महातेजा, नष्टशोकोऽभवत् तदा ।
धारयामास सुप्रीतो राघवः प्रयतात्मवान् ॥28॥
श्लोक 28:
- एतच्छ्रुत्वा महातेजा, नष्टशोकोऽभवत् तदा: इसे सुनकर, महातेजस्वी (अत्यंत प्रकाशमान) भगवान राम का शोक नष्ट हो गया।
- धारयामास सुप्रीतो राघवः प्रयतात्मवान्: सुप्रीत (बहुत प्रसन्न) होकर, प्रयत्नशील भगवान राम ने आदित्य हृदय स्तोत्र का धारण किया।
आदित्यं प्रेक्ष्य जप्त्वेदं परं हर्षमवाप्तवान् ।
त्रिराचम्य शुचिर्भूत्वा धनुरादाय वीर्यवान् ॥29॥
श्लोक 29:
- आदित्यं प्रेक्ष्य जप्त्वेदं परं हर्षमवाप्तवान्: भगवान सूर्य को देखकर और यह स्तोत्र जपकर, भगवान राम ने परम हर्ष (अत्यधिक आनंद) प्राप्त किया।
- त्रिराचम्य शुचिर्भूत्वा धनुरादाय वीर्यवान्: तीन बार आचमन करके, पवित्र होकर, और धनुष्य उठाकर, वीर्यवान राम युद्ध के लिए तैयार हो गए।
रावणं प्रेक्ष्य हृष्टात्मा जयार्थे समुपागमत् ।
सर्वयत्नेन महता वृतस्तस्य वधेऽभवत् ॥30॥
श्लोक 30:
- रावणं प्रेक्ष्य हृष्टात्मा जयार्थे समुपागमत्: रावण को देखकर, हृष्टात्मा (प्रसन्न चित्त) राम, विजय की इच्छा से उसके समीप गए।
- सर्वयत्नेन महता वृतस्तस्य वधेऽभवत्: सभी प्रयासों से, रावण का वध हुआ।
अथ रविरवदन्निरीक्ष्य रामं मुदितनाः परमं प्रहृष्यमाणः ।
निशिचरपतिसंक्षयं विदित्वा सुरगणमध्यगतो वचस्त्वरेति ॥31 ॥
श्लोक 31:
- अथ रविरवदन्निरीक्ष्य रामं मुदितनाः परमं प्रहृष्यमाणः: तब सूर्य देवता ने, राम को देखकर, अत्यधिक प्रसन्नता से भरे हुए, आनंदित होकर,
- निशिचरपतिसंक्षयं विदित्वा सुरगणमध्यगतो वचस्त्वरेति: राक्षसराज रावण के संहार को जानकर, देवताओं के मध्य गए और उन्हें “त्वरेत” (जल्दी करो) कहा।
इन श्लोकों के माध्यम से, आदित्य हृदय स्तोत्र का महत्व और उसकी शक्ति का प्रदर्शन होता है, जिसके पाठ से भगवान राम को युद्ध में विजयी होने की प्रेरणा और शक्ति मिली। यह दर्शाता है कि आध्यात्मिक शक्ति और भक्ति कैसे व्यक्ति को जीवन की कठिनाइयों और चुनौतियों में विजयी बना सकती है।
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