गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र – श्री विष्णु (Gajendra Moksham Stotram)
श्री शुक उवाच –
एवं व्यवसितो बुद्ध्या समाधाय मनो हृदि ।
जजाप परमं जाप्यं प्राग्जन्मन्यनुशिक्षितम ॥१॥
गजेन्द्र उवाच –
ऊं नमो भगवते तस्मै यत एतच्चिदात्मकम ।
पुरुषायादिबीजाय परेशायाभिधीमहि ॥२॥
यस्मिन्निदं यतश्चेदं येनेदं य इदं स्वयं ।
योस्मात्परस्माच्च परस्तं प्रपद्ये स्वयम्भुवम ॥३॥
यः स्वात्मनीदं निजमाययार्पितं
क्वचिद्विभातं क्व च तत्तिरोहितम ।
अविद्धदृक साक्ष्युभयं तदीक्षते
स आत्म मूलोsवत् मां परात्परः ॥४॥
कालेन पंचत्वमितेषु कृत्स्नशो
लोकेषु पालेषु च सर्व हेतुषु ।
तमस्तदाऽऽऽसीद गहनं गभीरं
यस्तस्य पारेsभिविराजते विभुः ॥५॥
न यस्य देवा ऋषयः पदं विदु-
र्जन्तुः पुनः कोsर्हति गन्तुमीरितुम ।
यथा नटस्याकृतिभिर्विचेष्टतो
दुरत्ययानुक्रमणः स मावतु ॥६॥
दिदृक्षवो यस्य पदं सुमंगलम
विमुक्त संगा मुनयः सुसाधवः ।
चरन्त्यलोकव्रतमव्रणं वने
भूतात्मभूता सुहृदः स मे गतिः ॥७॥
न विद्यते यस्य न जन्म कर्म वा
न नाम रूपे गुणदोष एव वा ।
तथापि लोकाप्ययसम्भवाय यः
स्वमायया तान्यनुकालमृच्छति ॥८॥
तस्मै नमः परेशाय ब्रह्मणेsनन्तशक्तये ।
अरूपायोरुरूपाय नम आश्चर्य कर्मणे ॥९॥
नम आत्म प्रदीपाय साक्षिणे परमात्मने ।
नमो गिरां विदूराय मनसश्चेतसामपि ॥१०॥
सत्त्वेन प्रतिलभ्याय नैष्कर्म्येण विपश्चिता ।
नमः कैवल्यनाथाय निर्वाणसुखसंविदे ॥११॥
नमः शान्ताय घोराय मूढाय गुण धर्मिणे ।
निर्विशेषाय साम्याय नमो ज्ञानघनाय च ॥१२॥
क्षेत्रज्ञाय नमस्तुभ्यं सर्वाध्यक्षाय साक्षिणे ।
पुरुषायात्ममूलाय मूलप्रकृतये नमः ॥१३॥
सर्वेन्द्रियगुणद्रष्ट्रे सर्वप्रत्ययहेतवे ।
असताच्छाययोक्ताय सदाभासाय ते नमः ॥१४॥
नमो नमस्तेsखिल कारणाय
निष्कारणायाद्भुत कारणाय ।
सर्वागमान्मायमहार्णवाय
नमोपवर्गाय परायणाय ॥१५॥
गुणारणिच्छन्न चिदूष्मपाय
तत्क्षोभविस्फूर्जित मानसाय ।
नैष्कर्म्यभावेन विवर्जितागम-
स्वयंप्रकाशाय नमस्करोमि ॥१६॥
मादृक्प्रपन्नपशुपाशविमोक्षणाय
मुक्ताय भूरिकरुणाय नमोsलयाय ।
स्वांशेन सर्वतनुभृन्मनसि प्रतीत–
प्रत्यग्दृशे भगवते बृहते नमस्ते ॥१७॥
आत्मात्मजाप्तगृहवित्तजनेषु सक्तै-
र्दुष्प्रापणाय गुणसंगविवर्जिताय ।
मुक्तात्मभिः स्वहृदये परिभाविताय
ज्ञानात्मने भगवते नम ईश्वराय ॥१८॥
यं धर्मकामार्थविमुक्तिकामा
भजन्त इष्टां गतिमाप्नुवन्ति ।
किं त्वाशिषो रात्यपि देहमव्ययं
करोतु मेsदभ्रदयो विमोक्षणम् ॥१९॥
एकान्तिनो यस्य न कंचनार्थ
वांछन्ति ये वै भगवत्प्रपन्नाः ।
अत्यद्भुतं तच्चरितं सुमंगलं
गायन्त आनन्द समुद्रमग्नाः ॥२०॥
तमक्षरं ब्रह्म परं परेश–
मव्यक्तमाध्यात्मिकयोगगम्यम ।
अतीन्द्रियं सूक्ष्ममिवातिदूर–
मनन्तमाद्यं परिपूर्णमीडे ॥२१॥
यस्य ब्रह्मादयो देवा वेदा लोकाश्चराचराः ।
नामरूपविभेदेन फल्ग्व्या च कलया कृताः ॥२२॥
यथार्चिषोsग्नेः सवितुर्गभस्तयो
निर्यान्ति संयान्त्यसकृत् स्वरोचिषः ।
तथा यतोsयं गुणसंप्रवाहो
बुद्धिर्मनः खानि शरीरसर्गाः ॥२३॥
स वै न देवासुरमर्त्यतिर्यंग
न स्त्री न षण्डो न पुमान न जन्तुः ।
नायं गुणः कर्म न सन्न चासन
निषेधशेषो जयतादशेषः ॥२४॥
जिजीविषे नाहमिहामुया कि–
मन्तर्बहिश्चावृतयेभयोन्या ।
इच्छामि कालेन न यस्य विप्लव–
स्तस्यात्मलोकावरणस्य मोक्षम ॥२५॥
सोsहं विश्वसृजं विश्वमविश्वं विश्ववेदसम ।
विश्वात्मानमजं ब्रह्म प्रणतोsस्मि परं पदम् ॥२६॥
योगरन्धित कर्माणो हृदि योगविभाविते ।
योगिनो यं प्रपश्यन्ति योगेशं तं नतोsस्म्यहम् ॥२७॥
नमो नमस्तुभ्यमसह्यवेग-
शक्तित्रयायाखिलधीगुणाय ।
प्रपन्नपालाय दुरन्तशक्तये
कदिन्द्रियाणामनवाप्यवर्त्मने ॥२८॥
नायं वेद स्वमात्मानं यच्छ्क्त्याहंधिया हतम् ।
तं दुरत्ययमाहात्म्यं भगवन्तमितोsस्म्यहम् ॥२९॥
श्री शुकदेव उवाच –
एवं गजेन्द्रमुपवर्णितनिर्विशेषं
ब्रह्मादयो विविधलिंगभिदाभिमानाः ।
नैते यदोपससृपुर्निखिलात्मकत्वात
तत्राखिलामरमयो हरिराविरासीत् ॥३०॥
तं तद्वदार्त्तमुपलभ्य जगन्निवासः
स्तोत्रं निशम्य दिविजैः सह संस्तुवद्भि : ।
छन्दोमयेन गरुडेन समुह्यमान –
श्चक्रायुधोsभ्यगमदाशु यतो गजेन्द्रः ॥३१॥
सोsन्तस्सरस्युरुबलेन गृहीत आर्त्तो
दृष्ट्वा गरुत्मति हरिम् ख उपात्तचक्रम ।
उत्क्षिप्य साम्बुजकरं गिरमाह कृच्छा –
नारायणाखिलगुरो भगवन्नमस्ते ॥३२॥
तं वीक्ष्य पीडितमजः सहसावतीर्य
सग्राहमाशु सरसः कृपयोज्जहार ।
ग्राहाद् विपाटितमुखादरिणा गजेन्द्रं
सम्पश्यतां हरिरमूमुच दुस्त्रियाणाम् ॥३३॥
– श्री गजेन्द्र कृत भगवान का स्तवन
श्लोक 1:
श्री शुक उवाच – एवं व्यवसितो बुद्ध्या समाधाय मनो हृदि । जजाप परमं जाप्यं प्राग्जन्मन्यनुशिक्षितम ॥१॥
अर्थ: शुकदेव जी कहते हैं कि गजेंद्र ने अपने मन को हृदय में स्थिर करके, जिसे वह पूर्वजन्म में सीखा था, वह परम जाप्य (मंत्र) का जप किया।
यह श्लोक भक्त के मन की एकाग्रता और ईश्वर के प्रति अपनी अडिग भक्ति को दर्शाता है। गजेंद्र ने अपने पूर्वजन्म में सीखे गए मंत्र का जप किया, जिससे उनका मन एकाग्र हो गया और वे अपनी समस्या का समाधान पाने में सक्षम हुए।
श्लोक 2:
गजेन्द्र उवाच – ऊं नमो भगवते तस्मै यत एतच्चिदात्मकम । पुरुषायादिबीजाय परेशायाभिधीमहि ॥२॥
अर्थ: गजेंद्र कहते हैं, “ऊँ, मैं उस भगवान विष्णु को नमस्कार करता हूँ, जो चेतना रूप हैं, जिनसे यह सब कुछ (सृष्टि) उत्पन्न होता है, जो पुरुष (आदिम अस्तित्व) हैं और जो सबसे श्रेष्ठ हैं।”
इस श्लोक के माध्यम से गजेंद्र भगवान विष्णु की उपासना कर रहे हैं और उन्हें सृष्टि का आदि कारण मान रहे हैं। यह ईश्वर के प्रति उनके समर्पण और भक्ति को दर्शाता है।
श्लोक 3:
यस्मिन्निदं यतश्चेदं येनेदं य इदं स्वयं । योस्मात्परस्माच्च परस्तं प्रपद्ये स्वयम्भुवम ॥३॥
अर्थ: “मैं उस स्वयंभू की शरण में जाता हूँ, जिसमें यह संसार समाहित है, जिससे यह संसार उत्पन्न हुआ है, जो इस संसार को धारण करता है, और जो स्वयं इस संसार से परे है।”
इस श्लोक में, गजेंद्र भगवान विष्णु की सर्वोच्चता और स्वयंभू (स्वयं से उत्पन्न) होने की बात को स्वीकार करते हैं। यह श्लोक ईश्वर के प्रति गहरे विश्वास और समर्पण की भावना को व्यक्त करता है।
श्लोक 4:
यः स्वात्मनीदं निजमाययार्पितं क्वचिद्विभातं क्व च तत्तिरोहितम । अविद्धदृक साक्ष्युभयं तदीक्षते स आत्म मूलोऽवतु मां परात्परः ॥४॥
अर्थ: जो परमेश्वर अपनी माया से इस विश्व को अपने में समाहित किए हुए है, कभी प्रकट होता है तो कभी अदृश्य हो जाता है, जो दोनों का साक्षी होकर भी उनसे अछूता रहता है, वह परमात्मा, जो सबसे परे है, मुझे रक्षा प्रदान करें।
यह श्लोक ईश्वर के अव्यक्त स्वरूप और उनकी माया के खेल को व्यक्त करता है। ईश्वर सभी का साक्षी होते हुए भी उनसे अलग और उनसे परे हैं।
श्लोक 5:
कालेन पंचत्वमितेषु कृत्स्नशो लोकेषु पालेषु च सर्व हेतुषु । तमस्तदाऽऽसीद गहनं गभीरं यस्तस्य पारे ऽभिविराजते विभुः ॥५॥
अर्थ: समय के साथ सब कुछ पंचतत्व में विलीन हो जाता है, सभी लोकों में, सभी पालनकर्ताओं में, और सभी कारणों में। उस गहरे अंधकार में, जो सब कुछ छिपा देता है, वहाँ पर विभु (परमेश्वर) प्रकाशमान हैं।
यह श्लोक काल के प्रभाव और ईश्वर के अविनाशी, अजेय स्वरूप को दर्शाता है, जो काल के प्रभाव से परे हैं।
श्लोक 6:
न यस्य देवा ऋषयः पदं विदुर्जन्तुः पुनः कोऽर्हति गन्तुमीरितुम । यथा नटस्याकृतिभिर्विचेष्टतो दुरत्ययानुक्रमणः स मावतु ॥६॥
अर्थ: जिसके स्वरूप को न तो देवता, न ही ऋषि जानते हैं, और न ही कोई अन्य प्राणी उसे पाने में सक्षम है, जिसकी गतिविधियाँ एक नर्तक की भाँति अद्वितीय और अवर्णनीय हैं, वह मुझे रक्षा प्रदान करें।
यह श्लोक ईश्वर की अगम्यता और उनकी लीलाओं के अवर्णनीय स्वरूप को बताता है, जिसे मानव या देवता के बुद्धि से समझ पाना संभव नहीं है।
श्लोक 7:
दिदृक्षवो यस्य पदं सुमंगलम विमुक्त संगा मुनयः सुसाधवः । चरन्त्यलोकव्रतमव्रणं वने भूतात्मभूता सुहृदः स मे गतिः ॥७॥
अर्थ: जिनके दिव्य और शुभ पद को देखने की इच्छा रखने वाले, संग से मुक्त, श्रेष्ठ मुनि साधक वन में निर्विकार भाव से विचरण करते हैं और सभी प्राणियों के हितैषी बने रहते हैं, वह (भगवान विष्णु) मेरा गति हैं।
यह श्लोक संतों और मुनियों के जीवन के उद्देश्य और उनकी आध्यात्मिक यात्रा को दर्शाता है, जो भगवान के चरणों की ओर उन्मुख होते हैं।
श्लोक 8:
न विद्यते यस्य न जन्म कर्म वा न नाम रूपे गुणदोष एव वा । तथापि लोकाप्ययसम्भवाय यः स्वमायया तान्यनुकालमृच्छति ॥८॥
अर्थ: जिसका न कोई जन्म है, न कर्म, न नाम, न रूप, न गुण और न ही कोई दोष, फिर भी लोकों के उत्पत्ति और प्रलय के लिए अपनी माया से वे सभी को समय-समय पर धारण करते हैं।
यह श्लोक भगवान के निराकार और निर्गुण स्वरूप को व्यक्त करता है, जो सृष्टि के नियमों से परे हैं।
श्लोक 9:
तस्मै नमः परेशाय ब्रह्मणे ऽनन्तशक्तये । अरूपायोरुरूपाय नम आश्चर्य कर्मणे ॥९॥
अर्थ: उस परमेश्वर को, ब्रह्मा को, जिनकी शक्तियाँ अनंत हैं, जो रूपहीन हैं फिर भी अनेक रूपों में प्रकट होते हैं, और जिनके कर्म आश्चर्यजनक हैं, मैं नमस्कार करता हूँ।
यह श्लोक भगवान की विलक्षणता और उनके दिव्य कर्मों की महिमा को प्रकट करता है, जो मानव मन की कल्पना से परे हैं।
श्लोक 10:
नम आत्म प्रदीपाय साक्षिणे परमात्मने । नमो गिरां विदूराय मनसश्चेतसामपि ॥१०॥
अर्थ: मैं उस आत्मा के प्रदीप (दीपक), साक्षी (साक्ष्य भाव रखने वाले), परमात्मा को नमस्कार करता हूँ। जो वाणी, मन और चेतना से भी परे हैं, उन्हें भी नमस्कार है।
यह श्लोक भगवान को आत्मा के अंतरतम प्रकाश के रूप में वर्णित करता है, जो सभी जीवों के भीतर साक्षी भाव से विद्यमान हैं।
श्लोक 11:
सत्त्वेन प्रतिलभ्याय नैष्कर्म्येण विपश्चिता । नमः कैवल्यनाथाय निर्वाणसुखसंविदे ॥११॥
अर्थ: जो शुद्ध सत्त्व गुण द्वारा और निष्काम कर्मों के माध्यम से ज्ञानियों द्वारा प्राप्त किया जाता है, उस कैवल्यनाथ (मोक्ष के स्वामी) और निर्वाण सुख के अनुभव को मेरा नमस्कार है।
यह श्लोक भगवान को मोक्ष और उच्चतम आध्यात्मिक आनंद के प्रदाता के रूप में वर्णित करता है।
श्लोक 12:
नमः शान्ताय घोराय मूढाय गुण धर्मिणे । निर्विशेषाय साम्याय नमो ज्ञानघनाय च ॥१२॥
अर्थ: शांति, तीव्रता और मूढ़ता के गुण धारण करने वाले, गुणातीत और समता को प्रकट करने वाले, ज्ञान के सार रूप को मेरा नमस्कार है।
इस श्लोक में भगवान के गुण-धर्म (विशेषताएं) का वर्णन है। “शांत” उनके सौम्य और शांतिपूर्ण स्वरूप को दर्शाता है, “घोर” उनकी तीव्र और उग्र शक्तियों को, “मूढ़” उनके मायावी स्वरूप को, जो संसार के बंधनों से मुक्त करने में सक्षम है। “निर्विशेषाय” और “साम्याय” उनके गुणातीत और समानता के स्वरूप को बताते हैं, जहाँ वे सभी विशेषताओं से परे हैं। “ज्ञानघनाय” उनके अपार ज्ञान को दर्शाता है, जो समस्त चेतना का स्रोत है।
श्लोक 13:
क्षेत्रज्ञाय नमस्तुभ्यं सर्वाध्यक्षाय साक्षिणे । पुरुषायात्ममूलाय मूलप्रकृतये नमः ॥१३॥
अर्थ: मैं उस क्षेत्रज्ञ (जीवात्मा के ज्ञाता), सर्वाध्यक्ष (सभी के नियंत्रक), और साक्षी (सभी क्रियाओं के साक्षी) को नमस्कार करता हूँ। पुरुष (आध्यात्मिक आत्मा) और मूल प्रकृति (प्राकृतिक तत्वों का स्रोत) के लिए नमस्कार है।
श्लोक 14:
सर्वेन्द्रियगुणद्रष्ट्रे सर्वप्रत्ययहेतवे । असताच्छाययोक्ताय सदाभासाय ते नमः ॥१४॥
अर्थ: सभी इंद्रियों के गुणों को देखने वाले, सभी प्रत्ययों (विचारों) के कारण, असत (अस्थिर) से जुड़े हुए लेकिन सत (स्थिर) का प्रतिबिंब देने वाले को मेरा नमस्कार है।
श्लोक 15:
नमो नमस्ते ऽखिल कारणाय निष्कारणायाद्भुत कारणाय । सर्वागमान्मायमहार्णवाय नमोपवर्गाय परायणाय ॥१५॥
अर्थ: सभी कारणों के कारण, बिना किसी कारण के अद्भुत कारण, सभी शास्त्रों के माया रूपी सागर को, मोक्ष के मार्ग और उसके अंतिम लक्ष्य को मेरा बार-बार नमस्कार है।
ये श्लोक भगवान की अद्वितीयता, उनके जीवन और सृष्टि के सभी पहलुओं में उपस्थिति, और मोक्ष के प्रदाता के रूप में उनके महत्व को उजागर करते हैं। गजेंद्र ने इन श्लोकों के माध्यम से भगवान विष्णु के सर्वगुण संपन्न स्वरूप की स्तुति की है, जो संपूर्ण ब्रह्मांड का निर्माण, पालन, और संहार करते हैं।
श्लोक 16:
गुणारणिच्छन्न चिदूष्मपाय तत्क्षोभविस्फूर्जित मानसाय । नैष्कर्म्यभावेन विवर्जितागम स्वयंप्रकाशाय नमस्करोमि ॥१६॥
अर्थ: मैं उस स्वयंप्रकाशित परमात्मा को नमस्कार करता हूँ, जो गुणों द्वारा ढके हुए लेकिन चेतना की ऊष्मा से प्रकाशित, मन के क्षोभ से उत्पन्न विस्फूर्जन और कर्मों की अवस्था से रहित हैं।
श्लोक 17:
मादृक्प्रपन्नपशुपाशविमोक्षणाय मुक्ताय भूरिकरुणाय नमो’लयाय । स्वांशेन सर्वतनुभृन्मनसि प्रतीत प्रत्यग्दृशे भगवते बृहते नमस्ते ॥१७॥
अर्थ: मेरे जैसे शरणागत जीवों के बंधनों को मुक्त करने वाले, अत्यंत करुणामय, अविनाशी परमात्मा को मेरा नमस्कार है। अपने अंश से सभी जीवों के मन में प्रतिष्ठित, अंतरात्मा के रूप में विद्यमान, विशाल भगवान को मेरा नमस्कार है।
श्लोक 18:
आत्मात्मजाप्तगृहवित्तजनेषु सक्तैर्दुष्प्रापणाय गुणसंगविवर्जिताय । मुक्तात्मभिः स्वहृदये परिभाविताय ज्ञानात्मने भगवते नम ईश्वराय ॥१८॥
अर्थ: आत्मा, पुत्र, मित्र, घर, धन, और लोगों में आसक्ति रखने वालों द्वारा दुर्लभ, गुणों के संग से रहित, मुक्त आत्माओं द्वारा अपने हृदय में धारण किए गए, ज्ञान स्वरूप भगवान को मेरा नमस्कार है।
श्लोक 19:
यं धर्मकामार्थविमुक्तिकामा भजन्त इष्टां गतिमाप्नुवन्ति । किं त्वाशिषो रात्यपि देहमव्ययं करोतु मेऽदभ्रदयो विमोक्षणम् ॥१९॥
अर्थ: जो धर्म, काम (इच्छाओं), और अर्थ (सामग्री लाभ) से मुक्ति चाहने वाले भक्त उपासना करते हैं, वे अपनी इष्ट गति (लक्ष्य) को प्राप्त करते हैं। मेरे दयालु भगवान, कृपया मुझे भी अविनाशी देह प्रदान करें और मेरी मुक्ति की राह सुगम करें।
श्लोक 20:
एकान्तिनो यस्य न कञ्चनार्थ वाञ्छन्ति ये वै भगवत्प्रपन्नाः । अत्यद्भुतं तच्चरितं सुमंगलं गायन्त आनन्द समुद्रमग्नाः ॥२०॥
अर्थ: जो भगवान के एकांत भक्त हैं, वे किसी भी अन्य वस्तु की इच्छा नहीं करते। वे भगवान के अद्भुत और मंगलमय चरित्र का गान करते हुए, आनंद के समुद्र में डूबे रहते हैं।
श्लोक 21:
तमक्षरं ब्रह्म परं परेशमव्यक्तमाध्यात्मिकयोगगम्यम । अतीन्द्रियं सूक्ष्ममिवातिदूरमनन्तमाद्यं परिपूर्णमीडे ॥२१॥
अर्थ: मैं उस अक्षर (अविनाशी) ब्रह्म, परम परेश्वर की स्तुति करता हूँ, जो अव्यक्त है और आध्यात्मिक योग से ही प्राप्त किया जा सकता है। वह इंद्रियों से परे, अत्यंत सूक्ष्म, दूर, अनंत, आदि और परिपूर्ण है।
श्लोक 22:
यस्य ब्रह्मादयो देवा वेदा लोकाश्चराचराः । नामरूपविभेदेन फल्ग्व्या च कलया कृताः ॥२२॥
अर्थ: जिसके द्वारा ब्रह्मा और अन्य देवता, वेद, स्थावर और जंगम प्राणी सहित सभी लोक, नाम और रूप के भेदों से और मिथ्या (अस्थायी) कल्पना से बनाए गए हैं।
श्लोक 23:
यथार्चिषोऽग्नेः सवितुर्गभस्तयो निर्यान्ति संयान्त्यसकृत् स्वरोचिषः । तथा यतोऽयं गुणसंप्रवाहो बुद्धिर्मनः खानि शरीरसर्गाः ॥२३॥
अर्थ: जिस प्रकार सूर्य के प्रकाश से किरणें निरंतर प्रकट होती और विलीन होती हैं, उसी प्रकार इस ब्रह्मांड का समस्त गुणों का प्रवाह, बुद्धि, मन, इंद्रियां और शरीर उसी से उत्पन्न होते हैं।
श्लोक 24:
स वै न देवासुरमर्त्यतिर्यंग न स्त्री न षण्डो न पुमान न जन्तुः । नायं गुणः कर्म न सन्न चासन निषेधशेषो जयतादशेषः ॥२४॥
अर्थ: वह न देवता है, न असुर, न मर्त्य, न तिर्यक (पशु), न स्त्री, न नपुंसक, न पुरुष, न ही कोई जीव। वह न गुण है, न कर्म, न होने और न होने की स्थिति; वह सभी निषेधों से परे है, और अद्वितीय विजयी है।
श्लोक 25:
जिजीविषे नाहमिहामुया कि- मन्तर्बहिश्चावृतयेभयोन्या । इच्छामि कालेन न यस्य विप्लव- स्तस्यात्मलोकावरणस्य मोक्षम ॥२५॥
अर्थ: मैं न तो इस जीवन की लालसा रखता हूँ और न ही उससे परे किसी अन्य चीज़ की। मैं उस परमात्मा के आत्मलोक की आवरण (बंधन) से मुक्ति चाहता हूँ, जिसका काल से कोई विप्लव (परिवर्तन) नहीं होता।
श्लोक 26:
सोऽहं विश्वसृजं विश्वमविश्वं विश्ववेदसम । विश्वात्मानमजं ब्रह्म प्रणतोऽस्मि परं पदम् ॥२६॥
अर्थ: मैं विश्व के सृजनहार, विश्व और विश्व से परे, विश्व के ज्ञान के समान, विश्व के आत्मा, अजन्मा ब्रह्म, परम पद को प्रणाम करता हूँ।
श्लोक 27:
योगरन्धित कर्माणो हृदि योगविभाविते । योगिनो यं प्रपश्यन्ति योगेशं तं नतोऽस्म्यहम् ॥२७॥
अर्थ: जिनके कर्म योग से बंधे हुए हैं और जिनके हृदय योग से प्रकाशित होते हैं, योगियों द्वारा जिन्हें देखा जाता है, उस योगेश्वर को मैं नमन करता हूँ।
श्लोक 28:
नमो नमस्तुभ्यमसह्यवेग- शक्तित्रयायाखिलधीगुणाय । प्रपन्नपालाय दुरन्तशक्तये कदिन्द्रियाणामनवाप्यवर्त्मने ॥२८॥
अर्थ: असहनीय वेग वाले, तीनों शक्तियों (सृष्टि, स्थिति, संहार) के धारक, सभी बुद्धिमत्ता के गुणों के अधिष्ठाता, शरणागतों के रक्षक, अनंत शक्तियों वाले, इंद्रियों द्वारा अप्राप्य मार्ग पर चलने वाले को मेरा बार-बार नमस्कार है।
श्लोक 29:
नायं वेद स्वमात्मानं यच्छक्त्याहंधिया हतम् । तं दुरत्ययमाहात्म्यं भगवन्तमितोऽस्म्यहम् ॥२९॥
अर्थ: जो अपने आत्मा को नहीं जान पाता, अहंकार की शक्ति से पराजित हो जाता है, उस दुर्गम महात्म्य को, भगवान को, मैं यहाँ से जानता हूँ।
श्लोक 30:
श्री शुकदेव उवाच – एवं गजेन्द्रमुपवर्णितनिर्विशेषं ब्रह्मादयो विविधलिंगभिदाभिमानाः । नैते यदोपससृपुर्निखिलात्मकत्वात तत्राखिलामरमयो हरिराविरासीत् ॥३०॥
अर्थ: श्री शुकदेव जी कहते हैं, इस प्रकार गजेंद्र द्वारा वर्णित निर्विशेष ब्रह्म को, ब्रह्मा और अन्य देवता जो विविध प्रतीकों और अभिमानों से भिन्न हैं, नहीं जान सके। क्योंकि वे सभी का आत्मा हैं, इसलिए भगवान हरि सभी देवताओं के साथ वहाँ प्रकट हुए।
श्लोक 31:
तं तद्वदार्त्तमुपलभ्य जगन्निवासः स्तोत्रं निशम्य दिविजैः सह संस्तुवद्भि : । छन्दोमयेन गरुडेन समुह्यमान – श्चक्रायुधोऽभ्यगमदाशु यतो गजेंद्रः ॥३१॥
अर्थ: जगत के निवासी, भगवान विष्णु, गजेंद्र की वेदना को जानकर और देवताओं द्वारा गाए जा रहे स्तोत्र को सुनकर, वेदमयी गरुड़ पर सवार होकर और चक्र को धारण करते हुए तुरंत गजेंद्र के पास आए।
श्लोक 32:
सोऽन्तस्सरस्युरुबलेन गृहीत आर्त्तो दृष्ट्वा गरुत्मति हरिम् ख उपात्तचक्रम । उत्क्षिप्य साम्बुजकरं गिरमाह कृच्छा – नारायणाखिलगुरो भगवन्नमस्ते ॥३२॥
अर्थ: जब गजेंद्र को झील के भीतर मगरमच्छ ने शक्तिशाली ग्रहण से पकड़ लिया था, और वह दुखी था, उसने गरुड़ पर आते हुए और चक्र धारण किए हुए भगवान हरि को देखा। उसने कमल के फूल को उठाया और कष्ट में कहा: “नारायण, सभी के गुरु, भगवान, मैं आपको नमस्कार करता हूँ।”
श्लोक 33:
तं वीक्ष्य पीडितमजः सहसावतीर्य सग्राहमाशु सरसः कृपयोज्जहार । ग्राहाद् विपाटितमुखादरिणा गजेन्द्रं सम्पश्यतां हरिरमूमुच दुस्त्रियाणाम् ॥३३॥
अर्थ: भगवान ने पीड़ित गजेंद्र को देखा और तुरंत उसके पास आए। उन्होंने कृपा से मगरमच्छ सहित गजेंद्र को झील से उठाया और अपने चक्र से मगरमच्छ का मुख विभाजित करते हुए गजेंद्र को मुक्त कर दिया, जबकि सभी देख रहे थे, भगवान ने उसे तीनों लोकों की कठिनाइयों से मुक्त कर दिया।
गजेंद्र मोक्ष कथा भक्ति की अद्वितीय शक्ति और भगवान की असीम कृपा का प्रतीक है। यह दर्शाता है कि कैसे सच्ची भक्ति और समर्पण के माध्यम से भक्तों को उनके सभी कष्टों से मुक्ति मिल सकती है।
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